गाँव से एक दिन | रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति
गाँव से एक दिन | रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

गाँव से एक दिन | रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

गाँव से एक दिन | रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति

मैं गाँव में था तो सिर्फ गाँव में नहीं था
कुछ गाँव भी मुझ में था

चीजें सिर्फ गाँव के मेढ़े तक नहीं थीं
कुछ इस तरफ और कुछ उस तरफ थीं
शहर सपनों की चादर में चिपक कर आता रहा
मैं शहर और गाँव दोनों में खुद का जीता रहा

एक बस आती थी – धूल का बादल लिए
वह पहला गुब्बारा था जो शहर से गाँव आया
उसी में कुछ हवाएँ कुछ कल्पनाएँ आती थीं
शहर कैसा होता है न जाने कितने किस्सों के साथ

जब मैंने शहर नहीं देखा था, पर शहर था
देखे थे रंगीन जगमगाते दृश्य
यह शहर टीवी की स्क्रीन से उतरा था
गाँव के लड़कों के दिमाग में जाकर छुप गया था

गाँव के आँगन में शहर आता था
बस में रखा थैला बन कर
बिस्कुट का एक पैकिट और कुछ खिलौने साथ
शहर में सब कुछ क्यों होता है?
आज सोचता हूँ
मेरा गाँव धीरे धीरे शहर से चिपक रहा है
मैं एक नक्शे की तरह दोनों में दर्ज

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *