आज का दिन | रविकांत
आज का दिन | रविकांत

आज का दिन | रविकांत

आज का दिन | रविकांत

आज का दिन
गुजर रहा है इसी आपा-धापी में
कि कल सुबह मैं तुम्हारा हाथ बटाऊँगा
दिन बीतते न बीतते
अपने दस काम आ पड़ते हैं दाएँ-बाएँ से
और रात है कि कभी सुख नहीं देती मुझे
हर बार
किसी असंतुष्टि के चित्र-दृश्यों में फँसकर
(जिन्हें कि सपने थोड़े ही कहा जा सकता है)
नींद तो रह ही जाती है मेरी
आए दिन
मैं क्षमापूर्वक विनत होता हूँ साथी
तुम्हारे आगे, मन ही मन
तुम मेरा सब-कुछ बन कर रहते हो
मेरे साथ

2

सोचता हूँ कि
आज के दिन को एक मुकम्मल दिन समझूँगा
अपने जीवन के एक भरे-पूरे दिन की तरह देखूँगा
सूखी हथेली पर रखे
इस सोने की गिन्नी-से दिन को
और रात होने पर
कोई अफसोस नहीं करूँगा
दिन के बीत जाने का
इस बात का भी नहीं
कि यह कैसे बीता
क्या रहा इसमें

3

कल तुम मुझे
इस तरह खिंचा-खिंचा-सा नहीं पाओगे
कोई दुःख नहीं करूँगा कल
अपनी कोशिशों की असफलता पर
सोचता हूँ कि
आज के सहज दिन को
महँगा बनाने की कोई कोशिश नहीं करूँगा

4

कल तुम
कुछ राहत महसूस करोगे
कम से कम
मेरी नीरस परेशानियों का ताप
नहीं होगा कल
कल मैं इतिहास की फाँस को
सीने से निकाल फेकूँगा
और
कूबड़ के रूप में चढ़ी बैठी चीजों से
हल्का हो लूँगा
कल कुछ अजीब सी चीजें
मुझमें नहीं रहेंगी
तुम देखोगे

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *