अगर यही प्रेम है | पंकज चतुर्वेदी
अगर यही प्रेम है | पंकज चतुर्वेदी

अगर यही प्रेम है | पंकज चतुर्वेदी

अगर यही प्रेम है | पंकज चतुर्वेदी

अगर यह अधैर्य है 
कि तुम रहो मेरी आँखों के बियाबान में 
मेरे शब्दों की पीड़ा में रहो

मेरे हाथ इतने कोमल हों 
कि डिटर्जेंट से छिल जाती हों उँगलियाँ 
इसलिए अपने और मेरे और सब घर के 
तुम कपड़े छाँटती रहो 
अगर यह ज़िद है 
कि सदियों से करती आई हो 
इसलिए तुम्हीं बरतन माँजती जाओ

जब मैं लौटूँ किसी तकलीफ़देह सफ़र के 
कितने ही दिनों बाद 
तब मेरे ही इंतिज़ार में 
बारजे पर खड़ी तुम मिलो 
अगर ऐसे तुम्हें थकाना चाहता हूँ

अगर ऐसा फ़ासिला है 
कि जब मैं बैठा हूँ किताबों की रोशनी में 
तब तुम चूल्हे की आँच में पसीजो 
भोजन की भाप में डूबी रहो

कितने ही दैनंदिन कर्तव्य हैं 
जिन्हें तुम निबाहती हुई अकेले 
तोड़ी गई पत्तियों की तरह झरती हो चुपचाप

मेरी नींद के बाहर खड़ी तुम विलाप करती हो 
मेरे जागरण में हँसती हो 
अगर यह सच है 
कि मेरे ही आसरे तुम जियो 
और मेरी मृत्यु में 
अपना भी अंत लेकर प्रस्तुत रहो

अगर यही प्रेम है तो प्रिये ! 
मुझे अपने प्रेम से वंचित करो

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *