टेलीविजन स्क्रीन पर | राकेश रेणु
टेलीविजन स्क्रीन पर | राकेश रेणु

टेलीविजन स्क्रीन पर | राकेश रेणु

टेलीविजन स्क्रीन पर | राकेश रेणु

समुद्र के भीतर अचानक उग आता है एक पार्क
हरी घास और फूलों के साथ
गुफाएँ और आकृतियाँ भी उग आती हैं
लड़कियाँ मछलियाँ बन जाती हैं
जो चमकती हैं तारों और बिजली के बल्बों की तरह
गुफाओं से निकलती हैं कुछ और आकृतियाँ
नाचने लगती हैं
उनके चेहरे पहचाने नहीं जाते
दिखाई नहीं देता शरीर
भगदड़ मच जाती है मछलियों में
कुछ उनमें से निगल ली जाती हैं –
अपने मत्स्य रूप में|
कुछ यहाँ-वहाँ छिपने में हो जाती हैं कामयाब
कुछ अपना चेहरा वैसा ही बना लेती हैं – प्रेतमय
और कूदने लगती हैं उनके बीच, उनके साथ
ऐसा बार-बार होता है रोज-रोज।

औरतें बताती हैं दुनिया का हाल
जवान हो रही लड़कियाँ
उतारती जाती हैं अपने सारे कपड़े
विज्ञापन में
साबुन धो डालता है उनके शरीर
इस दृश्य में हमारे समय के बच्चे
सीखते हैं नहाने और स्वस्थ रहने की तहजीब
उनमें से कुछ परेड करती हैं मंच पर
नहाने के बाद
समझदार लोग इसे ‘कैटवाक’ कहते हैं
जो कपड़ों को देती है एक नई तहजीब
एक-एक कर बताया जाता है
सौंदर्य प्रतियोगिताओं के बारे में
कि समृद्ध परंपरा रही है भारत में
कि अकूत सौंदर्य से भरा-पड़ा है भारत देश
विश्व-विजय की जा सकती है जिनसे बार-बार
हम अपनी स्त्रियों को देखते हैं
कुछ संकोच, कुछ हिकारत से
फिर देखते हैं टेलीविजन की ओर
हम कुछ सोचना चाहते हैं
कुछ समझना लेकिन
उसका अवसर नहीं दिया जाता
हमें बताया जाता है आज कितने
विश्व-विजेताओं ने प्रवेश किया दुनिया के
सबसे संभावनाशील और उर्वर बाजार में
कितने तोरण-द्वार लगाए गए उनके लिए
कितने डालर लेकर आए वे अपने साथ
देश का बाजार-भाव कितना बढ़ेगा उससे
अचानक कुछ और स्त्रियाँ आ जाती हैं कूल्हे मटकाती हुई
जो बताती हैं उनके
ब्रह्मजीत उत्पादों के बारे में
हमारी स्त्रियाँ भी बन सकती है विश्व-सुंदरियाँ जिनसे
और ऊपर उठाया जा सकता है इच्छाओं का स्तर
कि विश्व का सबसे बेहतर जीवन जिया जा सकता है
इनके जरिए
अंतराल में कुछ अन्य स्त्रियाँ दिखाई जाती हैं
माथे पर पानी से भरे मटके ढोती कुछ चापाकल चलाती
हमें बताया जाता है सड़सठ-साला उपलब्धियों के बारे में
कि पानी मिल जाता है गाँवों में अब
कुछ स्त्रियाँ सायास हँसती हैं कैमरे के सामने
जिनसे खुशहाली का बोध कराया जाता है
हम सोचना चाहते हैं कुछ दूसरी चीजें, मसलन साफ हवा
तभी बहुत सारी चमचमाती कारें आ जाती हैं
चुंधियाती हुई हमारी आँखें
हम देखना चाहते हैं जो कुछ वहाँ नहीं होता
हम समझना चाहते हैं चीजें
गतिविधियाँ समझ नहीं पाते
(दोष हमारा है पूर्णतः)
हम अपने बच्चों की तरफ देखते हैं चुंधियाई आँखों से
वे अवाक नजरें टिकाए होते हैं अपनी माँओं पर
उनकी माँएँ बदले में निर्मिमेष देखती हैं हमारा चेहरा
सब समझने की कोशिश करते हैं
सब चुप रहते हैं।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *