‘अम्मा की रोटी’ | नेहा नरूका
‘अम्मा की रोटी’ | नेहा नरूका
अम्मा लगी रहती है
रोटी की जुगत में
सुबह चूल्हा…
शाम चूल्हा…
अम्मा के मुँह पर रहते हैं
बस दो शब्द
‘रोटी’ और ‘चूल्हा’
चिमटा…
चका…
आटा…
राख की पहेलियों में घिरी अम्मा
लकड़ी सुलगाए रहती है हरदम
धुएँ में स्नान करती
अम्मा नहीं जानती
प्रदूषण और पर्यावरण की बातें
अम्मा तो पढ़ती है सिर्फ
रोटी… रोटी… रोटी
खुरदुरे नमक के टुकड़े
सिल पर दरदराकर
गेंहूँ की देह में घुसी अम्मा
खा लेती है
कभी चार रोटी
कभी एक
और कई बार तो
शून्य रोटी