एक और रात | लाल्टू
एक और रात | लाल्टू

एक और रात | लाल्टू

एक और रात | लाल्टू

दर्द जो जिस्म की तहों में बिखरा है
उसे रातें गुज़ारने की आदत हो गई है

रात की मक्खियाँ रात की धूल
नाक कान में से घुस जिस्म की सैर करती हैं

पास से गुजरते अनजान पथिक
सदियों से उनके पैरों की आवाज़ गूँजती है
मस्तिष्क की शिराओं में.

उससे भी पहले जब रातें बनीं थीं
गूँजती होंगीं ये आवाज़ें.
उससे भी पहले से आदत पड़ी होगी
भूखी रातों की.

(पश्यन्ती – 2000; पाठ – 2009)

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