विदा अपवित्र औपचारिकता है | अनुराधा सिंह
विदा अपवित्र औपचारिकता है | अनुराधा सिंह

विदा अपवित्र औपचारिकता है | अनुराधा सिंह

विदा अपवित्र औपचारिकता है | अनुराधा सिंह

खूँटा स्थायित्व नहीं बंधने की जगह है
खूँटे को ठौर मान लेने में कितना समय लगता है
कितना समय लगता है यह समझने में
कि पानी में पत्थर की परछाईं नहीं
पत्थर था
मैंने तुम्हारे बंद दरवाजे पर
एक अधूरी प्रेम कविता लिख छोड़ी थी उस दिन

तो अब हाथ खींच रही हूँ
उसे पूरा करने की जवाबदेही से

जेठ में बाघ प्यासे मर रहे हैं गीर वन में
सुदूर पश्चिम में एक चंपा सूख रही है
तुम्हारी गाथा को मेरे होने का पूर्णविराम नहीं चाहिए था

विदा कहना अपवित्र औपचारिकता है
कहाँ-कहाँ जाकर तर्पण किया मैंने तुम्हारा साथ
कहाँ-कहाँ जाकर छोड़ा स्मृति में थामा हुआ हाथ
कहाँ-कहाँ बैठ माथे से पोंछे तुम्हारे होंठ
किस-किस मोड़ से मुड़ आई हूँ बिना पलटे

इतने सारे काम और एक शब्द ‘विदा’
यह भी छोड़े जा रही हूँ नियंत्रण रेखा पर अनकहा।

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