माँ के लिए | हेमधर शर्मा
माँ के लिए | हेमधर शर्मा

माँ के लिए | हेमधर शर्मा

माँ के लिए | हेमधर शर्मा

माँ, एक बार फिर तुम रो लेना
सच मानो माँ –
कोई कसर नहीं रखी है मैंने
सारी कोशिशें करके देख चुका हूँ
पर आईने की तरह साफ दिखता है मु्झे
कि नाकारा ही निकलेगा
तुम्हारा यह पुत्र भी।
जानता हूँ माँ कि भैया निठल्ले हैं
और मुन्ना भी निकलेगा, शायद ऐसा ही
क्योंकि लिखने के बावजूद चिट्ठियों में
भर्तियों के बारे में
मन नहीं है उसका
फौज की नौकरी में जाने में
विडंबना तो यही है माँ,
कि मैं उसे प्रोत्साहित भी नहीं कर सकता
क्योंकि मैं खुद ही खिलाफ हूँ
फौज की नौकरी के।
यद्यपि कहा था तुमने
कि जाए जब वह शामिल होने, दौड़ में
रहूँ मैं उसके साथ ही साथ
ताकि पूरी कर दौड़
होकर थकान से चूर
जब वह लौटे
पिला सकूँ मैं उसे पानी।

अगले ही साल रिटायर हो जाएँगे पिताजी
और नहीं जानतीं तुम
कि कैसे चलेगा तब घर।
शायद कोई नहीं जानता
क्योंकि नहीं है जमीन भी इतनी
कि निर्वाह हो सके खेती से
कुशलतापूर्वक।
नहीं माँ, मैं कलह के डर से
नहीं भागा हूँ घर से
कोई गलती नहीं है भाभी की
तीन-तीन बच्चे हैं और भैया बेरोजगार हैं
हर कोई चाहता है आर्थिक सुरक्षा।
मैंने तो कभी दुखाना नहीं चाहा था माँ
दिल, तुम लोगों का
विश्वास था कभी
कि सुधार लूँगा एक दिन
भाभी के बिगड़ैल स्वभाव को
भैया के क्रोध को
और तुम्हारी ग्लानि को
अपने मधुर व्यवहार से।

पता नहीं किस ग्रह की नजर लग गई
हमारे घर को माँ।
शायद वह ज्योतिषी सच कहता था
कि शनि की साढ़े साती लगी है मेरे पीछे
तुम भी तो कहती थीं न माँ
कि मैं द्विपक्षी हूँ
कि एक पक्ष में जन्म हुआ है मेरा
और दूसरे में संस्कार
कि इसीलिए शांत रहता हूँ मैं पंद्रह दिन
और पंद्रह दिन बेचैन।
सच कहता हूँ माँ
उस दिन दे रहा था जब
कंप्यूटर कोर्स के लिए
सात सौ रुपए एडवांस
हाथ काँप रहे थे मेरे
क्योंकि उस समय भी जानता था मैं
अच्छी तरह
कि जिस मकसद की खातिर
लगा रहे तुम लोग, पैसा यह
कभी पूरा नहीं होगा वह
सीख तो मैं लूँगा माँ
शायद मेरिट में भी आ जाऊँगा
(क्योंकि बरसों पुरानी मेरी इच्छा है यह)
पर माफ करना माँ
नौकरी मैं नहीं कर पाऊँगा
हरगिज नहीं कर पाऊँगा
पुकारते हैं मुझे खेत
प्रतीक्षारत आलिंगन, धरतीपुत्रों का
कहीं जाने नहीं देता।

पता है माँ !
पिछली कटाई में जब
बीमार पड़े थे ताऊजी
और कारण पूछा था मैंने
तो क्या बताया था उन्होंने ?
सकुचाते और शर्माते हुए कहा था उन्होंने
कि पिछली शाम
खा लिया था उन्होंने, बिना भूख के ही
कि कटाई अभी आधी पड़ी थी
और हिम्मत जवाब दे रही थी
पर खाए बिना जी चलेगा कैसे !
इस तरह तो साल भर की कमाई
ढोर चर जाएँगे
फलस्वरूप पड़ गए थे बिस्तर पर वे
पूरी तरह से ही।
उनके घर की हालत तो तुम जानती ही हो माँ !
और मृदुल के हाथ और पीठ पर के निशान तो
तुमने देखे होंगे न माँ
पिछली गर्मियों में जब वे गए थे न
चाचा के यहाँ सावनेर
स्टील प्लांट में काम करने
वहीं उपहार मिले थे वे।
हर जगह बेरोजगारी फैली है
बड़ी दूर-दूर से काम करने आते हैं लोग वहाँ
बता रहे थे वे।
और मालूम है माँ क्या बताया था उन्होंने !
लोहा गलाने की जो भट्टियाँ होती हैं न
रात पाली में लोहा गलाने वाले को
झपकी आ गई अगर जरा सी
तो उसकी हड्डियों का भी पता नहीं चलता
पर इससे भी लोमहर्षक बात
जानती हो क्या है माँ ?
महीना भर काम करने के बाद
छोड़ते हैं लोग जब, डर के मारे
उन्हें पैसा भी नहीं मिलता।
पर यह तो हर जगह की बात है
पिछली बार भैया भी तो जब
गए थे होमगार्ड की डय़ूटी करने
महीनों दौड़ाने के बाद भी
कहाँ दिए थे सारे पैसे, सुपरवाइजर ने।
अगर सच कहूँ माँ
तो मेरा तो खून ही खौल उठा था उस पर
अगर भैया ने रोका न होता
तो मैंने तो हाथ भी उठा दिया होता।
(कितना विरोधाभासी लगता है न माँ
कि गुस्सैल भैया हैं
और खून मेरा खौल उठता है !)

पर उसकी बात भी तो गलत नहीं थी माँ
वे लोग तो छोटे-छोटे खटमल हैं
या फिर मच्छर।
असली खून चूसक तो वे मालिक लोग हैं
जो पैसा लगा कर पैसा खींचते हैं
और सच कहूँ न माँ
उनके आगे तो मेरा खून भी
खौलने की बजाय काँप उठता है।
और फिर सरकार भी तो
उन्हीं की है न माँ।
सोचो माँ, दीपावली की रात तो
छोटे-छोटे जुआरियों को वे पकड़ते हैं
पर कितनी आसानी से, शेयर मार्केट खोल कर
वही सब लोग खुलेआम जुआ खेलते हैं।

कितनी हँसी की बात है, है न !
पर माँ, तुम्हारे युधिष्ठिर भी तो ऐसे ही थे !
मुक्ति तो वहाँ भी नहीं है।
था एक रूस, जिसने पक्षधरता दिखाई थी
पर वे भी तो पाशविक लोग थे !
पाप की जगह पापी को ही मार देते थे ?
सच मानो माँ,
मुझे तो कोई रास्ता सुझाई नहीं देता।

एक हँसी की बात बताऊँ माँ !
अगर हँसी आए तो तुम हँस लेना
(कैसे भी तुम हँसो तो)
जब कंप्यूटर सीखना शुरू किया था न मैंने
तो दिन-रात चिंता लगी रहती
कि कैसे वसूल होंगे इतने पैसे !
इतने रुपए कभी खर्च नहीं किए थे मैंने
अपने ऊपर
किताबों पर भी नहीं।
और फिर जानती हो मुझे क्या सूझा ?
वो जो अधूरा छोड़ रखा था न उपन्यास
मैंने सोचा, रोज एक पन्ना लिखा करूँगा
क्या दस रुपए भी नहीं लगेगी कीमत
एक पेज की !
यह पागलपन ही तो था न माँ
ऐसे तो कितनी कापियों से भरी पड़ी है मेरी पेटी
इस तरह कोई पैसे देने पर आए
तो मैं तो मालामाल ही हो जाऊँगा न !
पर आश्चर्यजनक रूप से माँ
मुझे इसमें सुकून मिलने लगा था
यही नहीं, पहले जहाँ कुछ सूझता न था
अब धाराप्रवाह लेखनी चलने लगी थी
मैं तो जैसे निष्फिक्र ही हो चला था…

पर नहीं माँ, दर्द अब बहुत बढ़ गया है
रात तो क्या दिन में भी अब नींद नहीं आती
और कभी-कभी जब सहसा खुलती है न नींद
तो लगता है कोई सीने पर चढ़ा बैठा था
और अभी-अभी उठकर भागा है.
टूटता तो सारा बदन ही है
पर पीठ और सीने के दर्द जीने नहीं देते
पिछले दो-तीन सालों की
खेतिहर जिंदगी की मेहनतों ने
तोड़ सा डाला है मुझे।
हारा तो मैं कभी नहीं था माँ
इन दर्दो से भी हारा नहीं हूँ
पर ताकत भी तो नहीं बची शरीर में
कुछ करने की !
जानती हो कल क्या हुआ था !
बगल वाली आंटी ताने दे रही थी
निठल्ला बैठने पर
ट्यूशन पढ़ाने की सलाह दे रही थी।
मुन्ना भी बोल रहे थे –
लड़के वे ढूँढ़ देंगे, अगर पढ़ाना चाहूँ मैं।
सहसा ही कल पता चला माँ
कि दिन भर लेटे रहने को मेरे
लोग क्या समझते हैं।
बहुत सी किताबें हैं इन दिनों, मेरे पास
कुमार के यहाँ से लाया हूँ
तुम ही कहो,
इतने दिन उन्हें बिना पढ़े रह सकता था !
पर छोड़ो माँ, अब बहुत हो गया

मैं तो बस दो बातें करना चाहता था तुमसे
क्योंकि उपन्यास का पन्ना लिखने की
आज हिम्मत नहीं पड़ रही थी।
हालाँकि यह उससे भी लंबा हो गया।
खैर ! कैसी भी कटे रात, संतोष तो है मन में।
यद्यपि कोशिश हँसाने की भी की है तुम्हें
पर जानता हूँ कि रोना ही तुम्हारी
किस्मत में लिखा है।
पर एक बात कहूँ माँ !
तुम्हारा सहयोग अगर मिले न,
तो जी मैं अब भी सकता हूँ।
बस एक बार तुम मेरी दुश्चिंता छोड़ दो
और फिर देखो कि मैं क्या नहीं कर सकता हूँ
तुम मेरे घर में स्वर्ग देखना चाहती हो माँ
पर मैं तो सारी दुनिया को स्वर्ग बना देता चाहता हूँ
आखिर तुम्हारी करुणा ने ही तो मेरे अंदर
विस्तार पाया है
भिक्षुक लोग दोपहर अथवा रात्रि को क्या
तुम्हारे ही घर में नहीं पाते हैं विश्राम स्थली !
चिड़ियों को चावल और चींटियों को आटा
चुगाने वाली क्या तुम नहीं हो !
नाग देवता को दूध पिलाने वालों में
क्या तुम्हारा शुमार नहीं !
तुम्हीं ने तो बताया था
कि चाकघाट में एक बार गुड़ खरीदते हुए
एक लड़का आया था गुड़ खरीदने, आठ आने का
और दुकानदार के झिड़क देने पर
पसीने से तर-ब-तर चेहरा देख
तुमने दे दिया था गुड़
पूछने पर ही तुम्हारे, बताया था उसने
कि नौकरी के लिए इंटरव्यू देकर
आ रहा है कहीं दूर से।
किराये के पैसे बचाकर ही
खरीदना चाहा था उसने गुड़
प्यास से व्याकुल होने पर।
बताते हुए उसके बारे में
कैसी मर्मस्पर्शी वेदना उभर आती है
तुम्हारी आँखों में।

माँ तुम समझतीं क्यों नहीं
मैं ही तो था वह
मृदुल के शरीर के दाग भी
मेरे ही तो थे
ताऊजी की बीमारी झेलने वाला भी
क्या मैं ही नहीं था !

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