घुमरी परैया | आरसी चौहान
घुमरी परैया | आरसी चौहान

घुमरी परैया | आरसी चौहान

घुमरी परैया | आरसी चौहान

एक खेल जिसके नाम से
फैलती थी सनसनी शरीर में
और खेलने से होता
गुदगुदी सा चक्कर
जी हाँ
यही न खेल था घुमरी परैया
कहाँ गए वे खेलाने वाले घुमरी परैया
और वे खेलने वाले बच्चे
जो अघाते नहीं थे घंटों दोनों
यूँ ही दो दिलों को जोड़ने की
नई तरकीब तो नहीं थी घुमरी परैया
या कोई स्वप्न
जिसमें उतरते थे घुमरी परैया के खिलाड़ी
और शुरू होता था घुमरी परैया का खेल
जिसमें बाँहें पकड़कर
खेलाते थे बड़े बुजुर्ग
और बच्चे कि ऐसे
चहचहाते चिड़ियों के माफिक
फरफराते उनके कपड़े
पंखों से बेजोड़
कभी-कभी चीखते थे जोर-जोर उई… माँ…
कैसे घूम रही है धरती
कुम्हार के चाक-सी और संभवतः शुरू हुई होगी यहीं से पृथ्वी घूमने की कहानी
लेकिन
अब कहाँ ओझल हो गया घुमरी परैया
जैसे ओझल हो गया है
रेडियो से झुमरी तलैया
और अब ये कि
हमारे खेलों को नहीं चाहिए विज्ञापन
न होर्डिगों की चकाचौंध
अब नहीं खेलाता कोई किसी को
घुमरी परैया
न आता है किसी को चक्कर ।
(* पूर्वी उत्तर प्रदेश का एक लोकप्रिय खेल जो अब लुप्त हो चला है।)

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