हिसाब-किताब | हरियश राय
हिसाब-किताब | हरियश राय

हिसाब-किताब | हरियश राय – Hisab-Kitaab

हिसाब-किताब | हरियश राय

कालोनी में आते ही हीरा के मन में उत्साह सा आ गया था। त्‍योहार आने वाले थे और उसे उम्‍मीद थी कि आज पुराना सामान काफी मिल जाएगा। पिछले कई दिनों से कोई बहुत ज्‍यादा सामान उसे नहीं मिल पाया। दुकान का सेठ उसे हर रोज कहता कि इतनी रद्दी से काम नहीं चलेगा, ज्‍यादा लाया कर। इससे तो तेरी लारी का किराया भी नहीं बचता। पर कोशिश तो वह बहुत करता था लेकिन जितनी रद्दी सेठ चाहता था उतनी मिल नहीं पाती थी। एक तो बहुत सारे लोग लारी लेकर कालोनी में घूमते रहते थे और दूसरा लोग भी आनाकानी करने लगे थे। बड़ी हील हुज्‍जत करते थे। पर आज उसे उम्‍मीद थी कि उसे ज्‍यादा रद्दी मिल जाएगी।

पतली टाँगें जिसमें उसने पायजामा पहन रखा था। पाँवों में रबड की चप्पलें। चेहरे पर लाचारी और उल्‍लास का मिला जुला भाव। मजबूत जिस्‍म, साँवला रंग। जो राजस्‍थान के होने का आभास छोड़ता है।

राजस्‍थान के अलवर के पास के गाँव के रहने वाला था हीरा। गाँव में पानी नहीं था। सारे कुएँ और तालाब सूख गए थे। जानवर मर गए थे। जमीन बंजर हो गई थी। और वह गाँव छोड़कर शहर आ गया था। शहर में सेठ के यहाँ काम करता था। सेठ ने उसे लारी दी थी काम उसका पुराने सामान को कॉलानियों से ला ला कर सेठ के गोदाम में जमा करना था। सेठ रोज लाए हुए सामान को तौलता था और उसके पैसे उसे दे देता था। पुराने सामान को लाने के लिए पहले पैसे उसे अपनी जेब से ही देने पड़ते थे।

सुबह के दस बज चुके थे। छुट्टी का दिन होने के कारण कालोनी में चहल पहल शुरू हो चुकी थी। उसे उम्‍मीद थी कि इस कालोनी के दो तीन घरों से भी उसे रद्दी मिल जाए तो उसका काम बन सकता था। इतना तो उसे पता था कि जब घर में खूब रद्दी इकट्ठी हो जाती है तभी ये लोग बेचते हैं। नहीं तो ऐसे पड़ी रहती है। कितनी बार उसने देखा था पुराने अखबार या तो पीछे के बरामदे में बेतरतीब ढंग से पड़े रहते है या बारिश में भीगते रहते है। पर उसे बेचते नहीं। या किसी के स्‍टोर पर रखे रहते है। अचानक किसी को याद आता है तो वह इन अखबारों को बेचने के बारे में सोचता है।

सूरज ऊपर आ चुका था और हवा गर्म होनी शुरू हो चुकी थी। कालोनी में बड़े बड़े बँगले थे। दो मंजिला तीन मंजिला। कई बँगलों के बाहर तो चौकीदार रहते थे। सड़क थी जिसके दोनो तरफ बड़ी बड़ी गाड़ियाँ खड़ी रहती थी। हीरा बहुत सँभल सँभल कर अपने ढेले को सड़क पर चलाता था कहीं किसी गाड़ी से टकरा जाए तो अलग से मुसीबत आ जाती थी। एक बार ऐसा हो चुका था उसके ठेले का एक अगला पहिया एक बड़ी सी गाड़ी की हैड लाइट से छू गया था। चौकीदार ने देख लिया था। दौड़ा दौड़ा आया। गाड़ी को गौर से देखा था। यह तो शुक्र था कि गाड़ी की हैड लाइट टूटी नहीं थी। पर फिर भी उसने धमका दिया था, ‘देख के निकला कर।’

‘कुछ हुआ थोड़ी ही न है।’ उसने प्रतिवाद किया था

‘कुछ होगा तभी देखेगा क्‍या। आयंदा इस तरफ आया तो टाँगें तोड़ दूँगा।’ चौकीदार ने गरज कर कहा था।

वह कुछ बोला नहीं था और चुपचाप अपने ठेले को आगे खिसका कर वहाँ से चला आया था।

उसे पता था कि खूब सारे अखबार यहाँ के हर बँगले में आते है। यह अखबार वाले से उसने पता कर लिया था। पर यह लोग रद्दी देने में काफी न नुकर करते थे। ये लोग कितने काइयाँ और चालाक है। इसका पता भी न चलता था। अपने काइयाँपन के चलते ही कुछ तो अपनी गाड़ी में रखकर सीधे ही दुकानदारों को दे आते थे। उन्‍हें लगता था कि ठेले वाले उन्‍हें लूट ले जाते है। दस किलो की रद्दी छ किलो ही तौलते है। कुछ लोग अपने घर में ही तौलने की मशीन रखते थे। कुछ लोग तो रद्दी बेचने से पहले ही अखबारों को तौल कर रख लेते थे। और रद्दी वाले को वजन सहित बता देते थे कि इतने किलो रद्दी है और कुछ लोगों ने तो यह गिन रखा था कि एक किलो में कितने अखबार आते है। ऐसे लोग तो अखबारों को तौलने भी नहीं देते थे। गिन कर कह देते थे कि इतने किलो है। तब कोई कितना भी इन्‍हें समझाने की कोशिश करे कि ऐसा नहीं होता पर यह नहीं सुनते। ऐसे में हीरा के लिए मुश्किल हो जाती थी। छोड़े तो मुसीबत। न छोड़े तो मुसीबत। एक बात इन लोगों ने पक्‍की तरह मन में बिठा ली थी कि रद्दी वाले इनको लूट कर ले जाते है। दिल जल कर राख हो जाता था हीरा का जब कभी कोई उससे यह कह देता कि क्‍यों लूट रहे हो। हमें भी पता था। इच्‍छा तो करती उससे कहें कि क्‍या लूट रहे है तुम्‍हारा। एक दो पुराने अखबार कम तुले है तो तुम लुट गए और तुमने जो बँगले खड़े कर लिए है उसका क्‍या…। लेकिन कभी कह नहीं पाता था। मन ही मन घुट कर रह जाता था। हाँ कभी कभी ऐसा भी होता था कि इन्‍हें उसकी जरूरत होती थी जब घर की सफाई करानी हो या घर में शादी ब्‍याह हो तो तब कालोनी के मेन गेट के चौकीदार को कह कर रखते थे कि कोई रद्दी वाला आए तो उसे रोक कर रखना। तब हीरा भी आठ सौ ग्राम को एक किलो कर देता था।

कालोनी में घुसते ही हीरा ने जोर से गुहार लगाई। पे…प…र…

हीरा की आवाज पूरी कालोनी में गूँज गई और वापस आ गई। हीरा ने चारों तरफ नजरें दौड़ाईं। कहीं कोई हलचल नहीं, कोई सुगबुगाहट नहीं। कोई दरवाजा नहीं खुला। किसी ने बाहर नहीं झाँका। किसी ने उसे रुकने के लिए नहीं कहा।

हीरा ठेला खिसकाते दो तीन बँगलों से गुजरते हुए आगे आ गया। सड़क के दोनों तरफ बँगले थे। हीरा एक बँगले के दरवाजे पर कुछ पल के लिए रुका भी लेकिन कोई आवाज नहीं। हीरा आगे बढ़ गया और फिर जोर से गुहार लगाई पे…प…र…

इस बार हीरा की आवाज अपने बँगले के पौधों को पानी देते वीर प्रताप चौहान ने सुनी। मोटा सा थुलथुल सा चौहान। चौड़ा सा मुँह। सर में गंजापन कुर्ता और पायजामा पहने आँख छोटी और तेज।

अरे ओ भाई पेपर…। उन्‍होंने पुकारा। हीरा ने सुना तो पाँव रुक गए। आवाज पीछे छूट गए किसी बँगले से आ रही थी। हीरा ने पीछे मुड़कर देखा वीर प्रताप उसकी तरफ देख रहे थे।

‘हाँ साब…। उसकी आवाज में दयनीयता आ गई थी ‘इधर आओ…।’ वीर प्रताप ने आदेशात्‍मक स्‍वर में कहा। हीरा ने अपना ठेला उनके बँगले की ओर मोड़ दिया। बँगले के बाहर नेम प्‍लेट थी जिसे पर लिखा था वीर प्रताप चौहान। ये कौन है यह कभी उसने जानने की कोशिश नहीं की और जानकर भी क्‍या करता। उसे उम्‍मीद थी आज जरूर यहाँ से कुछ कमाई हो जाएगी। बँगले के पास पहुँच कर उसने देखा वीर प्रताप चौहान उसकी तरफ देख रहे थे। ‘पिछली बार भी तुम्हीं आए थे रद्दी लेने।’ वीर प्रताप चौहान ने उसकी और देखते हुए कहा।

‘नहीं मैं नहीं था मेरा भाई था।’। हीरा ने झूठ ही कहा। उसे लगा कि यदि में कह दूँ नहीं मैं नहीं आया था तो पता नहीं जो पिछली बार आया था उसी को देना चाहते हो और उसकी राह देख रहें हों। ‘वो कहाँ है।’ उन्‍होंने पूछा ‘वो गाँव चला गया।’

‘मुझे तो एक ही जैसी दिखते हो।’

‘छोटा भाई जो है। आजकल क्‍या भाव है पुराने अखबारों का।’ उन्‍होंने पूछा।

‘छ रुपये किलो। हीरा ने बताया।’ छ रुपये…। पर दुकान में नौ रुपये किलो है। वीर सिंह ने हैरान होकर कहा। ‘नहीं साहब वहाँ भी यही भाव है।’ अच्‍छा ठीक है आओ। चौहान ने कहा और हीरा को अपने बँगले के अंदर ले गए। बँगले में एक महिला सोफे पर बैठकर टी.वी. देख रही थी। पचास पचपन साल की उम्र। थुलथुल शरीर। बालों में मेहँदी। चेहरे में कालिमा। बड़ी बड़ी आँखें। उनकी पत्‍नी थी। कमरे में कदम रखते ही चौहान ने कहा ‘लो शांति, दे दो आज इसे रद्दी। कई दिनों से ढूँढ़ रही थी न रद्दी वाले को आज मिल गया है।’शांति ने अपने पति की तरफ देखा गोया उन्‍होंने कोई ऐसी बहादुरी का काम कर दिया हो जिसके लिए उन्‍हें मैडल दिया जाना हो। कहा, ‘बड़ा अच्‍छा किया इसे ले आए। बहुत रद्दी इकट्ठी हो गई है। ढेर लग गया है। चींटियाँ और काकरोच अखबारों में रहने लगे है।’ शांति ने कहा फिर हीरा की तरफ देखा ओर कहा, ‘आज कल इधर आते नहीं हो।’ नहीं मेम साहब आते तो हैं पर चौकीदार बहुत परेशान करता है आने नहीं देता।’ ‘अच्‍छा…। खैर छोड़ो आओ मेरे साथ।’ शांति ने कहा।

हीरा ने अपना तराजू और बोरा हाथ में ले लिया और शांति के पीछे चलने लगा। शांति हीरा को बँगले के पिछले हिस्‍से में ले गई। वहाँ बड़ा सा बरामदा था। हीरा ने देखा अखबारों का ढेर था वहाँ। खूब खुश हुआ। आज अच्‍छी खासी कमाई हो जाएगी। उसने मन ही मन सोचा ‘क्‍या भाव लगाओगे।’ शांति ने पूछा ‘जी छ रुपये किलो।’ हीरा ने बताया। ‘नहीं भाई छ रुपये किलो तो कम है। आठ का भाव है।’ उसने कहा ‘नहीं मेम साब छ रुपये किलो ही है। उसने कहा ‘न आठ रुपये है आठ रुपये किलो के हिसाब से ले जाना है तो ले जाओ नहीं तो छोड़ जाओ।’ शांति ने धमकाने के अंदाज में कहा।

हीरा सोचने लगा। क्‍या करे। छोड़े या ले जाए। भाव तो आठ रुपये नहीं है। पर रद्दी बहुत ज्‍यादा है।

‘भाव तो यही है।’ हीरा ने कहा।

‘तो तुम रहने दो। शांति ने हाथ से मना करते हुए चौहान से कहा, ‘किसी और को देखो ये तो लूट रहा है।’

जल भुन गया हीरा यह सुनकर। क्‍या लूट लेगा इनका। मुश्किल से रोटी नसीब हो रही है और ये कह रही है लूट रहा है। उसकी रगों में खून दौड़ने लगा। पर उसने अपने आप को संयत किया और कहा।

‘आज कल यही भाव चल रहा है मैडम।’

‘नहीं भाई यह भाव नहीं है। हमें पता नहीं क्‍या।’ इस बार वीर प्रताप चौहान ने कहा। तब तक हीरा तराजू खोलकर तौलने के लिए बैठ गया। ‘आठ रुपये किलो का भाव से ले जाना है तो ले जाओ नहीं तो जाओ।’ शांति ने जोर से कहा। मुश्किल से पड़ गया हीरा। क्‍या करे। आठ रुपये तो किसी भी कीमत में नहीं मिल सकते। वह खुद सात रुपये के भाव से तो अपने सेठ को देता है। तौल में जो गड़बड़ी करता है उतना ही उसे मिलता है। छोड़े तो मुश्किल ले। जाए तो मुश्किल। आँखों ही आँखों से उसने अंदाज लगाया कम से कम सौ किलो तो रद्दी होगी ही।’ चलो सात रुपये के भाव से तौल लो। शांति ने निर्णायक स्‍वर में कहा। सात रुपये…। सात रुपये इनको दे देगा तो उसे क्‍या बचेगा। वह सोचने लगा। सेठ का तकादा उसे याद आ गया कि ज्‍यादा रद्दी लाया कर। दस बीस किलो से काम नहीं चलेगा आज ज्‍यादा मिल रही थी तो पैसे ज्‍यादा माँग रहे थे। क्‍या करे और क्‍या न करे। ‘अच्‍छा ठीक है आपकी बात सही।’ उसने कहा। ‘हाँ ठीक है।’ शांति ने कहा। हीरा बहुत खुश तो नहीं हुआ। मन मसोस कर रह गया। ‘तुम तब तक अखबारों को करीने से लगाओ में तौलने वाली मशीन लेकर आती हूँ।’ शां‍ति ने कहा ‘तौलने वाली मशीन…।’ हैरान रह गया हीरा। ‘हाँ तौलने वाली मशीन। तुम लोग तौल में बहुत गड़बड़ करते हो। हमारे पास मशीन है तौलने वली। लेकर आती हूँ,’ शांति ने कहा और दूसरे कमरे में चली गई। हीरा फैले हुए अखबारों को ठीक करने लगा।

थोड़ी देर में उसने अखबारों को ठीक करके एक ढेर सा बना दिया था। थोड़ी देर में शांति एक छोटी सी मशीन लेकर आ गई। ‘लो इसमें तोलो।’

शांति ने वह मशीन वहीं अखबारों के पास फर्श पर रख दी और खुद वहीं कुर्सी पर बैठ गई। ‘यह तो इसमें भी गड़बड़ी कर सकता है। मैं खुद ही तौल देता हूँ।’ वीर प्रताप चौहान ने कहा और शांति के हाथ से मशीन ले ली। हीरा ने देखा छोटी सी मशीन थी। वजन तौलने वाली। ‘चल रख सारे अखबार इसके ऊपर।’ वीर प्रताप ने आदेशात्‍मक स्‍वर में कहा। हीरा ने अखबारों के ढेर में से कुछ अखबार उस मशीन पर रखनी चाहे तो शांति ने कहा ‘सारे अखबारों को एक साथ ही रख दो।’ हीरा ने सारी अखबारों को एक रस्‍सी से बांधा और उठाकर मशीन पर रख दिया। वजन देखा कि पैंसठ किलो।

हैरान रह गया उसे लगा कि वजन ज्‍यादा होना चाहिए था पर मशीन तो पैंसठ किलो ही बता रही थी। वह कुछ कहना चाहता था लेकिन कह नहीं पाया।

‘लाओ भाई पैंसठ किलो के पैसे लाओ।’ वीर प्रताप ने कहा। हीरा ने झुककर देखा पैंसठ किलो। उसके हिसाब से तो सत्‍तर अस्‍सी किलो से कम नहीं होना चाहिए था। पैंसठ किलो तो नहीं हो सकता। कहीं इनकी मशीन में तो गड़बड़ नहीं है पर वह कैसे कह दे कि मशीन कम वजन बता रही है। मन मसोस कर रह गया। उसने जेब से पैसे निकाले और सात रुपये किलो के हिसाब से गिन कर चौहान को दे दिए। उसे लग रहा था कि इन लोगों ने उसके साथ बेईमानी की है। एक तो भाव ज्‍यादा ले लिया और दूसरा तौल में भी गड़बड़ी की है। यकीनन इनकी मशीन खराब है या इन्होंने कम वजन बताने के लिए कुछ मशीन के काँटे में कुछ गड़बड़ी की है। पर क्‍या गड़बड़ी क्‍या है। यह वह पकड़ नहीं पर रहा था। जब अखबारों से भरे बोरे को उठाया तब भी उसे लगा कि इसका वजन पैसठ से ज्‍यादा है। पर अब वह क्‍या करे। दुकान में ज्‍यादा निकला भी तो क्‍या… यहाँ तो उसके पैसे चले ही जाएँगे। मन में इरादा आया कि छोड़ दे। इसको पर फिर कुछ सोच कर रुक गया। अखबारों से भरी बोरी को उठाकर जब वह गेट पर आया तो उसने पूछा।

‘कोई पुरानी बाल्टियाँ तो नहीं हैं?’ ‘नहीं अभी नहीं है।’ शांति ने कहा। ‘हो तो बताना।’ हीरा ने कहा और अखबार उठाकर बाहर आ गया।

वह अखबार उठा ही रहा था कि शांति ने चौहान से कहा। ‘कल शाम से घर में बदबू आ रही है कोई चूहा वूहा तो नहीं मर गया।’ लग तो चौहान को भी रहा था कि कल शाम से घर में बदबू आ रही है।

‘नहीं ऐसा कुछ नहीं है अखबारों की बदबू ही आ रही होगी बदबू,’ वीर प्रताप ने कहा।

पर बदबू थी। शाम तक चौहान और शांति का बँगले में बैठना दूभर हो गया था। हालाँकि वीर प्रताप चौहान ने कमरों में रिफ्रेशर छिड़क दिया था पर उससे बदबू दब नहीं रही थी। बढ़ती जा रही थी। शाम तक पूरा बँगला बदबू से भर गया था। दोनो के लिए कमरे में बैठना मुश्किल हो गया था। मुझे लगता है कोई चूहा मर गया है। बहुत तेज बदबू आ रही है। शांति ने मुँह पर रूमाल रखते हुए कहा। ‘हाँ पर कहाँ मरा है।’

वीर सिंह चौहान ने भी मुँह पर कपड़ा लपेट लिया था।

‘शायद किसी अलमारी के पीछे या स्‍टोर रूम में।’ शांति ने आशंका व्‍यक्‍त की।

‘पर किस अलमारी के नीचे।’ ‘यही तो पता ही नहीं चल रहा।’ वीर सिंह चौहान और शांति ने मुँह पर कपड़ा लपेटा और पूरे बँगले का एक एक कोना छान मारा। पर पता नहीं चल सका कि बदबू कहाँ से आ रही है।

‘मुझे लगता है कि इस शो केस के पीछे से ज्‍यादा आ रही है।’ शांति ने मुँह पर कपड़ा लपेटे लपेटे ड्राइंग रूम में रखे बड़े से शो केस के पीछे झाँकते हुए कहा।

उसने देखा कि शो केस के पीछे बदबू का भभका सा उठ रहा था। कुछ चींटियाँ भी उसने शो केस के नीचे के फर्श पर देखी थी। चींटियों को देखकर उसे पक्‍का यकीन हो गया था कि चूहा शो केस के पीछे ही मरा पड़ा है। ‘लगता है किस इस शो केस के पीछे ही चूहा मर गया है।’

वीर प्रताप ने शो केस के पीछे झाँककर देखा वाकई बदबू वहीं से आ रही थी। शो केस के पीछे झाँकने की कोशिश की उबकाई सी आ गई।

‘यहीं मरा पड़ा है। बहुत बदबू है।’ उन्‍होंने कहा और शो केस से दूर चले गए।

‘बिल्कुल खड़ा नहीं हुआ जा सकता। यहाँ पर कहकर शांति जी बँगले के ड्राइंग रूम से बाहर लान में आ गई। पीछे पीछे वीर प्रताप भी चले आए। दोनो लान में रखी कुर्सी पर बैठ गए। चूहे को कैसे निकालें एक विराट सवाल उनके सामने आ खड़ा हुआ था। ‘इतना भारी शो केस है कि हिल भी नहीं सकता।’ वीर प्रताप ने कहा ‘बड़ी मुश्किल है। कमरे में तो बैठा भी नहीं जा सकता।’ शांति ने बदबू से परेशान होकर कहा। ‘बहुत बदबू है।’

‘किसी को ढूँढ़ कर लाओ जो चूहे को निकाले।’

‘अब शाम को कौन मिलेगा। कल सुबह ही देखेगे।’

‘कल सुबह…’ शांति ने घबराते हुए कहा। ‘तो रात को कैसे सो सकेंगे। कमरे में तो बैठा ही नहीं जा रहा।’ उसने अपनी चिंता सामने रखी।

‘किसी दूसरे कमरे में सो जाएँगे।’

‘पर कल तक बदबू तो पूरे घर में फैल जाएगी।’ बात तो ठीक थी। पूरे बँगले में मरे हुए चूहे की बदबू फैली हुई थी। इस बदबू को मिटाना होगा। मरे हुए चूहे को निकालना होगा। वीर प्रताप चौहान ने सोचा, ‘अच्‍छा देखता हूँ। चौकीदार को लेकर आता हूँ वह शोकेस को खिसका कर चूहे को निकाल देगा।’ वीर प्रताप सिंह ने हल सुझाया और उठकर बँगले से बाहर जाने लगे।

शाम हो चुकी थी। पर गर्म हवा का एहसास अभी भी था। वे पैदल चलते चलते चौकीदार के पास पहुँच गए। चौकीदार एक स्‍टूल पर बैठा हुआ था। उसने दूर से देख लिया था कि वीर प्रताप चौहान उसकी तरफ आ रहे हैं। वह अपनी कुर्सी से उठा नहीं। कुछ चिढ़ता था वह उनसे। दो तीन बार वीर प्रताप सिंह उसकी शिकायत कर चुके थे कि वह लोगों के घरों का काम करता रहता है। अपनी ड्यूटी पर नहीं रहता। वीर प्रताप चलते चलते उसके पास पहुँच गए और उससे कहा ‘क्‍या कर रहे हो।’

‘कुछ नहीं साब बस बैठे हैं।’ चौकीदार ने लापरवाही से जवाब दिया।

‘छोटा सा काम है तुमसे।’ उनके स्‍वर में चापलूसी आ गई।

‘हाँ कहिए।’

घर में एक अलमारी खिसकानी है।’ उन्होंने कहा। उन्होंने चौकीदार को यह नहीं बताया कि घर में चूहा मरा हुआ है। सोचा उन्‍होंने बता दूँगा तो आने से मना कर देगा।

‘नहीं साहब हम गेट छोड़कर नहीं जा सकते। मना किया हुआ है हमको।’ चौकीदार ने अक्‍खड़ता से कहा।

‘कोई ज्‍यादा टाइम थोड़ी न लगेगा। दस बीस ले लेना।’ वीर सिंह ने चौकीदार को लालच दिया।

‘सवाल दस बीस का नहीं है। हम जा ही नहीं सकते साब गेट छोड़कर।’ चौकीदार की अक्‍खड़ता बरकरार थी।

‘अजीब आदमी हो तुम।’ उन्‍होंने गुस्से में कहा और वहाँ से चले गए कालोनी के बाहर। कालोनी के बाहर यह सोचकर आ गए कि सड़क के किनारे कुछ रिक्‍शे वाले खड़े रहते है वहाँ से किसी को लेकर आते है।

‘साब…’ वह अभी कुछ ही दूर आए थे कि पीछे से आवाज आई। उन्होंने पीछे मुड़कर देखा चौकीदार उन्‍हें बुला रहा था।

‘क्‍या है…।’ उन्होंने आवाज ऊँची करके से ही पूछा।

‘इसे ले जाइए यह आपका काम कर देगा।’ चौकीदार ने ऊँची आवाज में कहा। उन्‍होंने देखा चौकीदार के पास एक ठेले वाला खड़ा है और चौकीदार उससे कुछ कह रहा है। वह वापस चौकीदार के पास चले गए। अरे यह तो वही है जो आज सुबह उनके घर से पुराने अखबार ले गया था। उन्‍होंने ठेले वाले की और देखते हुए सोचा।

‘तुम…’उन्होंने हैरानी से कहा।

‘हाँ साब यह आपकी अलमारी खिसका देगा और जो ठीक समझो दे देना।’ चौकीदार ने उनसे कहा। खुश हो गए वीर प्रताप चौहान।

‘चलो… उन्‍होंने हीरा से कहा। हीरा ने देखा कि यह तो वही महाशय है जिन्‍होंने सुबह तौल में गड़बड़ी की थी। उसने जब दुकान में रद्दी को तुलवाया था तो अस्‍सी किलो थी। यानी इन्‍होंने पंद्रह किलो के पैसे कम दिए थे और मोल भाव किया सा अलग। एक गुस्‍सा सा था हीरा के मन में। पर कुछ कर नहीं सकता था। यह सोचकर चह गम पी गया कि आज घाटा ही सही। ‘काम क्‍या है साब।’ चलने से पहले हीरा ने पूछा ‘कुछ खास नहीं है। एक शो केस खिसकाना है।’ वीर प्रताप ने कहा।

‘शो केस खिसकाना है…। हीरा ने हैरान होकर पूछा।

‘हाँ शो केस खिसकाना है बस ज्यादा देर नहीं लगेगी।’ उन्‍होंने कहा ‘तो साब पैसे लगेंगे।’ हीरा ने अक्‍खड़ता से कहा। ‘कितने पैसे लोगे। शो केस खिसकाने के। कोई पहाड़ थोड़े ही न खिसकाना है।’उन्‍होंने आवाज में मिश्री घोलते हुए कहा।

‘यह तो काम देखने पर ही बताऊँगा।’ हीरा ने कहा। हीरा ने मन ही मन ठान लिया था कि हो सका तो सुबह का हिसाब पूरा करके ही रहेगा।

‘अच्‍छा ठीक है। चलो तो सही।’ उन्‍होंने कहा और अपने दाएँ हाथ से हीरा को चलने का इशारा किया। ‘चलो…’ हीरा ने कहा और उनके पीछे-पीछे चलने लगा। बँगले में पहुँच कर हीरा ने देखा कि शांति जी बँगले के बाहर बेचैनी से टहल रही है। गोया बँगले के अंदर गईं तो उनका दम घुट जाएगा। वीर प्रताप को देखते ही खुश हो गई ‘मिला कोई।’ उन्‍होंने बेचैनी से पूछा।

‘हाँ यह मिल गया है।’ वीर प्रताप ने हीरा की तरफ इशारा करते हुए कहा। शांति ने देखा कि अरे यह तो वही रद्दी वाला है जो सुबह उनके यहाँ से रद्दी ले गया था। वह खुश हो गई। ‘आओ बेटा…’ अचानक उसका स्वर बदल गया ‘बेटा…’ हीरा चौंक गया सुनकर। क्या बात उसने भाँपने की कोशिश की। पर समझ न सका। कहीं फिर तो वह नहीं ठगा जाएगा। नहीं इस बार ऐसा कुछ नहीं होगा। उसे पूरे पैसे मिलेंगे तभी वह काम करेगा नहीं तो नहीं… उसने मन ही मन ठान लिया।

‘आओ बेटा…’ शांति ने कहा उसे बँगले के ड्राइंगरूम में ले गई। हीरा ने देखा ड्राइंगरूम में बदबू ही बदबू थी। इतनी बदबू कि कदम रखना मुश्किल था। समझ नहीं सका था कि माजरा क्‍या है। वीर प्रताप और शांति उसके पीछे ड्राइंगरूम के दरवाजे पर ही खड़े थे अंदर नहीं आए थे। ड्राइंगरूम के दरवाजे में खड़े खड़े ही शांति ने सामने रखे शोकेस की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘देखो बेटा, वो जो शो केस है उसके पीछे चूहा मरा हुआ है। शो केस को थोड़ा सा खिसका कर मरा हुआ चूहा निकालना है।’ हीरा को सारा माजरा समझ में आ गया। इनके बँगले में चूहा मर गया है। सुबह जब वह ड्राइंगरूम से गुजरकर पीछे वाले बरामदे में जा रहा था तब भी उसे थोड़ी बदबू लगी थी पर उसने ध्‍यान नहीं दिया था पर इस समय वह बदबू बहुत तेज हो गई थी और पूरे बँगले में छा गई थी। बदबू से ये परेशान हैं और बदबू से छुटकारा दिलाने के लिए शोकेस को खिसकाना जरूरी है और ये दोनों बूढ़े मिलकर भी शोकेस को हिला नहीं सकते। यह काम वही कर सकता है। उसे याद है सुबह का मोल भाव। इनकी अपनी मशीन से रद्दी को कम तौलना, उसका घाटा होना। मन ही मन हीरा मुस्‍करा उठा। सुबह की कसर अब वह पूरी करेगा। ‘ठीक है हो जाएगा।’ उसने जोश में कहा ‘शाबाश बेटा। लो यह कपड़ा मुँह पर बाँध लो।’ वीर प्रताप ने एक कपड़ा हीरा को देते हुए कहा।

‘नहीं इसकी कोई जरूरत नहीं।’ हीरा ने कपड़ा लेने से मना कर दिया। ‘तो लो यह झाड़ू ले लो इससे चूहा निकालने में आसानी होगी। शांति ने एक झाड़ू देते हुए कहा ‘नहीं इसकी भी कोई जरूरत नहीं है।’ हीरा ने झाड़ू लेने से मना कर दिया ‘तो क्‍या हाथ से ही उठा लोगे।’ वीर प्रताप ने पूछा।

‘हाँ उठा लूँगा’ उसने दबंग होकर कहा।

‘तो ठीक है शो केस धीरे से खिसकाना…’ वीर प्रताप ने कहा।

‘पर पाँच सौ रुपये लगेंगे सेठ…।’ हीरा ने अक्‍खड़ता से कहा।

‘क्‍या… पाँच सौ रुपये…।’ वीर प्रताप और शांति दोनो चौंक गए। गोया मरा हुआ चूहा उनके सर पर आ गिरा हो।

‘हाँ सेठ पाँच सौ रुपये। काम कराना है तो बोलो।’ हीरा ने दृढ़ता से कहा और वही खड़ा रहा। वह जान चुका था कि यह काम वही कर सकता था। इस समय इन्‍हें कोई दूसरा आदमी नहीं मिलेगा। बदबू इतनी ज्‍यादा थी कि यह एक मिनट भी कमरे में बैठ नहीं सकते थे और रात होने वाली थी।

‘दिमाग तो तुम्‍हारा ठीक है जरा से काम के लिए पाँच सौ रुपये।’ वीर प्रताप ने कहा ‘देखे है कभी तुमने पाँच सौ रुपये।’ शांति ने कहा।

‘आपकी मर्जी।’ हीरा ने कहा और वापस जाने के लिए मुड़ गया।

हीरा को इस तरह पलट कर जाते देख कर दोनों घबरा गए। उन्‍हें लगा कि यदि यह चला गया तो दूसरा आज तो कोई नहीं आएगा। रात काटनी मुश्किल हो जाएगी। और कोई गारंटी नहीं कि कल सुबह ही कोई मिल जाए। वैसे भी इस कालोनी में बाहर के लोगों को आने नहीं देते।

‘कुछ सोच कर बोलो भाई।’ वीर सिंह ने मीठी आवाज में कहा।

‘सोच लिया सेठ पाँच सौ रुपये। न एक रुपया कम न एक रुपया ज्‍यादा।’ हीरा ने अक्‍खड़ता से कहा। अजीब साँसत में फँस गए थे। वीर सिंह चौहान और शांति चौहान। पाँच सौ रुपये बहुत ज्‍यादा थे। बदबू खत्‍म न हुई तो रात भर सो न सकेंगे और मरे हुए चूहे की बदबू से साँस लेने में तकलीफ हो सकती है। फेफड़े खराब हो सकते है। और न जाने क्‍या-क्‍या हो सकता है…। वे दोनों भीतर तक डर से गए थे। ‘दौ सौ रुपये ले लेना।’ वीर प्रताप चौहान ने आखिरी अस्‍त्र चलाया।

‘नहीं सेठ एक पैसा कम नहीं। पूरे के पूरे पाँच सौ रुपये और वह भी काम शुरू होने से पहले।’ हीरा की अक्‍खड़ता बरकरार थी। उसने तय कर लिया था जब तक पैसे उसके हाथ में नहीं आएँगे वह काम शुरू नहीं करेगा। कुछ देर तक चुप्‍पी छाई रही। वीर प्रताप सिंह ने पहले हीरा की तरफ देखा फिर अपनी पत्‍नी शांति चौहान की तरफ देखा।

‘फेंको इसके मुँह पर पाँच सौ रुपये। घर तो साफ कराओ।’ शांति चौहान ने आदेशात्‍मक स्‍वर में कहा।

हीरा खुश हो गया। हँसने की इच्‍छा हुई लेकिन दबा गया। यह उसकी जीत थी। उसका सुबह का हिसाब किताब बराबर हो चुका था।

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हिसाब-किताब – Hisab-Kitaab

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