तुम पहचानते हो | जोसेफ ब्रोड्स्की
तुम पहचानते हो | जोसेफ ब्रोड्स्की

तुम पहचानते हो | जोसेफ ब्रोड्स्की

तुम पहचानते हो | जोसेफ ब्रोड्स्की

तुम पहचानते हो मुझे मेरी लिखावट से;
हमारे ईर्ष्‍याजनक साम्राज्‍य में सब कुछ संदेहास्‍पद है :
हस्‍ताक्षर, कागज, तारीखें।
बच्‍चे भी ऊब जाते हैं इस तरह के शेखचिल्लियों के खेल में,
खिलौने में उन्‍हें कहीं अधिक मजा आता है।

लो, मैं सीखा हुआ सब भूल गया।

अब जब मेरा सामना होता हे नौ की संख्‍या और
प्रश्‍न जैसी गर्दन से प्राय: सुबह-सुबह
या आधी रात में दो के अंक से, मुझे याद आता है
हंस पर्दे के पीछे से उड़कर आता हुआ,
और गुदगुदी होती है नथुनों में पाउडर और पसीने से
जैसे उनमें महक जमा हो रही हो, जमा होते हैं जैसे
टेलीफोन नंबर या खजाने के भेद।

मालूम होता है कि मैंने फिर भी कुछ बचत कर रखी है।
अधिक दिन तक चल नहीं सकेंगे ये छोटे सिक्‍के।
पर नोट से अच्‍छे तो ये सिक्‍के हैं,
अच्‍छे हैं पायदान सीढ़ियों के।

अपनी रेशमी चमड़ी से विरक्‍त श्‍वेत ग्रीवा
बहुत पीछे छोड़ आती है घुड़सवार औरतों को।
ओ प्रिय घुड़सवार लड़की ! असली यात्रा
फर्श के चरमराने से पहले ही शुरू हो चुकी होती है,
इसलिए कि होठ मृदुता प्रदान करते हैं, पर क्षितिज की रेखा
और यात्री को ठहराने के लिए
कहीं जगह नहीं मिलती।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *