आकांक्षा | केसरीनाथ त्रिपाठी
आकांक्षा | केसरीनाथ त्रिपाठी

आकांक्षा | केसरीनाथ त्रिपाठी

आकांक्षा | केसरीनाथ त्रिपाठी

राई ऐसा दिन होता है,
पर्वत ऐसी रात
अपने मन से बातें होती,
अपनों की ही बात।

उषा बिखेरे जब-जब लाली
अरुणिम मादक-सा उल्‍लास
नव प्रभात की हर किरणों में
अतिथि आगमन की है आस

समुधुर यादें, सरस कल्‍पना
मन द्वारे पर सजी अल्‍पना
रोली, चंदन, अक्षत, टीका
स्‍वागत की पूरी संरचना

चढ़े दिवाकर ज्‍यों-ज्‍यों नभ में
जीवन की बढ़ती है प्‍यास
घेरे चारों ओर सुहृद हैं
ढाँढ़स, साहस, सुखद सुहास

प्रफुलित-सा मन फिर होता है
कर अतीत की सूक्ष्‍म समीक्षा,
जिन नयनों से साँझ बिदाई
उन नयनों से प्रात प्रतीक्षा

पर अस्‍ताचल जब हो सूरज
चौपड़ पर जैसे हो मात
दिन सिकुड़ा है ऐसे जैसे
छुई मुई के पात

निशा कूद कर फिर जब आती
अपने साथ उदासी लाती
टिम-टिम करती दीपक बाती
मन भी बाँचे जीवन पाती

अपना कौन, पराया कौन
कौन न आया, आया कौन
साथ दिया संकट में किसने
बीच राह से भागा कौन 

मन सोचे, क्‍या पाप किए हैं
उपकारों की बोले कौन
लंबी गाथा जीवन भर की
कह न सके अब जिह्रा मौन

मुँह बाए नीरवता के क्षण
प्रति पल युग से लंबे होते
मित्रों के संग लुप्‍त हुए
जो पीड़ा के स्‍वर गहरे होते

मकड़जाल आकांक्षाओं के
कागज की बेडोर पतंगें
अंत समय के स्‍वप्‍न यों बिखरे
ढाक के जैसे तीनों पात

सेज नहीं यह मधु-यामिनी की
यह प्रयाण की राह रात
मृत्‍यु से आलिंगन है
दिन जीवन की चाह

राई ऐसा दिन होता है
पर्वत ऐसी रात
अपने मन से बातें होती
अपनों की ही बात।

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