सग़ीर और उसकी बस्ती के लोग | हरि भटनागर
सग़ीर और उसकी बस्ती के लोग | हरि भटनागर

सग़ीर और उसकी बस्ती के लोग | हरि भटनागर – Sageer Aur Usaki Basti Ke Log

सग़ीर और उसकी बस्ती के लोग | हरि भटनागर

अब्बा मरा तो सग़ीर पशोपेश में पड़ गया। अब वह किसके साथ काम पर जाए? पेट कैसे भरे? नाल लगाने का काम ऐसा है जो अकेले नहीं किया जा सकता। उसमें किसी-न-किसी की मदद की जरूरत होती है, फिर उसकी अभी उमर ही क्या है! काम भी तो वह ठीक से सीख नहीं पाया… काफी देर तक जेहन में लड़ने के बाद उसके सामने ज़हीर उस्ताद की तस्वीर खड़ी हुई। ज़हीर उस्ताद बस्ती के आदमी हैं और काफी नेक। सबके आड़े वक्त में काम आते हैं। वह सोचने लगा, अगर ज़हीर उस्ताद उसे काम पर रख लें तो कितना अच्छा रहे। लेकिन क्या वे उसे रखेंगे? – इस सवाल पर वह उदास हो गया। – मगर उनके पास उसे जाना तो चाहिए। बिना गए कैसे सोच लिया कि वे काम नहीं देंगे! ज़हीर उस्ताद अकेले हैं शायद रख लें उसे। उनका लड़का अभी हाल में मरा है…

वह ज़हीर उस्ताद के पास गया।

ज़हीर उस्ताद ने उसे नाल लगाने के काम में रख तो लिया लेकिन एक लंबी फिकर में डूब गए वे। नाल लगाने के काम से उनका खुद का गुजारा बमुश्किल चलता था। सग़ीर को रखने का मतलब था कि उसे उतने पैसे दो कि उसकी अम्मी का भी गुजारा हो जाए। यह उनके लिए समस्या थी, लेकिन वे घबराए नहीं। सोचा, लड़के को रख लिया है तो अब निबाह करना ही होगा। थोड़ी दौड़-धूप और सही! सग़ीर उमर में छोटा जरूर था लेकिन था चुस्त-दुरुस्त। उन्होंने उसे काम में अतियारी दिलाने की बात सोची। इससे उन्हें फिलहाल अभी मदद मिलेगी, बाद में जब वह अपना अलहदा काम जमा लेगा तो उन्हीं का नाम होगा कि ज़हीर उस्ताद का शागिर्द है… उन्हीं का पौधा है!

ज़हीर उस्ताद काफी खुश हुए उस दिन। और इसी खुशी में लिपटे-लिपटे उन्होंने सग़ीर को काम सिखलाना शुरू किया। वे उसे काम पर ले जाते और नाल लगाते वक्त तरह-तरह की जानकारियाँ देते। अब्बा के साथ काम करते हुए सग़ीर थोड़ा-बहुत काम सीख गया था लेकिन जहाँ अब्बा से डरता था, वहीं ज़हीर उस्ताद से उसका दोस्ताना बरताव है। जिस बात को डर के मारे अब्बा से पूछ नहीं पाता था, ज़हीर उस्ताद से धड़ल्ले से पूछता। ज़हीर उस्ताद शगल करते हुए काम करते और जानकारियाँ देते।

सग़ीर दिनभर ज़हीर उस्ताद के साथ काम में जुटा रहता। शाम को सग़ीर उस्ताद थोड़ा-बहुत जो पैसा देते, वह अम्मी के हाथ पर रख देता। अम्मी, उसी में, रो-गाकर, दोनों जून पेट भरने का जुगाड़ करती। लेकिन ऐसे भी दिन आते जब दोनों जून चूल्हा भिनभिनाता, अम्मी उदास बैठी रहती…

ज़हीर उस्ताद के गहकी वे इक्केवान और किसान हैं जो ज्यादातर कस्बे के आस-पास के गाँव से आते। इक्केवान तो फिलहाल रोजाना सवारी ढोते लेकिन किसान कस्बे के बाजार के दिन ही आते। बाजार के दिन अगर कोई तीज-त्यौहार रहता तो वे अगले बाजार को आते या आ जाते तो पड़ाव डाल देते।

घोड़े को नाल लगाने में कोई दिक्कत नहीं आती। घोड़ा आराम से पूँछ हिलाता खड़ा रहता है – उसका एक-एक पाँव मोड़-मोड़कर खुर छील दो, फिर नाल लगा दो। पर बैल के नाल लगाने में खासी दिक्कत आती है। उसे पहले पैरों में रस्सा बाँधकर गिराना पड़ता है – यही सबसे बड़ी दिक्कत होती है। बैल गिर जाता है तो कोई परेशानी नहीं। धड़ से नाल टाँक दो। पर नाल लगाने में तजुर्बेकार हाथ की जरूरत होती है जो ऐसी कील ठोके कि न घोड़े-बैल को दिक्कत हो, न इक्केवान-गाड़ीवान को घोड़े-बैल की वजह से काम बंद करना पड़े। और इक्केवान उसी आदमी के पास आते जो मिनटों में बिना किसी जिल्लत के काम फतह कर दे।

ज़हीर उस्ताद के हाथ को यह माहिरी हासिल थी। वे जानवर देखते जिसके नाल लगानी होती, पहले उसका पुट्ठा ठोंकते, फिर मिनटों में नाल लगाकर दौड़ा देते।

ज़हीर उस्ताद चाहते कि सग़ीर उन्हीं की तरह जल्द माहिरी पा ले। ऐसा वे इसलिए चाहते कि उन्हें दमे की बीमारी थी। कभी तबियत ठीक रहती, कभी ऐसी बिगड़ती कि खाट से उठा न जाता। बेपनाह तखलीफ उन्हें कई दिनों के लिए लिटा देती। ऐसे वक्त माहिरी हासिल हो जाने पर, उन्हें सग़ीर के सहारे की उम्मीद थी।

पाँच-छह माह में सग़ीर को अपने काम में पूरी माहिरी हासिल हो गई, लेकिन ज़हीर उस्ताद की नामौजूदगी में एक भी गाहक उसके पास न फटकता। इसके कई कारण थे – एक तो, चूँकि वह नाटा था और चौदह बरस की उमर के बावजूद नौ-दस बरस का लगता। गहकी यह सोचकर कि अभी लौंडा है, काम बिगाड़ देगा – उसके पास न आते। दूसरे, नाल लगानेवाले और लोग भी मौजूद थे जो गहकियों की समझ में सग़ीर से अच्छा काम कर लेंगे – इसलिए वे उसके पास न आते…

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हालाँकि उसे शाम को खाली हाथ लौट आना पड़ता फिर भी उसे आशा थी कि गहकी उसके पास काम की खातिर आएँगे, जरूर आएँगे…

यही दिन होते जब सग़ीर के घर का चूल्हा दोनों जून भिनभिनाता और उसकी अम्मी उदास बैठी रहती।

ऐसे हालात में, जब ज़हीर उस्ताद खाट से चिपके होते और सग़ीर नाल का बस्ता ले रोज लौट रहा था – उसे एक बात सूझी। वह कस्बे की दुकानों में काम के लिए गया। उसे चाय की दुकान में काम मिल गया। दुकान बहुत छोटी और गंदी थी। लगता था उसमें चाय न बिककर कोयला बिकता हो। लेकिन सग़ीर वहाँ ज्यादा दिन काम न कर सका। वहाँ के भद्दे आचरण, हाड़तोड़ मेहनत, उस पर थोड़ा पैसा, उसमें उसका भी पेट न भरे, अम्मी और ज़हीर उस्ताद की बात दीगर… वह काम छोड़कर भाग आया था। इसी तरह वह एक दूसरी चाय की दुकान में काम की खातिर गया, जो शक्ल-सूरत में पहली दुकान जैसी थी, बल्कि उससे बदतर… वहाँ भी वह ज्यादा दिन न टिक सका। वह सारी ईजा झेलने को तैयार था यदि उसे मात्र उतना पैसा मिल जाता जिससे उसका, अम्मी और ज़हीर उस्ताद का पेट भर जाता, लेकिन दोनों जगह से वह निराश था।

उसकी अम्मी कहती – रिक्शा तो तू अब चला ही सकता है, किसी मालिक से अरदास कर किराए पर देने के लिए, अगर न दे तो बता मैं चलूँ मिन्नत करूँ। सग़ीर कई बार रिक्शामालिकों के पास भी गया जो किराए पर रिक्शा उठाते, पर किसी ने कम उमर और कमजोर देह के कारण उसे रिक्शा न दिया। एक मालिक ने तो उसकी कलाई पंजे में भरते हुए कहा था – मुरगे-तीतर की टाँग की तरह तो तुहारी कलाई है, रिक्शा क्या चलाओगे… इसके बाद उसने ठहाका लगाते हुए भद्दी गाली उछाली थी।

सग़ीर ने रिक्शेवाली बात अम्मी को नहीं बताई। और अम्मी है जब ज़हीर उस्ताद खाट पकड़ते और भूख की बेहालियत काटने दौड़ती, अपनी बात दोहराती। आज भी जब ज़हीर उस्ताद खाट से चिपके हैं और सग़ीर सुबह नाल का बस्ता लेकर काम पर गया था, दोपहर तक उसकी बोहनी नहीं हुई, लौट आया, अम्मी ने रिक्शे की बात उठाई…

सग़ीर को अम्मी के इस रवैये से कोफ्त होती। वह नहीं चाहता कि अम्मी रिक्शेवाली बात उठाए, लेकिन अम्मी है अपनी आदत से मजबूर… उसे अम्मी पर जोरों का गुस्सा आया, – साली यह अम्मी है! जान रही है तब भी बंबू किए जा रही है… उसका मन हुआ उठकर एक थपरा जमा दे, लेकिन पता नहीं क्यों वह जब्त कर गया। यकायक उसके दिल में अम्मी के प्रति प्यार उमड़ पड़ा कि आँसू आ गए। आखिर अम्मी की गलती ही क्या है! वह भी तो भूखी पड़ी है… वह तो नेक सलाह दे रही है, यह तो मेरी गलती है कि मैं उसे पूरी बात बताता नहीं, लेकिन वह टिपिर-टिपिर बोलती बहुत है, इससे गुस्सा आता है… अगर मैं उसे पूरी बात बता भी दूँ तो क्या होगा, वह दूसरे काम के लिए कहेगी और दूसरा काम मिलना नहीं है…

यकायक वह झोपड़ी के बाहर आ गया। उसका मन हुआ, कहीं निकल जाए और तब तक झोपड़ी में न आए जब तक अँधेरा न हो जाए, क्योंकि तब मुमकिन है, अम्मी सो जाए और वह सवाल-जवाब से बच जाए।

सग़ीर जिस बस्ती में रहता है, वह कस्बे से अलग एक कोने पर है। बस्ती में तीस-चालीस फूस की झोपड़ियाँ हैं, जो बोरों, टीन और बरसाती पन्नियों से ढकी-मुँदी हैं जिन्हें देखकर लगता है कि इनमें इनसान न रहकर चील-कौवे रहते हैं। बस्ती में चारों ओर गंदगी है जिस पर सूअर-चील-कौवों और कुत्तों की मुकमल नोंक-झोंक चलती है।

सग़ीर झोपड़ी के बाहर आ खड़ा हुआ, तभी उसे एक कुत्ता दिखाई पड़ा जो किकियाते भागते सूअर का पीछा कर रहा था। सूअर सरपट भागता जा रहा था, किंतु बीच-बीच में पलटकर कुत्ते को काटने भी दौड़ता था… कोई दूसरा दिन होता, सग़ीर को यह दृश्य उम्दा लगता। चूँकि आज जब उसका पेट भूख से जल रहा था, उसे यह दृश्य जरा भी अच्छा न लगा। उल्टे उसे लगा, कुत्ता सूअर का पीछा न करके उसका पीछा कर रहा है!

बस्ती में छोटे-छोटे नंग-धड़ंग बच्चे धूल उड़ाते हुए हँस-खेल रहे थे। सग़ीर उनके बीच से ऐसे निकला गोया उनसे बचना चाह रहा हो!

वह उस सड़क पर आ गया जो कस्बे को नदी से जोड़ती है। सड़क पर आने पर उसे पता चला कि कस्बे में ‘नहान’ है। नहान की वजह से सड़क पर सैकड़ों की भीड़ आ-जा रही है। आने-जाने वाले लोग हँसते-खिलखिलाते एक-दूसरे को धकियाते बढ़ रहे हैं।

सड़क के बगल कँटीली झाड़ियाँ हैं। सग़ीर का पायजामा उनमें फँसकर कई बार फटा, लेकिन उससे बेखबर वह नदी के घाट की ओर बढ़ गया।

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घाट पर सैकड़ों की भीड़ है। नदी में कोई आधा डूबा खड़ा है, कोई डुबकियाँ लगा रहा है, कोई छलाँगें। कोई पत्थर पर एड़ी घिर रहा है, कोई तौलिया से बदन पोंछ रहा है। औरतें भी नहा रही हैं, मर्द भी, बच्चे भी। सभी चीख-चिल्ला, हँस-से रहे हैं।

अब्बा जिंदा था तब सग़ीर कभी-कभार उससे आँख बचाकर घाट पर आ जाया करता था, लेकिन जब से अब्बा मरा, वह घाट पर नहीं आ पाया था। एक तरह से वह सारे उल्लास से कट गया था। उसके सामने केवल एक चिंता थी – पेट की! वह हमेशा यही सोचा करता था कि अधिक-से-अधिक गहकी उसके पास आएँ और वह अधिक-से-अधिक पैसा पाए और अम्मी के सुपुर्द कर दे। बस! इसके अलावा उसके जेहन में कोई बात आई ही नहीं!

कभी यह घाट, इसकी रेत, इसका पानी उसमें दूर से गुदगुदी पैदा करते थे, पर आज वही रेत है, वही घाट है, वही पानी है – उसमें जरा भी गुदगुदी नहीं कर पा रहे हैं!

सग़ीर के पास से नहा-धोकर लोग निकल रहे हैं। उनमें से कुछ ‘हरे राम हरे राम’ कुछ ‘सीता राम सीता राम’ जोर-जोर से गाते हुए हथेलियाँ बजा रहे हैं। वे अपने कंधों-सिरों पर गीली जाँघिया-बनियान डाले हुए हैं। उनके माथों पर चंदन का टीका लगा है।

सग़ीर को उनके इस तरह गला फाड़ चिल्लाकर गाने पर गुस्सा आया। उसने उनकी तरफ से मुँह फेर लिया। कुछ देर तक वह निरर्थक, दूर तक फैले बालू के विस्तार को देखता रहा, तभी उसे अपने पास दो लड़के खड़े दिखाई दिए, जो पंजों पर भुना दाना रखे थे और एक-एक बीनकर खा रहे थे। उनके इस तरह खाने को देखकर सग़ीर को जोरों की भूख महसूस हुई। यकायक उसने उनकी तरफ से मुँह फेर लिया गुस्साकर, लेकिन लड़कों की तरफ जब उसने फिर देखा, वे पंजों पर रखा दाना खा चुके थे और बगल के खेत की ओर बढ़ गए थे। मेड़ पर वे हँसते हुए दौड़ रहे थे। चूँकि मिट्टी बलुई और नम थी, इसलिए बार-बार उनके पैर मेड़ में धँस जाते और वे एक तरफ को गिर जाते। वे बार-बार गिरते, बार-बार उठकर दौड़ते। सग़ीर को उनकी यह हरकत अच्छी लगी।

वह मुस्कुरा दिया और उठकर उन लड़कों की ओर बढ़ा। लड़के आगे बढ़कर आम के दरख्तों के पीछे खो गए। सग़ीर ठिठककर खड़ा रह गया। शायद इंतजार करने लगा – लड़कों के निकल आने का, लेकिन वे दिखाई नहीं दिए। उनके स्थान पर दस-बारह लोग नमूदार हुए, जिन्हें देखकर लगता था कि किसी बड़े घर के हैं। सभी सुंदर कपड़े और चमचमाते जूते-चप्पल पहने थे। वे हँसते-खिलखिलाते बेतकल्लुफी से बातें करते धीरे-धीरे चले आ रहे थे। एक आम के दरख्त के नीचे आकर वे बैठ गए। उनके पास एक छोटा-सा ट्रांजिस्टर था, जिसमें कोई गाना आ रहा था। सग़ीर का गाने में जरा भी मन नहीं लगा। चूँकि गाने के समगान पर उन लोगों में बैठा एक चार बरस का बच्चा ठुमक रहा था और दूसरे लोग उसकी ओर देखकर झूमते हुए चुटकियाँ बजा रहे थे, इसलिए उसे गाना, बच्चे का ठुमकना और लोगों का चुटकियाँ बजाना अच्छा लगने लगा। बच्चा अनेक मुद्राओं का अभिनय करता हुए ठुमक रहा था और सग़ीर सोच रहा था कि उसकी बस्ती में इतनी उमर के बहुतेरे बच्चे हैं लेकिन सभी फूहड़, नंग-धड़ंग, चिथड़ों में लिपटे, अपनी नाक तक नहीं पोंछते हैं, जबकि यह बच्चा कितना होशियार है, किस तरह कमाल दिखा रहा है। सग़ीर को उसके इस ‘कमाल’ पर आश्चर्य हुआ!

बच्चा थक गया था, इसलिए चूतड़ के बल गिर पड़ा। लोग ठठाकर हँस पड़े। तभी एक आदमी हँसता हुआ खड़ा हुआ। पहले उसने एक महिला से ट्रांजिस्टर बंद करने को कहा फिर गाने के लिए गला साफ करने लगा। तभी ‘याराना’, ‘सिलसिला’ की आवाज उठी। उसने मुस्कुराते हुए कई बार सिर झुकाया और गाना गाने लगा। उसके गाते ही कसे कपड़े पहने एक लड़की खिलखिलाकर हँस पड़ी। गाता आदमी भी हँस पड़ा, किंतु उसने गाना जारी रखा।

गाने का दौर काफी देर तक चलता रहा। लगभग सभी लोगों ने, चाहे वह तुतलाता बच्चा क्यों न हो, गाने की एक-दो कड़ी गुनगुनाई। गाने के तुरंत बाद लोग गोलाई में घिर आए और कुछ खाने लगे थे। थोड़ी देर बाद एक औरत जिसके कंधे तक बाल थे, दुबली-पतली थी, बेतरह होंठ रंगे थी, फुरती से उठी। बेलबूटे से कढ़े एक झोले में से उसने सुनहरी पन्नियों के कई पैकेट निकाले और सभी लोगों को लोका-लोकाकर देने लगी। लोगों ने पन्नियाँ खोलीं, चटखारा लिया – फाइन!

काफी देर तक वे हँसते-खिलखिलाते रहे फिर एकाएक हाथी की तरह झूमते चले गए।

सग़ीर जो चुपचाप बैठा इन लोगों का क्रियाकलाप देख रहा था, आहिस्ते से उठा और उस स्थान पर आ गया, जहाँ पर लोग हँस-खिलखिला रहे थे। लोग एक सॉस की बोतल जिसमें आधा सॉस मौजूद था, काँटेदार एक चमच और एक केक लापरवाही से छोड़कर चले गए थे। सग़ीर खड़ा सोच रहा है कि ये कौन-सी चीजें हैं? क्या ये खाने की चीजें हैं? जब लोग गोलाई में घिरकर खा रहे थे, तब सग़ीर को उन लोगों के बीच में रखी वे चीजें दिखाई नहीं पड़ रही थीं जिन्हें वे खा रहे थे। सग़ीर सोच रहा है, क्या लोग बोतल में रखी चीज खा रहे थे? लेकिन खाने की चीज कहीं बोतल में रखी जाती है! फिर… फिर… वह उन चीजों को आश्चर्यचकित-सा देख रहा है। यह काँटेदार चीज क्या है! इससे भला खाने से क्या ताल्लुक! कहीं इससे भी खाया जा सकता है? केक उठाकर वह सोचने लगा, यह कौन-सी चीज है? सग़ीर ने कस्बे की एक-दो दुकानों में काम भी किया था, वहाँ भी उसका इन चीजों से साबिका नहीं पड़ा था। बहुत देर तक वह इन चीजों के बारे में सोचता रहा, उसकी समझ में नहीं आया। उसे एक बात सूझी। उसने इन चीजों को उठा लिया और अपनी बस्ती में जाकर हमउमर लड़कों को बुलाया जो गुल्ली-डंडा खेल रहे थे।

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उसने हाथ में ली हुई चीजों की ओर इशारा करते हुए पूछा – ये कौन-सी चीजें हैं? लड़के उन चीजों पर झुके और अचंभे से देखने लगे। कई लड़कों ने छूकर भी देखा – कौन-सी चीजें हैं? वे आपस में फुसफुसाने लगे।

सग़ीर ने देखा, सभी के चेहरों पर एक फीकापन-सा तैर गया है। उसने बड़बड़ाते हुए सबको धक्का-सा दिया और तेज कदमों से अम्मी के पास आ गया। उसे विश्वास था कि अम्मी उन चीजों के बारे में जरूर बता देगी। इसलिए जैसे ही उसने उन चीजों को अम्मी के हाथों पर रखा, वह हाँफती हुई-सी बोलने लगी – क्या लाए बेटा… अरे, यह बोतल कहाँ से लाए… इसमें क्या लगा है चिपचिपा-चिपचिपा, कल्छुल! यह कैसी कच्छुल? ऐसी भी कहीं कल्छुल होती है? यह गोल-गोल खाने की चीज है क्या?

सग़ीर ने अम्मी से उन चीजों के बारे में दुबारा न पूछा। उसे अम्मी पर गुस्सा आया। उसने झटके से अम्मी के हाथों से उन चीजों को ले लिया और झोपड़ी के बाहर आ गया।

अम्मी के बाद उसके जेहन में जिसका नाम आया, वे ज़हीर उस्ताद थे। ज़हीर उस्ताद अपनी झोपड़ी में सीना पकड़ पड़े थे। सग़ीर झुककर झोपड़ी में घुसा और उन चीजों को सामने रखते हुए उनका नाम पूछा।

ज़हीर उस्ताद बमुश्किल साँस लेते हुए बोले – कहाँ पाए इन्हें बेटा? सग़ीर ने जब बताया तो ज़हीर उस्ताद ने कहा – हम क्या जानें बेटा! साठ बरस की उमिर हो गई, कभी मनमाफिक लुकमे न मिले… खुदा से रोज भीख माँगता हूँ कि जो रूखा-सूखा देता है उसमें कटौती तो न करे, मुला… किस्मत में भूखा मरना लिखा है तो खुदा ही क्या कर सकता है…

सग़ीर की जिज्ञासा शांत न हुई। वह संजीवन नाई के पास गया। संजीवन नाई कस्बे का सबसे बुजुर्ग आदमी था। सग़ीर को पूरा यकीन था कि वह उन चीजों के बारे में जरूर जानता होगा, लेकिन संजीवन कह रहा था – इ तो बोतल है और का है?

सग़ीर ने जब बोतल में भरी चीज और उन दोनों चीजों के बारे में पूछा तो जैसे वह गुस्सा गया, बोला – हम का जानें का है… तुम बताओ का है? …हाँ नहीं तो! कभी देखा हो तो जानें भी! जिसे देखा नहीं उसके बारे में भला का बताऊँ? …कहते-कहते वह अपनी झँगली, नाव-सी खाट में लेट गया, एक गहरी साँस छोड़कर।

सग़ीर संजीवन के पास से निराश लौटा, तभी उसे मल्लू कुहार और रईश कबाड़िया मिल गया। मल्लू ने अपनी असमर्थता जाहिर कर दी। चूँकि रईश को घर पहुँचने की जल्दी थी और जवाब देने की कोई जरूरत नहीं समझी, इसलिए वह तेजी से चला गया।

सग़ीर ने अपनी बस्ती के तकरीबन सभी लोगों से पूछा, लेकिन कोई भी उन चीजों के बारे में कुछ नहीं बता पाया। उसे कोफ्त होने लगी। तबियत उन चीजों को चूर कर देने की हुई। जेहन में बार-बार एक जलता लावा उठता कि ये कौन चीजें हैं जिनसे उसकी पूरी बस्ती नावाक़िफ है! उसने एक बड़ा-सा पत्थर उठा लिया – चीजों को चूर-चूर कर देने के लिए, लेकिन पता नहीं क्यों, फेंक दिया।

यकायक उसने उन चीजों को उठाकर सामने फेंक दिया। बोतल एक पत्थर से टकरा गई – फूट गई। उसमें से कोई लाल-लाल गाढ़ा पदार्थ बाहर निकलकर फैल गया। तभी एक खजरा कुत्ता कान फड़फड़ाता वहाँ से गुजरा। पहले उसने गाढ़े पदार्थ को सूँघा और मुँह हटा लिया, पर तुरंत ही वह उसे चाटने लगा।

सग़ीर की तीव्र इच्छा हुई कि वह कुत्ते को भगा दे और खुद उस चीज को चाटने लगे।

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सग़ीर और उसकी बस्ती के लोग – Sageer Aur Usaki Basti Ke Log

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