आई गवनवा की सारी | ऋता शुक्ल
आई गवनवा की सारी | ऋता शुक्ल

आई गवनवा की सारी | ऋता शुक्ल

आई गवनवा की सारी | ऋता शुक्ल

बगुले के पंख-सी झक सफेद साड़ी, सफेद मलमल का आधी बाँहोंवाला झूला, गले में सोने की भारी-भरकम कटावदार हँसली, नाक में चिरायते के आकार की कील, कानों के बड़े-बड़े खाली छेदों को ढँकने के लिए सफेद आँचल के छोर को बार-बार सिर और कानों के चारों ओर लपेटी नानी की हँसी में भीगे हुए शब्‍द शिवाले की घंटिकाओं की गूँज बनकर आज भी मुझ तक पहुँचते रहते हैं-तहार नानाजी रामनौमी के अखाड़ा में बाजी जीत के आईल रहलन दुलहिन, सात गाँव के लोग उनका के अपना पीठ पर चढ़ाके सगरे जुलूस निकलले रहे, ओही खुशी में दू-दू तोला कनपासा गढ़वा के ले अइलन-मेरे नाना श्‍वसुरजी सात गाँव पहलवानों को हराकर विजयी घोषित हुए थे। जीत की मदमाती खुशी का खुमार लिए घर लौटने लगे तो याद आया था-मलकिनी ने दही अच्‍छत का टीका लगाते हुए हनुमानजी को गोहराया था-ये जीतकर आएँगे तो हम मंगलवार का निर्जला उपवास रखेंगे… हे महावीर स्‍वामी, इन्‍हें जस दो ! उनकी झुकी हुई ठुड्डी को धीरे-से छूकर नानाजी हो-हो करते हँस पड़े थे-जीत गया तो तुम्‍हारे लिए क्‍या लाऊँगा मलकिनी… अपनी अबोध मानसिकता के अनुरूप किशोरी कमला नानी ने चट फरमाइश की थी… बड़का भइया आरा के बसन्‍तू सोनार के यहाँ से दीदीजी के लिए जैसा कनपासा गढ़वाकर लाये हैं ने ठीक वैसा ही… !

साँझ ढले नानाजी की धमकदार हँसी और गाँव-जवार के हम-उम्र युवकों की किलकारियाँ सुनकर सोलह वर्षीया कमला नानी की धुकधुकी बढ़ गई थी। माथे का लाल लहालीट चुनरी के आँचल ले झटपट माथा ढाँपती वे अपनी कोठरी में जा घुसी थीं-सिंगार की पिटारी से छोटी-सी ऐनक निकालकर उन्‍होंने कोठरी की मद्धिम रोशनी में अपना सिंगार-पिटार पूरा किया था-माथे की टिकुली ठीक कर माँग में सिंदूर भरती हुई वे पीछे पलट रही थीं तभी नानाजी दबे पाँव भीतर आ गए थे। उनकी बलिष्‍ठ भुजाओं में जीत की खुशी का बेपनाह जोर था। आँखें मेरी ओर उठाओ कमला, जरा इधर देखो तो सही… !

उन्‍होंने अपने कुरते की बगलवाली जेब में हाथ डालते हुए गुलाबी झिलमिल कागज में लिपटी कोई वजनी चीज निकालकर उनकी दाहिनी हथेली पर रख दी थी-आहा, दीदीजी के कनपासों से भी सुंदर… इन्‍हें पहनकर दिखाओ तो सही…

– तुम्‍हीं पहना दो न… ! नव‍दंपति की चुहल को बूढ़े श्‍वसुरजी की आवाज का अंकुश लग गया था –

रघुवंश…

– बाहर तुम्‍हारे संघतियाँ बैठे हुए हैं बबुआ, दुलहिन से कहो – सबके लिए दूध औटाकर खीर बनाए, हम तब तक महावीरजी के मंदिर से हो आते हैं।

मैं ब्‍याह कर आई थी तो नानी ने बड़े मनोयोग से तुरंत कार्यक्रम बनाया था – तुम्‍हें अपने गाँव ले जाना है दुलहिन… ! हमारे यहाँ कहावत है – सास का नैहर घूम आओ, तो सात तीरथों का पुण्‍य होता है।

मेरे गाँव जाने की बात सुनकर ये तनिक झुँझला उठे थे – इतनी गर्मी में गाँव की धूल-धक्‍कड़ भरी सड़क नापने की कौन-सी जरूरत है भला। ऐसा ही जरूरी होगा तो दो-चार महीने बाद सोचा जाएगा।

नानी की बड़ी-बड़ी आँखों पर झुकी घनी बरौनियों में अतीत की आर्द्र स्‍मृतियाँ उलझकर रह गई थीं-गाँव में अपना पुरखा पुरनिया के आत्‍मा बा दुलहिन, आपन ठाकुरबाड़ी बाड़ ! देवता-पितर के गोहरावे खातिर हमारा जाइके होई… तू ना चलबू त… रहे द… मैंने नानी की इच्‍छा को पूरा सम्‍मान दिया था-आप मान जाइए न, नानी हमारे भले के लिए ही कर रही हैं न… ! उनकी आत्‍मा को सन्‍तोष मिलेगा। एक दिन की ही बात है… !

तेतरिया के सिवान तक पहुँचते-पहुँचते नानी सारी हिदायतें पूरी कर चुकी थीं-पूरा घूँघट डालकर उतरना दुलहिन, गाँव में फुलवासी काकी है, सुमित्रा फुआ और रासमनी आजी है – उनके पैर छूकर असीस लेना।

गाँव के खाली पड़े हवेलीनुमा घर की दालान का भारी-भरकम ताला खोलकर नानी अंदर जातीं, इसके पहले टोले भर की औरतों का मजमा उनके चारों तरफ घिर आया था – कमला आजी आ गई… ! साथ में उनकी नई नातिन पतोहू भी है।

गाँव की वयोवृद्धा रासमनी आजी ने नानी को अँकवार में बाँध लिया था-गाँव के मोह-माया बिसार देलू दिदिया !-नहीं, गाँव की मोह-माया बिसार चुके होते, तो आज यहाँ… नानी ने धीरे-से सिर हिला दिया था।

सुखिया बनिहारिन ने दालान के लंबे-चौड़े फर्श को चटपट झाड़ू से बुहार दिया था। फुलवासी काकी के घर से पुरानी जाजिम आ गई थी। नानी अपनी झुकी हुई कमर पर हाथ धरकर उठ खड़ी हुई थीं – सब लोगों को जाजिम पर बैठने का इशारा करती वे मेरे कंधे पर हाथ रखकर मुझे अपने साथ अंदर लिवा ले गई थीं। एक-के-बाद एक छाह कोठारियाँ पार कर चुकने के बाद उन्‍होंने आखिरी दरवाजा खोला था – चर्र-चर्र की आवाज के साथ दरवाजे के खुलते ही रोशनी की एक तेज लहर अँधेरी कोठरी में समा गई थी – मैं नानी के पीछे-पीछे आगे बढ़ती हुई सहसा ठिठक गई थी-बेहद लंबा -चौड़ा वह आँगन स्‍थान-स्‍थान पर दीमकों की ऊँची ढूहों से अँटा पड़ा था – छह-सात हाथ से भी अधिक ऊॅंचे सूखे झाड़-झंखाड़ का चारों तरफ अम्‍बार लगा हुआ था – आँगन के उस पार दो कोठरियाँ दिखाई पड़ रही थीं-छप्‍पर एकदम उजड़ा हुआ, सामने और दोनों बगल की दीवारों में जगह-जगह गहरी दरारें। दरवाजे के मजबूत पल्‍लों पर जहाँ-तहाँ दीमक की खूब मीटी तहें ! नानी ओसारे पर स्‍तब्‍ध खड़ी थीं।

यही आँगन था – सुबह पौ फटने के पहले गोबर माटी से इसे चकाचक लीपकर वे पिछवाड़े के कुएँ पर नहाने चली जाया करती थीं-नानाजी की आँखें खुलें या बूढ़े श्‍वसुरजी सिवान से टहलकर वापस लौटें, इसके पहले नानी आधे से ज्‍़यादा काम निपटा चुकी होतीं। आँगन में लगे तुलसी के बिरवे में जल डालकर ठाकुर घर में जल्‍दी-जल्‍दी रामचरितमानस का पाठ कर चुकने के बाद नानी सीधी रसोईघर में चली जातीं ! नाना को बड़ी जल्‍दी भूख लगती थी। सबेरे-सबेरे अखाड़े से लौटकर सात-आठ मोटी-मोटी रोटियों का कलेवा कर चुकने के बाद धौरी गैया के औटाये हुए दूध का एक बड़ा कटोरा खाली कर जाते और तब कंधे पर कुदाल थामे खेती की टोह लेने के लिए निकलते।

बेशुमार झुर्रियों के भरे नानी के चेहरे पर गुजरे हुए वक्‍़त की कचोट रिसती जा रही थी। थरथराती हथेली से मेरे कंधे को थामकर वे वापस मुड़ गई थीं-लुटे हुए मंदिर की बद्धहस्‍त प्रतिमा-सी नानी की दृष्टि अपने खोये हुए अतीत की विकल तलाश कर रही थी-पचास वर्ष पहले जो सुख-सौभाग्‍य अकस्‍मात् खंडित हो गया था, उसकी स्‍मृति उनकी बड़ी-बड़ी काली आँखों में आँसुओं की घनीभूत धरोहर बनकर बस गई थी।

– आप थक गई हैं नानीजी, थोड़ी देर आराम कर लिजिए न !

– ना दुलहिन… ! थाकल नइखीं-ई पागल मन आपन दाह मेटे खातिर बीत चूकल दिन के छाँह में दू घड़ी बइठे चल गइल रहे…

साँझ का धुँधलका दालान के सामने की अमराई पर धीरे-धीरे उतर रहा था। दिया-बाती और रात के खाने की व्‍यवस्‍था पूरी कर चुकने के बाद बूढ़ी सोनबासी आजी को छोड़कर टोले भर की औरतें एक-एक करके अपने घर जा चुकी थीं। नानी ने कहा था-सोनबासी आजी से कवनो परदा नइखे दुलहिन… ! ई हमार सुख-दुख के पुरान साथिन बाड़ी। आजी ने आँगन की तरफ खुलनेवाला किवाड़ बंद करवा दिया था-अब तुम आ गई हो कमला बहिन तो घर कैसा गुलजार लग रहा है। कल सबेरे करमू कहार को बुलवाकर सारे आँगन की सफाई करवा लेना !

बाहर अँधेरा काजल की तरह गाढ़ा हो गया था और भीतर लालटेन की मद्धिम रोशनी में नानी की बहुत पीछे छूटी हुई यादें धीरे-धीरे करवटें बदल रही थीं-नींद नहीं आ रही है नानी?

वे धीरे-से हँसकर मेरी ओर मुड़ गई थीं – उनकी नाक का चिरायता झिलमिला उठा था – सोचतबानी कि एक जुग बीत गइल दुलहिन… ! एही कोठरी में, एही जगह तहार सास जनम भइल रहे… तब अम्‍माजी जियत रहलीं। खूब गोरी दुबली-पतली बड़ी-बड़ी आँखोंवाली उस बच्‍ची को नानी के श्‍वसुरजी ने बाँहों में झुलाते हुए कहा था-ताजे खिले कुमुदिनी के फूल की तरह यह मेरी पोती जिस घर में जाएगी-पूर्णमासी की अँजोरिया उगा देगी-बच्‍ची का नाम कुमुद रख दिया गया था। नानी के स्‍वर में असह्य करूणा थी – गाँव-जवार हमार बेटी के कुलच्‍छनी कहे लागत दुलहिन! उनका जनम के साल भर बाद हफ़्ता भर के बीमारी में अम्‍मा जी… और उसके छह महीने बाद बरसात की अँधेरी रात में खेत की अगोरिया करके घर लौटते नानाजी के पिता की सर्पदंश से अकस्‍मात् मृत्‍यु हो गई थी-अम्‍मा और बाबूजी के इस अचानक बिछोह ने नानाजी के मुँह की हँसी छीन ली थी-नानी के चारों तरफ घिरनेवाले दुर्भाग्‍य-मंडल की वहीं से शुरूआत हो गई थी- आठ वर्षीय पुत्र और नवजात पुत्री को कलेजे से चिपकाए नानी दिन-रात घर में बिसूरती रहती और नाना भी गाँव भर में निरूद्देश्‍य भटकते रहते… अखाड़ा घूर गईल, संघतिया लोग से मन उचाट हो गइल। तहार दिन-रात अइसन सोच उनकर आतम पर चढ़ गइल कि…

नानाजी की ह्ष्‍ट-पुष्‍ट देह को सोच का घुन लग गया था-बाबूजी के रहते अपने खेत-बघार की चौहद्दी नापने की जरूरत नहीं हुई थी। गाय-बैल के दाना-पानी का इंतजाम कहाँ से होता है, आरा से कब बैलगाड़ी भेजकर बीज-खाद और दूसरी चीजें मँगानी होती हैं, बनिहारों की साल-भर की खुराकी का कितना-क्‍या खर्च देना होता है-इस जंजाल से नाना जी सर्वथा मुक्‍त थे – गाँव में अपने बैरी बहुत हैं बबुआ ! तुम्‍हारे चचेरे भाई रामबिलास भी ऊपर-ऊपर के ही मिठबोले हैं। उनकी नीयत की खोट हमें अच्‍छी तरह मालूम है, इसीलिए तो हमने अपनी जिनगी में ही एक-एक इंच जमीन का हिस्‍सा बराबर कर दिया है।

– रामबिलास को भगवान ने कोई बाल-गोपाल भी तो नहीं दिया न फिर भी इनकी धन जोड़ने की माया का कोई अंत नहीं है – इनसे दूर-दूर रहना ही उचित होगा बबुआ !

नानी ने एक बार बताया था उनकी चचेरी जिठानी के शरीर पर सोने के ठोस गहने मढ़े हुए थे। उनका वश चलता तो वे पैरों की पाजेब भी सोने की ही बनवा डालतीं। उन्‍होंने रामबिलास भाईजी के सामने दबी जबान में अपनी यह इच्‍छा जाहिर भी की थी-आँगन में बैठी बड़ी अम्‍मा ने जोरदार डाँट लगाई थी – भगवान से डराए के चाहीं दुलहिन, जवन सोना के राम-लछुमन के मुकुट बा, उहे सोना तहरा गोड़ में परी, धन के गुमान में अइसन अनरथ ना सोचे के चाहीं… !

नानीजी की बड़ी सास अपनी बहू से कहीं ज्‍़यादा ममता उनके लिए रखती थीं। उनकी जिठानी को इस बात का और भी ज्‍़यादा रंज था। नानी के नन्‍हें बेटे को अपनी गोद में लेकर दुलारती-पुचकारती उसकी हर जिद को पूरा करने के लिए आतुर रहनेवाली बड़ी अम्‍मा से जिठानीजी की बात-बेबात तकरार होती रहती थी। इसीलिए तो… उनके आँखें मूँदने के बाद लंबे-चौड़े आँगन में दस फीट ऊॅंची दीवार खिंचवा दी थी-दालान के भी दो हिस्‍से करवा दिए गए थे। नानी के श्‍वसुरजी ने परिस्थिति को थाहते हुए घर के अलावा बाग-बगीचे और खेत-बघार का दो टूक फैसला कर दिया था-मेरे बाद बबुआ को किसी झमेले में नहीं पड़ना पड़े।

उसका बनवाया हुआ शिवाला रामबिलास भाई की जमीन में पड़ता था। नानी शिवरात्रि की पूजा करने गई थीं तो जिठानी ने चुभते हुए बोल सुनाए थे।

नानी को पूजा करने की हड़बड़ी थी। बेटे को हल्‍का-सा बुखार था। वे उसे घर में ही छोड़ आई थीं-जिठानी ने अपने टोले की एक सखी से उन्‍हें सुनाते हुए कहा था-जब से बेटेवाली हुई है, इसके मिजाज नहीं मिलते बहिन… ! ऐसा भी घमंड क्‍या? देखा न, मुँह मोड़कर देखने की भी जरूरत नहीं समझती। बड़े-जेठे का आदर-मान क्‍या होता है, माँ-बाप ने कुछ सिखाया होता, तब तो…

नानी चुपचाप घर चली आई थीं। नानी से सारी बातें सुनकर उनके बाबूजी ने दूसरे दिन ही राजमिस्‍त्री को बुलवाकर आँगन के बीचोबीच दो कोठरियाँ उठवा दी थीं – घर में ही देवालय रहेगा। मेरी लछिमी बहू को कहीं जाने की जरूरत नहीं होगी।

उन्‍होंने हिदायत दी थी-निरबंसिया की आह जल्‍दी लगती है। बच्‍चे को सजा-सँवारकर उधर भेजने का कोई काम नहीं है।

जिस दिन नाना के बाबूजी गुजरे थे, उनकी चचेरी भौजाई सोलह-सिंगार करके बरमपुर का मेला देखने गई थी।

– बाबूजी के बाद तहार नाना अखाड़ा के धूरि माथ पर चढ़ावल भुला गइले दुलहिन… ! गहरे अवसाद में डूबी हुई आत्‍मा की धारदार चुभन को भीतर-ही-भीतर झेलते नानाजी एकबारगी खोखले हो गए थे। जिंदगी के प्रति कोई उत्‍साह नहीं, किसी तरह के आमोद-प्रमोद की कोई लालसा नहीं ! उन्‍हीं दिनों उनके चचेरे बड़े भाई ने एक नई साजिश रची थी। रामनवमी के त्‍यौहार में एक महीना बाक़ी था। नाना के अखाड़ेबाज दोस्‍तों ने उन्‍हें उकसाया था – बिहियाँ के कालीचरन पहलवान को मुकाबले के लिए बुलाया गया है। गाँव भर की इज्‍जत का सवाल है रघुवंश भइया। आपको छोड़कर किसी में भी…

नानाजी ने सिर हिला दिया था। मुखियाजी, सरपंच और ग्राम-सेवकजी आकर समझा गए थे-सबके माँ-बाप साथ छोड़ जाते हैं बबुआ, हर सन्‍तान को यह शोक सहना ही है। तुम धीजर धरो ! पिछला सब कुछ भूलकर आगे का ध्‍यान करो।

नाना ने साफ इंकार कर दिया था-बाबूजी को गुजरे साल भर भी नहीं बीता है, उनकी असीस लिए बर्गर हम अखाड़े में कभी नहीं उतरे… !

बाबूजी का हाथ रक्षा-कवच बनकर हमारी पूरी देह पर फिरता था – उनके छू देने से ही अपनी जीत का अखंड विश्‍वास हमें हो जाता था। नहीं मुखियाजी आप लोग जाइए… अब मुझसे यह सब नहीं होने का… ! एक सप्‍ताह तक गाँव के अखाड़े में पहलवानी का जोर चलता रहा था। कालीचरन ने गाँव के सभी अखाड़ेबाजों को एक-एक करके परास्‍त कर दिया था। आखिरी दिन अपने गुरू रामकृपाल महाराज के बहुत कहने-सुनने पर नाना आखाड़े का जोर देखने के लिए चले गए थे ! कालीचरन को जैसे उन्‍हीं का इंतजार था। उन्‍हें देखते ही वह बिफरे हुए शेर की तरह अखाड़े की चिकनी मिट्टी उठाकर ललकारने लगा था – हमें इस गाँव में बेइज्ज्त करने के लिए बुलाया गया। हम पहले से जानते होते कि यहाँ नामर्दों की फौज जुटी है-तो हम यहाँ कभी नहीं आते… ! है कोई माई का लाल जो…

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नानाजी की अन्‍यमनस्‍कता देखकर उनके चचेरे बड़े भाई रामबिलास ने उकसाया था-क्‍या सोच रहे हो बबुआ, यह सरवा हमारी अम्‍मा के दूध को ललकार रहा है – जरासंध की तरह इसकी टँगरी चीरकर ही इससे बदला… !

कालीचरन का अकेला अट्टहास अखाड़े के मैदान में गूँज रहा था। नानाजी स्‍तब्‍ध थे। रामबिलास भाई ने उन्‍हें दुबारा कुरेदा था-सुन रहे हो बबुआ यह कालीचरन क्‍या-क्‍या बके जा रहा है – हमारी देह में खून नहीं, पानी बह रहा है, हमारी ताकत पर काई जम गई है।

तब तक कालीचरन गैंडे की तरह झूमता नानाजी के करीब आ चुका था – काहे रघुबंस बाबूजी, जोर करना छोड़ दिया है, क्‍यों? लगता है हमें बिना लड़े यहाँ से वापस जाना होगा। सारा दोष रामकृपाल महाराज का है – अरे महाराज, जब आप जानते थे कि आपके गाँव का अखाड़ा मरद-मानुस से खाली हो गया है, तब हमें किस कूव्‍वत पर यहाँ बुलाया था। चुरामनपुर वालों की बात मान गए होते तो अब तक वहाँ से किला फतह कर चुके होते। भरपुर इनाम-बख्‍शीश भी मिली रहती। बिना जोर दिखाए वापस जाने में भी कोई मजा है भला?

तैश में अपनी भारी-भरकम जाँघ पर ताल ठोंकता, मूँछें ऐंठ-ऐंठकर दुष्‍ट हँसी हँसता हुआ कालीचरन नानाजी पर हिकारत भरी दृष्टि डालकर वापस लौट रहा था – उसी वक्‍त उन्‍हें न जाने क्‍या सूझी थी, कालीचरन की दाहिनी टाँग को उन्‍होंने बैठे-बैठै ही एक जोरदार झटका दे डाला था-अचानक हुए वार को सँभालने में असमर्थ कालीचरन मुँह के बल गिर पड़ा था। अखाड़े के चारों तरफ इकट्ठे लोगों ने जोरदार तालियाँ पीटकर नाना का उत्‍साह बढ़ाया था। एक उचटती हुई नजर मजमे पर डालकर नानाजी अखाड़े के बीचोबीच जा खड़े हुए थे-उनकी दहाड़ सुनकर गाँव का बच्‍चा-बच्‍चा स्‍तब्‍ध रह गया था – हिम्‍मत हो, तो आ जाओ कालीचरन, किसने अपनी माँ का दूध पिया है, इस बात का फैसला आज हो ही जाए ! अखाड़े में घंटे भर कालीचरन के साथ नानाजी का जोर चलता रहा था। उसकी काली-कलूटी खुली देह पर लपेट-लपेटकर अपने दाँव फेंकते नानाजी उस दिन बहुत ही फब रहे थे – पहला जोर बराबरी पर छूटा था। और दिन होता तो उनके गुरूजी वात्‍सल्‍य–विह्वल होकर बगलगीरों से कहते सुने जाते-मेरु पर्वत-सी इस कंचन काया का जोड़ गाँव भर में नहीं है भाई ! लेकिन उस दिन वे बिलकुल चुप थे। छह महीने पहले से नानाजी का नियमित अभ्‍यास छूट चुका था। उनके शरीर में शिथिलता के लक्षण उभरने लगे थे।

अखाड़े के एक किनारे खड़े हाँफते रघुवंश नाना की थकान को भाँपकर उन्‍होंने इशारा भी किया था – पीछे हट जाओ बबुआ, यह आदमी नहीं नरपशु है, पहलवानी के गुण-अवगुण की परवाह इसे नहीं है। मदमाते हाथी की तरह यह बावला हो चुका है।

रामकृपाल महाराज नानाजी को चेतावनी देते, इसके पहले कालीचरन उन पर अपनी पूरी ताकत लगाकर झपट पड़ा था-उसके एकतरफा आक्रमण को बचाने की कोशिश में जुटे हुए नानाजी पूरी तरह पस्‍त पड़ते जा रहे थे – गुरूजी ने चीखकर बरजा था – कालीचरन, जोर खत्‍म हुआ। अगल हट जाओ !

कालीचरन के उन्‍मादी हाव-भाव को देखकर वे कूदकर अखाड़े में पहुँच गए थे – तब तक उसने अपनी पूर्ण उन्‍मत्तता का परिचय दे डाला था – नानाजी की गरदन पर उसकी मोटी उँगलियों के साफ निशान छपे हुए थे-उन्‍होंने दो बार उठने की असफल कोशिश की थी। गाँववालों ने उन्‍हें सहारा देकर उठाना चाहा था, लेकिन वे बेदम-से वहीं गिर पड़े थे-और अस्‍पताल ले जाते-जाते…

नानी अपने ठाकुर घर में थीं, जब उन्‍हें वह दर्दनाक खबर मिली थी – नाना की निष्‍प्राणदेह को चौबारी में डाल दिया गया था और उनके चचेरे भाई रामबिलास शव के निकट बैठकर छाती पर दोहत्‍थड़ पीटते हुए विलाप करने लगे थे। नानी पथरा गई थीं –

कैसा दु:सह शोक झेलना पड़ा होगा नानीजी को? अनुमान की आँखें उस दृश्‍य को झेल पाने में असमर्थ हो रही थीं।

नानी स्थिर भाव में सब कुछ सुनाती जा रही थीं और मेरी चेतना क्षत-विक्षत होता जा रही थी –

तिरिया जनम के अपराध ओही दिन पहिले-पहिल हमरा आत्‍मा के कचोटले रहे दुलहिन ! जिनगी के नाव बीच मँझदार में छोड़ के ऊ हाथ खींच लेलन आ हम अकेले दू-दू गो बच्‍चन के बोझ ढोने खातिर पीछे रह गइलीं !

नानी के अबोध बेटे से पिता की मुखाग्नि क्रिया सम्‍पन्‍न करवाई गई थी। श्राद्ध-कर्म के समय उनके नैहर से बड़े भाई आए थे – तुम हमारे साथ चलो कमला, यहाँ इन बच्‍चों को लकर रहना निरापद नहीं…

गाँव भर के लोगों की धारणा थी कि कालीचरण ने रा‍मबिलास से मोटी रकम लेकर जानते – बूझते रघुबंस नाना को खत्‍म करवा दिया था।

नानी के घरवाले आतंकित थे – अब इस गाँव में मत रहो बहिन, चलो हमारे साथ… । नानी ने इनकार में सिर हिला दिया था – इतना बड़ा हवेलीनुमा घर, यह आँगन, ससुरजी की बनायी हुई यह ठाकूर बाड़ी, अपना खेत-बघार, यह सब हमारे बेटे की अमानत है – भइया। मरती बेर वे हमसे कुछ भी नहीं कह गए लेकिन रोज रात में हमारी कहा-सुनी होती है – वे हमें बरज गए हैं – तुम्‍हें कहीं नही जाना है कमला, यहीं इसी घर की अगोरिया करनी है – कुमुदिनी को सुपात्र के हाथों सौंपना है। अखिलेश बबुआ जब अपने पैरों पर खड़े हो जाएँ, तब तुम यह धरोहर उन्‍हें सौंपकर बेशक चली आना, हम तुम्‍हारा इंतजार करते रहेंगे। अभी नहीं मलकिनी, अभी नहीं…

यंत्रणा का चरमदबाव जब कभी उन्‍हें आत्‍मघाती की बौखलाहट सौंप जाता, तब नाना की पुष्‍ट भुजाएँ उन्हें पीछे ढकेल देतीं-अभी नहीं।

और नानी अपने एकमात्र बेटे छत्रछाया बनकर, जीवित रहने की बूँद-बूँद सामर्थ्‍य बटोरती रहीं – सब साथ छूट गइल रहे दुलहिन, लेकिन अबोध बच्‍वन के मुँह देख के हम फेर से जिए के आस सहेज लीं। गाँववालों के अथक प्रयास से कालीचरण पर रघुबंस नाना को जान-बुझकर मारने का आरोप सही साबित हुआ था और उसने थाने में पहली ही मार खाकर सारी बातें उगल दी थीं – रामबिलास बाबू ने दो हजार दिए थे। कहा था – काम पूरा हो जाने पर पाँच हजार और देंगे..।

