शहर की कैफियत | प्रतिभा चौहान
शहर की कैफियत | प्रतिभा चौहान

शहर की कैफियत | प्रतिभा चौहान

शहर की कैफियत | प्रतिभा चौहान

मैं लिए रही खाली पन्नों की डायरी 
शेष लिखा जाना था कुछ 
बचपन दोबारा लिखना था 
बँटवारा करना था सुखों दुखों का 
और चमकानी थी शहर की कैफियत 
किले के पत्थरों की काई खुरचनी थी 
लिखे जाने थे कुर्बान लोगों के नाम 
आहिस्ता आहिस्ता बुनने थे प्रेम के स्वेटर 
कितने नमूने थे चिपकाने पन्नों पर 
निर्यात किए गए भूखों की वापसी का 
रास्ता बनाना है 
शाख से बिछड़ने का दर्द होगा ही 
पर नएपन के स्वागत में कुछ कु्र्बानियाँ जायज हैं 
आईना बनाना है 
जिसमें जीवन गीत लिखे जाने हैं 
लिखे जाने हैं प्रेम संदेश ।

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