व्यवस्थाएँ | अविनाश मिश्र
व्यवस्थाएँ | अविनाश मिश्र

व्यवस्थाएँ | अविनाश मिश्र

व्यवस्थाएँ | अविनाश मिश्र

सालों हो गए किसी खरगोश को नहीं छुआ
गिलहरी को देखे भी पता नहीं कितना वक्त गुजर गया
बैल और बाज और बुलबुल और बंदरों के बारे में भी मेरे यही विचार हैं
केवल कुत्ते ही हैं जो अब भी दिख जाते हैं
– बहुत उदास और गुलाम –
बिल्लियों के काटे हुए रास्तों पर

वे चूहों को खा चुकी हैं
शायद इसलिए मैंने कई रोज से चूहे भी नहीं देखे…

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