कचहरी में पैसों का पूरा जोर रा‍मबिलास बेदाग बरी हो गए थे।

नानी हर क्षण सतर्क थीं। सोनवासी आजी उन्‍हें गाँव भर की खबर बता जाया करी थीं -रामबिलास दुमुँहाँ साँप है बहिन, उससे बचकर रहना! अखिलेश मामाजी तब चौथी में पढ़ते थे – नानी ने अपनी मदद के लिए करमू बनिहार और उसकी औरत को बाल-बच्‍चों समेत घर में टिका लिया था – बाल-विधवा सोनवासी आजी ने ही उन्‍हें सलाह दी थी-करमू जनम का अभावा है बहिन, इसे आसरा देना बड़े पुन्‍न का काम होगा और तुम्‍हारा भी मदद होग जाएगी। इतने बड़े घर में रात-बिरात अकेले रहने से अच्‍छा है न…

अमावस के अन्‍हरिया रात रहे दुलहिन… । बाबूजी के दालान में सेंध पड़ल … ! नानी ने मुँह पर जाब चढ़ाए चोरों की संख्‍या का अँधेरे में ही अनुमान कर लिया था – वे छह सात या उससे भी अधिक रहे होंगे – दालान में रखे हुए वजनी संदूक का ताला तोड़कर वे चोर – बत्ती से कुछ टटोल रहे थे। नानी दबे पाँव घर के बाहर निकल आई थीं। उनके चिल्‍लाने की आवाज सबसे पहले करमू बनिहार के कानों में पड़ी थीं।वह झटपट बाहर आ गया था – का भइल मलकिनी?

उसे दिखकर उनका बल बढ़ा था – पीछे-पीछे आने का संकेत देती हुई वे दालान की ओर झपट पड़ी थीं। आहट पाते ही चोरों ने उनके मुँह पर रोशनी फेंकी थी और जब तक वे सँभलते की चेष्‍टा करते, तब तक नानी रणचंडी बनी उन पर टूट पड़ी थीं – सेंध से निकलकर भागता हुआ आखिरी चोर उनकी गिरफ्त में था-करम बनिहार ने उसकी मुश्‍कें कस दी थीं – गाँवभर के लोग जमा हो गए थे। थाना, कचहरी और मार का नाम सुनते ही वह बिलबिला उठा था, उसने नानी के चचेरे जेठ की ओर देखकर बुरी तरह रोना-चीखना शुरूकर दिया था – अब बचाते क्‍यों नहीं मालिक, पहिले तो कहा था, तुम्हारी हिफाजत का जिम्‍मा हमारा… अब आँख क्‍यों चुरा रहे हैं, सरकार…?

रामबिलास बौखला उठे थे – क्‍या बक रहा है हरामजादा? उन्‍होंने गाँववालों की ओर मुखातिब होकर सफाई दी थी-देखा, हमें फँसाना चाह रहा है! ठहर साले, तेरी जीभ काट लेनी है, तुझे अपाहिज बनाकर छोड़ना है। गाँववालों की मार के डर से उसने सब कुछ कबूल कर लिया था। चुरामपुर के जदु टोले के छह जन थे। गहने की पिटारी को बाकी साथियों ने पहले ही पार कर दिया था। तलाश करने पर गहनों का सुराग भी मिल गया था – आधे से ज्‍़यादा सोने के गहने बक्‍सर के भीखन सुनार ने गला दिय थे। नानी ने पूरे संदूक की चीजों को उल्‍ट-पलटकर देखा था – खेल बघार के बँटवारे के जरूरी कागज भी संदूक से गायब थे। उन कागजों का अंत तक कोई पता नहीं चल सका था।

नानी की आँखे दालान की मोटी धरन पर टिकी हुई थीं – जिनगी में जबन लड़ाई हम लड़ने बानीं, ओकर कवनों आर-पार दुलहिन…।

अखिलेश मामा गाँव के सिवानवाले स्‍कूल में पढ़ते थे। वे जब तक घर वापस नहीं आते, तब तक नानी का मन अशांत रहता… रामबिलास, उनके चचेरे जेठ की क्रूरता ने पतिकार का कोई भी अवसर नहीं छोड़ने की जैसे सौगंध ले रखी थी। तेईस वर्ष की युवा विधवा पर जितने भी अपवाद लगाए जा सकते थे – लगाए गए।

करमू बनिहार और उसकी औरत को बहला-फुसलाकर तैयार किया गया – अखिलेश मामा के दूध में कुछ मिला दे या स्‍कूल मिला दे या स्‍कूल से लौटते वक्‍़त बंसवारी के एकांत में उन्‍हें …!

करमू बनिहार ने तीन पुश्‍त के नमक का हक चुकाया था। अखिलेश मामा के आगे-पीछे परछाई बनकर लगे रहनेवाले उस हटूटे-कटूटे युवक के रहते नानी निर्भय थी…

कई बार उसनकी खड़ी फसल कटवा ली गई थी, जिस रोज उनकी खलिहान में आग लगाने की कोशिश करता उनके चचेरे जेठ का मुँहलगा बनिहार मौके पर पकड़ लिया गया था। उस रोज नानी ने उन्‍हें पहली बार आमने-सामने चुनौति दी थी – अबला समझ के हमरा के पछाड़े के कोशिश मत करीं भाईजी, मौका पड़ी त s हम हल के मूठ पकड़ के आपन बव्‍वन के आहार जुटा सकेंली… ! लेकिन राउर मन के डाह रउवा के ले डूबी-हमार खलिहान जला के रउआ बाँच जाइब ना होई !

निपढ़, निरक्षर नानी ने आरा के इजलास में जाकर सैकड़ों लोगों के बीच बड़ी दबंग गवाही दी थी – भाईजी ने हमारा घर उजाड़ने में कोई कोरकसर बाकी नहीं छोड़ी! अखिलेश के बाबूजी की हतियाके पीछे इनका हाथ… । ये चाहते हैं कि हमारे दोनों बच्‍चे मर-बिला जाएँ और ये हमारे हिस्से की सारी जायदाद हड़पने का मौका पा सकें ! नानी ने न्‍यायाधीस के जमीर को ललकारा था… हम पढ़ल-लिखल नइखीं जज साहेब, तबो आपन बच्‍वन के पालन-पोसन के औकात जुटवले बानीं। लेकिन ई अत्‍याचारी रावण बनिके हमरा पीछे पड़ल बा! रउआ राज में न्‍याय होखे त दूध-के दूध पानी-के-पानी करीं… !

नानी के बयान ने केस को नया मोड़ दे दिया गया – जेलखाने में सजा की मियाद भुगत रहे कालीचरण को पुलिस के कड़े पहरे में इजलास लाया गया था। रामकृपाल महाराज, करमू बनिहार, सोनवासी आजी और गाँव के दूसरे लोगों की गवाह हुई थी। दो महीने बाद फैसला सुनाया गया था – रामबिलास शातिर अपराधी है। उसकी हर गतिविधी से षड्यंत्र की गंध मिलती है ओर यदि उसे छोड़ दिया गया तो वह आगे मुसमात कमला देवी के लिए नई विपद खड़ी कर सकता है। सभी गवाहों को गौर से देखने के बाद नानी के जेठ को पाँच वर्षों की बामशक्‍कत कैद की सजा सुनाई गई थी।

उस दिन नानी की आत्‍मा को पहली बार गहरे तनाव से मुक्ति मिली थी – ठाकुरबाड़ी में गइलोत तहार नाना के बोली कान में गूँजे दुलहिन… नाना की आत्‍मा परिशांत थी – तुमने बहुत बड़ा काम किया है मलकिनी ! हमें अन्‍याय से परास्‍त किया गया था। कालीचरण ने मौका देखकर मेरी अंतड़ियों में कोहनी की चोट दी थी – लेकिन हम आश्‍वस्‍त है – अखिलेश बबुआ तुम्‍हारी देख-रेख में खूब हिम्‍मती बनेंगे, हमें भरोसा है।

बेटी का कन्‍यादान करके नानी ने एक बोझ से मुक्ति पाई थी – उन्‍हीं दिनों अखिलेश मामा को आरा के सरकारी स्‍कूल में मास्‍टरी मिल गई थी लेकिन उन्‍होंने अपनी दिनचर्या भी सोच ली थी – सुबह जाएँगे और रात के पहले गाँव लौट आएँगे। नानी को यह प्रस्‍ताव मंजूर नहीं था – रात-बिरात गाँव के सुनसान पड़े रास्‍ते पर अकेले घर लौटना… नानी ने तय किया था, वे बेटे के साथ आरा में ही मकान लेकर रहेंगी। गाँववालों घर की आधी कोठरियों में ताला बंद रहेगा। करमू और उसके बाल-बच्‍चे खेत-बघार और घर की अगोरिया करते रहेंगे।

दूसरी सुबह जंगल की शक्‍ल ले चुके आँगन की पोर-पोर सफाई करवाती हुई नानी तनिक उत्‍कंठित थीं – पहली बार गाँव छोड़कर आरा गई थीं, तब लौटने में महीने भर की देर हो गई थी दिन-रात खेत अगोरने के फेर में करमू बनिहार घर-आँगन की सफाई करना लगभग भूल ही गया था। नानी ने उस घर की दुर्दशा देखकर उसे तनिक डपट दिया था। करम बनिहार का तर्क भी अपनी जगह पर बिलकुल ठीक था – रामबिलास भाई के घर को अगोरने के लिए, उनकी खेती-बारी देखने के लिए, उनकी ससुराल के दो लड़के जिठानीजी के साथ रहने लगे थे। उन उन दोनों की ऊधम के मारे टोला परेशान था-नानी की जिठानी दिन-रात उन्‍हें उकसाती रहतीं और वे करमू बनिहार की अनुपस्थिति में, आँगन की दीवार फाँदकर इधर चले आते और आँगन में पड़ा सारा सामान तितर-बितर कर डालते। इतना ही नहीं, उन दोनों ने एक बार ठाकुरघर का ताला तोड़कर पूजा के सारे बर्तन भी चुरा लिए थे।

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नानी ने लगातार महीने भर लगकर सारी गृहस्‍थी फिर से सहेजी थी। आँगन-घर चम-चम चमकने लगा था। मुखियाजी अखिलेश मामा के लिए एक रिश्‍ता लेकर आए थे। अगुआ से लड़की और उसके खानदान के विषय में सुनकर नानी उमग उठी थीं-उन्‍होंने चटपट बात दे दी थी-तहरा सास के विदाई के बाद घर-दुआर काटे दउरत रहे दुलहिन, अखिलेश बबुआ काम पर निकल जासु आ, हम अकेले पड़ल छत के कंडी गिनत रहब !

अखिलेश मामा के ब्‍याहवाले दिन की याद करती नानी के पोपले मुँह पर उछाल की नई लहर दौड़ गई थी-रेशमी कुरता, पियर धोती, मलमल के चटक गुलाबी चादर, गोड़ में लाल टहकार आलता ! तिलक के दिन बबुआ हरदी रंगल पीढ़ा पर बइठले त कलेजा जुड़ा गइल रहे दुलहिन !

अखिलेश मामाजी ने हूबहू नानाजी की आकृति पाई थी – पतले होंठ, खूब तीखी नाक और दप-दप करता ऊँचा ललाट-बेटे के माथे पर दही-अच्‍छत का टीका लगाते हुए नानी की देह अवश हो चली थी। सोलह साल पहले लुटा हुआ सौभाग्‍य उनके कलेजे को अचानक दहकाने लगा था – आज अगर वे होते हो… उनके साथ गँठजोड़ करके वे अपने कुल-देवताओं को गोहरातीं-‍पीली गोटेकार साड़ी पर भर माँग सिंदूर डालकर वे बेटे का परिछावन करने निकलतीं! नाना के दिए हुए कनपासे उन्‍होंने संदूक में सहेजकर रख दिए थे – अपने हाथों से उन्‍होंने वे कनपासे नानी को पहनाए थे – इन्‍हें कभी मत उतारना मलकिनी… !

हाँ, अगर कान कट जाए तो-इतने भारी-भरकम कनपासे हैं… ! कोई परवाह नहीं, हम आरा ले चलकर टाँका दिलवा देंगे। इन कनपासों को पहनकर तुम्‍हारा चेहरा कैसा लगता, है, बतायें – जैसे अँधेरी कोठरी में मानिक दीप जल उठा हो-

नानी ने गुमान से उनकी चौड़ी चकली छाती पर अपना मुँह सटाते हुए कहा था – आप इतना सब कुछ मत बोलिए, हमें अपने भाग पर आप ही डर लगने लगता है।

एक दिन सुबह-सुबह में सिंदूर डालना भूल गई थी – नानी ने मुझे तुरत टोक दिया था- तिरिया के सिंगार चुटकी भर सिंदूर होला दुलहिन । ओकरे बिना सब सूना बाS। जा सिंदूरानी के ले आवS। ईश्‍वरीय विधान ने सिंदूर का अधिकार छीनकर नानी को जन्‍म भर का परिताप दे डाला था, लेकिन उस परिताप की पहली कचोट उन्‍हें अखिलेश मामा के ब्‍याह पर मिली थी – बारात जाने के पहले वे जान-बूझकर ठाकूर घर का दरवाजा भिड़काकर अंदर बैठ रही थीं – बेटे की जिनगी की सबसे शुभ घड़ी है, उनकी अशुभ छाया उस पर हरगिज नहीं पड़े। सोनबासी आजी समझ गई थीं।

माँ-माँ की गुहार मचाते अखिलेश मामाको उन्‍होंने इशारे से बता दिया था – दूल्हे का जोड़ा – जामा पहने हुए वे उल्‍टे पाँव वापस लौट आए थे – अम्‍मा, तुम रो रही हो-क्‍यों अम्‍मा, तुम्‍हें हमारी कसम है। अगर तुमने सच-सच नहीं बताया तो हम घर से बाहर कदम नहीं रखेगे… नानी ने जल्‍दी से अपनी आँखे पोंछ ली थीं – बहुत दु:ख मिला है बबुआ अब सुख के दिन लौटेंगे न, तो भगवान को मना रहे थे कि किसी की बुरी दीठ नहीं लगे !

मामीजी बयाह कर आईं तो नानी ने संदूक खोलकर नाना के दिए हुए कनपासे उनकी हथेली पर रख दिय थे-तहार ससुरजी के निशानी दुलहिन… !

मामी को आए साल भर भी नहीं बीता था – नानी के पास खबर आई थी – कुमुदिनी अस्‍पताल में भरती है, तुरत आ जाएँ… ! घर-गृहस्‍थी का सारा भार मामी पर डालकर नानी अकेली ही दानापुर गई थीं। हमरा गोदी मा बचिया के देह छूटल दुलहिन-जवना कोख से जनम देले रहलीं-ओही कोख में उनकर माटी सहेज के रात भर अस्‍पताल में बइठल रहलीं ! चार गो चिरई-चुरमुन छोड़ के हमार बचिया आँख मूँद ले लीं।

मेरी सास के पेट में अल्‍सर था। भीतर-ही-भीतर फोड़े के फूट जाने की वजह से पूरी देह में जहर फैल गया था। वे अस्‍पाताल जाते-जाते …

दामाद की पीड़ा को अपनी पीडा़ मानकर उन्‍होंने बेटे के सामने प्रस्‍ताव रखा था – छोटे-छोटे बच्‍चे माँ के बिना बिलख रहे हैं। बबुआ, मेरा वहाँ रहना जरूरी है। घर दुलहिन देख लेंगी, हम भी बीच-बीच में गाँव आते रहेंगे।

मामाजी ने राय दी थी-क्‍या ऐसा नहीं हो सकता कि बच्‍चों को यहीं गाँव में ले आया जाए… । तुम्‍हारा वहाँ रहना… गाँववाले क्‍या कहेंगे अम्‍मा?

नानी के तर्क से वे परास्‍त हो गए थे – तुम्‍हारे रामबिलास काका जेहल की कैद से छूट गए हैं। उनकी नीयत की खोट पहले से चौगुनी हो गई है बबुआ, बेटी के अबोध बच्‍चों को यहाँ रखना खतरे से खाली नहीं है – यह गेहुँ अन साँप कब फन काढ़कर किधर से हमें डँसेगा-इसकी खबरदारी रखना होगी। तुम और दुलहिन भी खूब होशियारी से रहना।

आपन आत्‍मा के गवाही मान के हम फैसला कइलीं दुलहिन… !

गाँव-जवार की उचित-अनुचित बातों को अनसुनी करके नानी अपने विवेक की राह पर आगे बढ़ निकली थीं।

मैं उन्‍हें बीच में टोके बिना नहीं रह सकी थी-भगवान ने आपको इतना सुख दिया नानीजी – फिर भी आप सुबह-शाम उसी भगवान की गोहराती रहती हैं- आपके मन में कभी कोइ शिकायत नहीं उपजती? कोई खीझ नहीं, किसी तरह का आक्रोश नहीं… नानी ने हँसकर सारेदुख सहार लिए थे- भगवान के घर में हमारे सभी कर्मों का लेख रहता है दुलहिन, वह उचित समय पर उचित सजा देने का पूरा हकदार है, उसकी अदालत के खिलाफ हमें उठाने की कोई मोहलत नहीं… ।

मैं इस बात से सहमत नहीं थी – नानाजी के चचेरे भाई रामबिलास से बढ़कर पापी कौन होगा, उनकी मूँछों का डंक क्‍यों नहीं झड़ा नानीजी, जेल से छूटकर भी वे उसी तरह शेर-बबर बने घूमते रहे और आप घड़ी-घड़ी आशंकाओं की सलीब पर चढ़ी अपने परिवार की खै़रियत मनाती भीतर-ही-भीतर टूटती-बिखरती रहीं-ऐसा क्‍यों हुआ?

नानी के शहर में आ जाने के बाद उनकी जिठानी ने अपना मायाजाल फैलाया था- अखिलेश मामा के घर से चले जाने के बाद वे जब-तब मामी के निकट आ बैठतीं और नानी के गुजरे हुए अतीत के गलत-सलत प्रसंग उनके सामने दुहरातीं –

मामी के कान में पड़े कनपासों को देखकर उन्‍होंने दाहक शब्‍दों के विषबुझे बाण छोड़े थे – छोटकी को इतनी भी अक्‍ल नहीं है न, अपने कनपासे तुम्‍हें पहना दिए! और तुम भी कितनी भोली-भाली हो कनिया, जानती नहीं विधवा की उतरन पहनने से कितना बड़ा अशुभ होता है, भगवान न करें अखिलेश बबुआ…

मामी ने उसी रात वे कनपासे उतारकर रख दिए थे। नानी के पूछने पर वे आत बदल बैठी थीं – बहुत भारी हैं, कान दुखने लगता है।

उनकी गैरहाजिरी में जिठानी जी की आमदरफ्त की बात उन्‍हें सोनवासी आजी ने बताई थी- नई-नई बहुरिया है, रामबिलास की बहू इसे जरूर कोई पट्टी पढ़ा रही है बहिन… तुम जरा होशियार कर देना… ।

नानी की बात को अनुसूची करते हुए मामी उनकी जिठानी जी के साथ बदस्‍तूर मिलती रही थीं। अखिलेश मामाजी की चेतावनी का भी उन पर कोई असर नहीं पड़ा था – वे दुश्‍मन होंगी आपकी अम्‍मा की, हमारे साथ तो खूब मीठी बातें करती हैं और हमारा भी तो मन बहलना चाहिए न… ।

ब्‍याह के पाँच साल बाद भी मामी की कोख में किसी नई आस के फलने-फूलने का कोई संकेत नहीं पाकर नानी थोड़ी चिंतित रहने लगी थीं। उन्‍होंने मामी को शहर के डॉक्‍टर से दिखाने की बात की थी- उनकी जिठानी जी ने मामी के कान भर दिए थे – तुम्‍हारी सास तुम्‍हें बाँझिन समझती है – कनिया, उसकी तिकड़मबा़जी तुम नहीं समझोगी – डॉक्‍टर से दिखाकर तुम्‍हारे बॉंझ होने का सबूत पा जाएगी ताकि बेटे का दूसरा ब्‍याह…

मामी और नानी में जबर्दस्‍त कहा – सुनी हुई थी – नानी आहत मन लेकर दानापुर वापस लौट गई थीं।

उन्‍हीं दिनों मामाजी डिप्‍टी कलक्‍टरी की परिक्षा पास करके नया ओहदा पा गए थे। उकनी पहली नियुक्ति छपरा में हुई थी – उन्‍होंने दबी जबान में नानी से कहा था – अम्‍मा, वहाँ बड़ा बँगला मिला है, नौकर-चाकर भी हैं, तुम्‍हारे लिए गाय पोस लेंगे, तुम बच्‍चों को लेकर हमारे साथ चलो…।

नानी राजी नहीं हुई थीं – तहार ससुर के दोष नइखे दुलहिन, ऊ कभी रोक ना लगवले।

नानी कबूलती थीं कि छोटे-छोटे नाती-नातिनियों को ममता ने उन्‍हें जकड़ लिया था। वे मामा के पास कभी दस-पंद्रह दिनों से अधिक नहीं ठहर पाई थीं…।

भगवान के खिलाफ नहीं, लेकिन मामी के खिलाफ नानी ने आवाज जरूर उठाई थी। गहरी शिकायत का स्‍वर उनकी खोखली छाती में रह-रहकर उमड़ता रहता था-जिस दोमुँहे साँप से हम सबको खबरदार करते रहे, उसे हमारी ही पुतोहू ने दूध से भरा कटोरा पिलाया।

रामबिलास की पत्‍नी मामी के पास किसी-न-किसी बहाने आती रहती थीं-अपने दोनों भतीजोंको उन्‍होंने मामी के हवाले कर‍ दिया था – बिना माँ-बाप के बच्‍चे हैं कनिया, अखिलेश बबुआ से कहकर इनकी चाकरीका कहीं कोई जोगाड़ लगवा दो… ।

मामा की लंबी-चौड़ी बैठक में बिवाइयों से भरे गंदे पैरों को सोफे की गद्दी पर आराम से फैलाये वे दिन भर अपनी चंडाल-चौकड़ी जमाए रहते – मामा के ऑफिस चले जाने के बाद मुहल्‍ले के सड़क छाप युवकों का वहाँ जमाव होता, ताश की बाजी जमती और मामी भीतर से उनके चाय-नाश्‍ते का बन्‍दोबस्‍त करती रहतीं।

मामाजी का आपत्ति भी होती, तो मामी उन्‍हें निरूत्तर कर देतीं- आप चार-चार पाँच-पाँच दिन टूट पर रहते हैं। इतने बड़े घर में हमसे अकेले नहीं रहा जाता।ये बच्‍चे रहते हैं तो इनसे हँस-बोलकर जी लगा रहता है। और फिर आपकी दुश्‍मनी तो बड़े काकाजी से थी, अब तो वे भी नहीं रहे। अपनी चचिया सास के लिए मामी की अधिक सहानुभूति थी।

मामा कभी-कभार दानापुर आते तो जिद करते-बच्‍चों को लेकर इस बार साथ चलों न, अम्‍मा। तुम वहाँ रहोगी तो फालतू लोगों की भीड़ छँटेगी। हमें चैन की साँस लेने का मौका मिलेगा।

वे बड़े दुखी भाव से कहा करते थे – अपने ही घर में हमारी हैसियत बाहरी आदमी की सी हो गई है अम्मा, घर का कोई भी कोन ऐसा नहीं है, जहाँ हम अपनी मर्जी से दो क्षण अकेले बैठ सकें… । बड़ी काकी और उनके भतीजों के मारे नाक में दम हो गया है। तुम वहाँ रहोगी, तो उन लोगों को टिकने की हिम्‍मत नहीं होगी, गौरी भी तुम्‍हारा संकोच मानकर…

नानी ने तीखे शब्‍दों में बेटे की बातों का विरोध किया था – कचनार बेंत की टहनी को जितना झुका सको, झुका लो लेकिन सूखी हुई बेंत को मोड़ने की कोशिश अपने-आप में बड़ी नादानी होगी बबुआ, दुलहिन अपने आप सारा मलिकाँव ले बैठी हैं, तुमने पहले ही उसे पूरी छूट दे दी। अब हमारा दबाव उन पर नागवार गुजरेगा, भवगान की यही मर्जी थी… ।

नानी ने दो-टूक जवाब दे दिया था – बेटी का घर अगोर रहे हैं, अपने समाज में यह अपमानवाली बात तो है ही बबुआ, लेकिन तुम्‍हारे घर जाकर दिन-दिन भर अनादर की रौरव यंत्रणा भुगतने से तो अच्‍छा है कि जिनगी के बचे-खुचे हिस्‍से को इन्‍हीं बाल-बचचों के बीच खरच दिया जाए। ये बड़े हो जाएँगे तो देख जाएगा- गाँव का घर तो कहीं नहीं गया है न।

मेरे विवाह के दो वर्ष पहले वह घटना घटी थी – मामी की हठीली मानसिकता से अखिलेश मामाजी भतीर-ही भीतर बहुत सन्‍त्रस्‍त रहने लगी थे। उनके घर अयाचित अतिथियों का दिन-दिन भर मजमा जुआ रहता और वे कुछ नहीं कह पाते… । कभी क्षीण विरोध करते भी तो मामी खटवास ले लेतीं, उनका मौन तिरस्‍कार मामा के लिए और भी घातक होता… । दिन-रात की कुढ़न का असर उनके अस्‍वास्‍थ्‍य से उपजा हुआ चिड़चिड़ापन उनकी दिनचर्या का अनिवार्य अंग बन गया था। कोई भी दिन ऐसा नहीं होता, जब वे घर में गर्जन-तर्जन नहीं करते – मामी उनसे बहस करतीं तो वे दीवारों पर अपना सिर पटकने लगते… अपनी दोनों मुट्ठियों से अपने ही सिर के बाल बेतहाशा नोचते लगते… ।

क्रोध के भयंकर तनाव की अवस्‍था में एक दिन उन पर हृदय-रोग का भयंकर आक्रमण हुआ था। एक सप्‍ताह से अस्‍पताल में भर्ती थे, तब नानी को सूचना मिली थी। मेरे छोटे देवर के साथ वे तुरंत छपरा पहुँची थी – हमरा के देखते बबुआ रोवे लगते।

मामा ने नन्‍हें शिशु की तरह बिलखते हुए नानी के आँचल में मुँह छिपा लिया था – हमें छोड़कर मत जाओ अम्‍मा, ये लोग मुझे जिंदा मार देंगे। कोई भी मेरी खोज-खबर नहीं लेता – सब घर में मौज कर रहे हैं।

रात-भर मामा अकेले छटपटाते रहते थे। वहाँ एक गिलास पानी देनेवाला भी कोई नहीं था। मामी ने साफ मना कर दिया था- हमसे अस्‍पताल की गंध सही नहीं जाती। दिन भर बैठ जाएँगे, लेकिन रात में वहाँ नहीं रहना है। बाप रे, डिटौल और दवाइयों की महक तो वहाँ दम घुटता है।

नानी एक महिने तक मामा के सिरहाने बैठी रही थीं- दिन-रात अपलक उनके चेहरे को निहारर्ती- उनका पूर जतन करतीं –

मामा के चेहरे की खोई हुई कांति फिर लौटने लगी थी – वे जब तब नानी का खूब दुलार करते – इस बार अच्‍छा हो जाने दो अम्‍मा, तुम्‍हें तीरथ पर ले चलूँगा, हम दोनों माँ-बेटे चारों धाम घूमकर आएँगे… । तुम्हें द्वारिकाजी जाने का शौक भी तो है न… ।

नानी की जिद से मामा को पटने के बड़े डॉक्‍टरों को दिखाया गया था। उन्‍होंने पूरे आरामकी सलाह दी थी – नानी ने ही प्रस्‍ताव रखा था – तुम्‍हारी बदली पटना नहीं हो सकती क्‍या बबुआ, यहाँ रहोगे, तो हमें भी सहूलियत होगी… ।

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मामा की अर्जीपर विचार करतेहुए सचिवालय में उनकी बदली का आदेश भी आ गया था। उस दिन मामाजी अपने नए पद का भार लेनेवाली थे। छपरा से पटना आने की तैयारी हो रही थी। ऐन वक्‍त पर मामी की मति पलट गई थी – उन्‍होंने जिद ठान ली थी – हम पटना नहीं जाएँगे..। आप माँ-बेटे वहाँ रहें, हम बड़ी अम्‍मा के भतीजों के साथ अपने नैरह चले जाएँगे… ।

उनकी मानसिकता को थाहकर मामा एकबारगी उबल पड़े थे- कंगाल की बेटी हो न, बुद्धि भी जन्‍म से दरिद्री लोगों-सी है – अम्‍मा से तो तुम्‍हारा बैर ठहरा, तुम उनके साथ पटना क्‍यों जाओगी-हम मरें या जिएँ – हमारी परवाह किसे…

मामी ने मुँह पर जवाब दिया था – आपकी परवाह करनेवाली आपती अम्‍मा तो है ही… उनके सामने…

मामा ने पलटकर उन पर हाथ चला दिया था – जहाँ जाने का मन है, चली जाओ, अम्‍मा के खिलाफ एक शब्‍द भी निकाला तो आज तुम्‍हारी खैरियत नहीं है।

उसी रात मामा को दूसरा दौरा आया था और वे पटना अस्‍पताल में पूरे चौबीस घंटे संज्ञाहीन रहने के बाद…

नब्‍बे वर्षीया नानी के चेहरे पर पड़ी झुर्रियों की बेशुमार लकीरों में उनकी उम्र भर की पीड़ादायी इतिहास उभर आया था – एकमात्र पुत्र की मृत्‍यु के वज्राघात को उन्‍होंने अदभूत धैर्य के साथ सहा। बेटे के माथेपर चंदन का अवलेप लगाकर उसे अंतिम विदा देती हुई नानी ने नियति को ललकारा था – दो, और कितने दुख देने हैं, मेरी झोली खुली है।

मामी ने विलाप करते हुए उन्‍हें जी भरकर कोसा था – हमारा सुख आपसे नहीं देखा गया न, आप तो चाहती ही थीं, कि आपकी ही तरह मेरी भी गति हो।

नानी निर्वाक् अपनी बहू के वचन-दंश झेलती रही थीं-पुत्रवधू के वैधत्‍व को विस्‍फारित नेत्रों से देखती हुई वे स्‍तब्‍ध हो गई थीं – ईश्‍वर ने पिछले जन्‍म के कर्मों का भोग दिया है।

जीवन-युद्ध में कभी हार नहीं माननेवाले योद्धा की तरह नानी अपनी मानसिकता में अटूट आस्‍था सँजोए हुए सब कुछ झेलती रही थीं। मुझे कोहबर घर की ओर ले जाती वे उतनी ही मगन थीं – साल बीतने दो दुलहिन, गोदी में बाल-गोपाल होना चाहिए, नहीं तो हम तुम्‍हें वापस नैहर भिजवा देंगे, अपने नाती का दूसरा ब्‍याह रचाएँगे…।

मेरी मुँह-दिखाई के समय उन्‍होंने पड़ोंस की सुनयता चाची से कहा था – हमार बेटी रूप बदल के आ गइली बचिया, ओइसने रंग-रूप, ओइसने सुभाव…।

नानी के खुले विचारों को देखकर मैं आश्‍वस्‍त थी – किसी तरह की कोई बाध्‍यता नहीं….। पहले दिन ही उन्‍होंने सिखाया था – लाज तिरिया जात के नजर में होला, दुलहिन, मुँह पर आँचर रहे आ बहकत रहे, अइसन ढोंग कवनों काम के ना।

नानी के गाँव से दूसरे दिन विदा हुई थी, तो मन में उनका दिया हुआ संकल्प था और आँखों में उनके स्‍वाभिमान की परछाई उमड़ती चली आ रही थी – स्‍त्री-जाति की घोर अवहेलना के जिस युग में उनहोंने अपनी अपूर्व साहसिकता का परिचय दिया था, सैकड़ों अपवाद झेलने के बाद भी मिठी हंसी हँसती हुई जो अपनी नियति को ललकारती रही थीं – उनका सान्निध्‍य मुझे गौरव की दीप्ति दे गया था – आप जैसा असाधारण जीवट सबमें नही हो सकता, नानीजी।

उनकी प्रबल इच्‍छाशक्ति के सामने मैं विनत थी।

नानी ने हँसकर मेरे माथे पर अपनी दाहिनी हथेली रख दी थी – बोलS कवन असीम चाहीं?

मैं कुछ नही कह पाई थी। उन्‍होंने ही अपनी ओर से वाक्‍य जोड़ा था – असीम देत बानी-हमार उमिर ले के जियS हमार भाग ले के ना।

गाँव से लौटकर नानी ने मेरे श्‍वसुरजी के सामने एकाध-बार इच्‍छा व्यक्‍त की थी – अब आप फिर से घरबारी हुए, बच्‍चे भी औकातवाले हो गए – हमें छुट्टी दीजिए… ।

गाँव घर उजाड़ हो गया है, वहाँ भी तो देखना-सहेजना होगा न… ।

मेरे आँसुओं ने नानी के क्षीण तर्क को परास्‍त कर दिया था – गाँव में अब क्‍या रह गया है नानीजी, आप हमें छोड़कर मत जाइए… । मेरे आते ही आप ऐसा क्‍यों सोचने लगीं, जरूर मुझसे कोई बड़ी भूल…।

नानी ने अपनी हथेली से मेरा मुँह बंद कर दिया था – ना दुलहिन, हमरा कबनो तकलीफ नइखे। ठीक बा, जे तू लोग चहबू उहे होई।

नानी की कठोर दिनचर्या अब धीरे-धीरे शिथिल होती जा रही है – इन दिनों वे अक्सर नानाजी के पुराने किस्‍से-कहानियों में डूबती-उतराती रहती हैं – पहलवानी देह रहे दुलिहन, तीन-तीन आदमी के पीठ आ कान्‍हा पर बइठा के सगरे गाँव के फेरा लगा आवत रहलन – अब ओइसन मरद-मानुष कहाँ बाS।

मैं नानी से कहा करती-आपकी तरह बुलंदी से सौ वर्ष जीनेवाली औरतें भी नहीं दिखाई पड़ती नानीजी, इस उम्र में भी आप इतने सारे काम कैसे सँभाल लेती हैं?

नानी अपनी झुकी हुई गर्दन की अस्‍त-व्‍यस्‍त हँसुली को दुरुस्त करती कहतीं – हमारे जमाने में दुध-घी का सुतार था दुलहिन – काछा खूँटकर (मर्दों की तरह धोती बाँधकर) ढेंकी कूटते, चक्‍की पीसते और डटकर खाते थे – बाजरा ज्‍वार कुछ भी हो, अन्‍न पेट में जाना चाहिए… तुम लोगों की तरह चुन-चानकर नहीं खाते थे न… ।

नए जमाने की मरियल लड़कियों को नानी ने मुर्गियों की उपाधि दे रखी थी – ये खाती थोड़े ही हैं – दुलहिन, खाली चुगती है – माँ-बाप का अनाज बचाती हैं।

कभी-कभी वे बड़ी गम्‍भीरता से कहा करती थीं – तुम्‍हारे नानाजी अखाड़ेबाज थे न दुलहिन – हमारी जिनगी के लिए घर में ही एक अखाड़ा खोल गए – लो, करम भागों से जुझती रहो।

नानी का शरीर क्रमश: क्षीण होता जा रह है। अब पहलेवाली पाचन-शक्ति भी नहीं रही। दूध-रोटी या दूध-भात के दो-चार कौर मुश्किल से पचा लें, तो बहुत है। कंधे तक झूकते बालों का बोझ भी उनसे बर्दाश्‍त नहीं होता-अब यह जहालत कटवा दो न दुलहिन, ये केश रहें, न रहें, सब बेकार है।

नानी के झक सफेद बाल लड़कों की तरह छोटे-छोटे कटवा दिए गए है – उनके छोटे से चेहरे पर ये कटे हुए बाल बहुत अच्‍छे लगते हैं – मैं अक्‍सर परिहास करती हूँ – आपको अंगरेजिनों वाला लंबा चोगा पहना दिया जाए तो आप बिलकुल मेम साहब लगेंगी।

नानी शांत हँसी हँस देती हैं – पहना दो, जो जी चाहे, करो…।

नानी का दुर्बल शरीर क्रमश: अक्षमता की ओर बढ़ता जा रहा है। आधी रात में बाहर जाना हो, तो अपने-आप कमरे से ही आवाज लगाती हैं – तनि सहारा द दुलहिन अब तहरे लोग के आसरा बा। बात-बात में अपनी आसन्‍न मृत्‍यु की चर्चा करती हुई वे खुलकर हँस पड़ती हैं – अब बिसाती आपन दोकान सहेजले चाहता दुलहिन-आइल गवनवा के सारी… नानी के थरथराते गले में निर्गुण के बोल काँप-काँप जाते हैं।

काम से फुर्सत मिलती है तो कहती है – तनी पास बइठ दुलहिन, रामायण ले आवS –

इन दिनों रामचरितमानस के एक ही प्रसंगपर उनकी रुचि केंद्रित हो गई है – जन्‍म-मरण, सुख-दु:ख, हानि-लाभ और प्रियजनों का मिलन वियोग – ये सारे प्रसंग काल के अधीन हैं। अज्ञानी सुख में हर्षित होते, दु:ख में रोते हैं।

और काल की अधीनता को सहज भाव से स्‍वीकारती हुई नानी अपनी और से टिप्‍पणी देती हैं –

अब सारे भोग अंतिम अवसान की प्रतिक्षा में हैं – आखिरी समय नजदीक आवत बाS दुलहिन।

मैं उन्‍हें मना करती हूँ – ऐसी बात मत कहिए नानी, अभी आपको जीना है, हमारे लिए…।

बात बदलने के लिए मैं उन्‍हें पुराने किस्‍से-कहानियों की ओर मोड़ना चाहती हूँ। लेकिन उस ओर भी उनका कोई उछाह नहीं रह गया है – हमार जिनगी के किस्‍सा-कहानी में कवनो रस नइखे दुलहिन, ऊसर जमीन के कोख में जवन बीज डलबे सुखा जाई।

नानी का संपूर्ण जीवन पीड़ा की अंतरहीन त्रासदी बनकर रह गया, यह मानने से मुझे इनकार नहीं था, लेकिन जब कभी वे बंजर धरती से अपनी तुलना करतीं, तब मुझे बहुत बुरा लगता-चारों तरफ आपकी तपस्‍या के फूल खिले हुए हैं नानी, आपकी असीस से ही यह परिवार फल-फूल रहा है-आप नहीं होतीं तो..

नानी की दोनों पुतलियों में परितृप्ति की अनोखी चमक भर जाती है। सब ईश्‍वरीय विधान था… । हमने उनके आगे आपको समर्पित कर दिया, बस… ।

नाना के दाहिने पाँव के अँगूठे में एक बार चोट लग गई थी – वह घाव उस वक्‍त सूख गया था – इन दिनों उस अॅगूठे के चारों तरफ कालापन-सा छा जा रहा है। जब-जब अँगूठे में हल्‍की टीस की शिकायत भी वे करती रहती हैं। डॉक्‍टर या अस्‍पताल की नौबत नहीं आई, अब आखिरी समय में..।

डॉक्‍टरों के नाम से उन्‍हें चिढ़ जैसा हो गई है। उनका विश्‍वास है कि भगवान जो चाहेगा होकर रहेगा, डॉक्‍टरों की दवा किसी की आयु नहीं बढ़ा सकती-यदि ऐसा संभव होता तो उनकी इकलौती बेटी, उनका एकमात्र बेटा – दोनों ही असमय उनसे क्‍यों छिन जाते…?

मैं उनके भगवान को चुनौती देती हूँ- अपने पूजा-पाठ, जप-तप में कभी कोई कटौती नहीं की नानी, की नानी, फिर भी आपके भगवान ने सारे दु:ख आपको ही क्‍यों दिए? डॉक्‍टर किसी की आयु बढ़ा नहीं सकते, यह बात तो मैं मानती हूँ लेकिन भगवान को क्‍या हक था कि उसने आप इकट्ठे इतने अत्‍याचार किए…

नानी मुझे इशारे से चुप करा देती हैं – तुम जिसे दु:ख कहती हो, हम उसे विधि का विधान मानते हैं दुलहिन, पिछले जन्म के…

नानी की निस्‍पृह जीवन-शैली पर अक्‍सर मेरी खीझ उमड़ पड़ती है – जितने ऊँचे विचार आपके हैं – वहाँ तक पहुँचने में हम लोगों को कई जन्‍म लेने पड़ेंगे, फिर भी हमें आपके ईश्‍वरीय विधान पर सख्‍त एतराज है – जो जितना अधिक सहनशील हो उसी के माथे पर सारे दुखों की पिटारी रख दी जाए – आपके भगवान का कानून भी कितना विचित्र है नानीजी?

नानी किसी भी कीमत पर ऑपरेशन के लिए तैयार नहीं है – अंतिम विदाई की बेला में अंग-भंग करवाने करवाने से क्‍या फायदा? मन पर इतने सारे नश्‍तर चुभे हैं, देह पर अब कोई क्‍या नश्‍तर चलाएगा…

नानी अपनी टीस भूलकर हँसती रहती हैं – तुम रोती क्‍यों हो दुलहिन… अब इस देह में बचा ही क्या है… खोखली काया, जितनी जल्‍दी छूटे उतना ही अच्‍छा होगा न, तुम्‍हारे ऊपर कितना भार बढ़ता जा रहा है।

नानी को चेतना कभी उबर रही है, तो कभी महाशून्य के गर्भ में समा जा रही है- अद्भुत आत्‍मबल की गवाही देने वाली उनकी आँखों की स्‍वाभाविक चमक बुझती जा रही है। उनकी पुतलियों पर मृत्‍यु का आसन्न अवसाद गहरा अवलेप चढ़ा रहा है – कुछ विशेष खाने की इच्‍छा है नानी…?

– नहीं, अब कुछ भी नहीं –

उनका सारा शरीर निषेध की मुद्रा में उद्वेलित होता है – अब कोई लालसा नहीं – देह की हर शिव में मुक्ति की ऐंठन दौड़ रही है – तृषा – विकल गौरेया की तरह उनके होंठ बार-बार खुलते हैं – तुलसी – गंगाजल दs दुलहिन… ।

जीवन भर के अभाव शायद मृत्‍यु के अंतिम क्षणों में अपना विकल्‍प पाने के लिए नया रूप धर-धरकर सामने आने लगते हैं। अपने चिर-संचित अभावों की पूर्ति की परिकल्‍पना में नानी रह-रहकर विभोर हो जाती हैं – लाल टहकार साड़ी, दूनो कान में अंजोरिया के फूल अइसन कनपासा। तनि ऐनक ले आवsत दुलहिन…?

– आप कुछ कह रही हैं नानी?

कोई उत्तर नहीं… । अंतिम तंद्रा में डूबी हुई नानी की चेतना अपूर्ण लालसाओं के नए छोर का स्‍पर्श करने के लिए आतुर है – कोई सोहर गा रहा है क्‍या? आज रामनौसी है? कौशल्‍या की कोख में राम का अवतार हुआ है…?

नानी ने यह बात बहुत पहले बताई थी। अखिलेश मामा को गोद में लिए ठाकून घर में घुसी थीं तो छठी की पीली साड़ी का आँचल खींचकर नानाजी ने कहा था – आज तुम कैसी लग रही हो मलकिनी? साक्षात कौसिल्‍या जैसी और बबुआ रामजी के अवतार हैं –

पाँव की उँगलियों में गैंग्रीन की सड़ाँध उमड़ने लगी है। नानी की नि:शब्‍द रूलाई क्षण-क्षण असह्य होती जा रही है – उनकी अवश होती चली जा रही देह की पोर-पोर में एक फरियाद है, जिसकी प्रामाणिकता मेरी आत्‍मा के सबसे करूण अनुभव के रूप में ढल चुकी है –

यदि ईश्‍वर नाम की कोई शक्ति इस दुनिया में है – तो मैं अपना उलाहना उस तक पहुँचाना चाहती हूँ। जीवन भर धर्म में अखण्‍ड आस्‍था रखनेवाली, पूजा-पाठ के सारे नियम निबाहने वाली नानी के लिए दो क्षणों के सुख का भी सृजन ईश्‍वर ने क्‍यों नहीं किया? मैं उससे अनुनय करना चाहती हूँ – नानी को उनके कष्‍टों से यथाशीघ्र मुक्ति मिले भगवान… ।

यंत्रणा का चरम अनुभव करनेवाली नानी की आस्‍था में दरार के कोई लक्षण नहीं है- थोड़ी देर के लिए उनकी वाक्‍ -शक्ति लौट आई है, वे अत्यंत क्षीण स्‍वर में कुछ कह रही हैं -हमरा बाद अइसन पीड़ा केहू के मत मिले भगवान…। उनके चेहरे पर करूण हँसी है – अब साथ छूटत बा दुलहिन… उनके से अस्‍फुट राग फूट रहा है – आइल गवनवा की सारी…।

अपने प्राणों का दुस्‍सह भार आँखों की पुतलियों में समेटकर वे मुझे अपलक देख रही हैं… ।

सौ वर्ष पुरानी काया अपने अंतिम प्रयाण की तैयारी में है-नानी की बड़ी–बड़ी आँखों में महाशून्‍य छाता जा रहा है। सामाने उनकी निष्‍प्राण काया है, और कमरे में अकेली मैं हूँ। नानी की चेतना मीठी हँसी-हँसती हुई निर्गुण के महाराग का आलाप लेती मुझसे विदा ले रही है।

आई गवनवा की सारी… ।

मेरी पथराई हुई संज्ञा अनायास एक गहरी प्रार्थना बनकर नानी के पैरों से लिफ्ट जाना चाहती है – आपको शांति मिले नानी, अपार शांति मिले।

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