दुर्गोत्सव : चार यादें | निशांत
दुर्गोत्सव : चार यादें | निशांत

दुर्गोत्सव : चार यादें | निशांत

दुर्गोत्सव : चार यादें | निशांत

1.

आइस्क्रीम खाने के बाद
एक चम्मच उठा लाए थे हम
तुम्हें याद है
उस दिन सप्तमी थी
तुम पहली बार साड़ी पहनी थी
मेरे पैर में बहुत दर्द था
तुम सचमुच की माँ दुर्गा दिख रही थी

क्या देख रहे हो ऐसे
अँधेरे में फैला, तुम्हारे चेहरे का उजास
वही देख रहा हूँ
तुम शर्माई नहीं
बस धीमे से मुस्कुरा दी

पहली बार तुम्हारे साथ
एक पूरी रात
इस पृथ्वी पर
इस जीवन में
टकी है स्मृति में
कितनी सप्तमियों के जाने के बाद भी

सचमुच तुम्हारी देह से निकलते हुए देखा था
दुर्गा को उस रात
अपने देह से महिषासुर राक्षस को
मेरा डर तुम्हें आनंदित कर रहा था
तुम्हारा आनंद मुझे तृप्त

सुबह मैं यहाँ
तुम अपने हॉस्टल
तब से सँभाल कर रखा हूँ यह चम्मच
वह सप्तमी भी।

(सप्तमी, 1977)

2.

आज
अष्टमी की सुबह
प्रणामी देने गया था मैं
तुम्हारी तबियत खराब थी

अष्टमी को ही हुआ था एक्सीडेंट
अष्टमी मेरे लिए कभी शुभ नहीं रहा
अष्टमी की सुबह सुबह चले गए थे पिता

पिछले दो तीन सालों से
फिर शुरू किया है अष्टमी मनाना
बच्चों के लिए

पत्नी से भी बड़ा है प्रेम
प्रेम की अनुभूति
खासकर सप्तमी की
अपने उस जीवन की

बच्चे आकर
प्रेम से बड़े हो गए हैं
लगता है उनमें मैं हूँ
मैं हूँ अपना ही एक अंश
एक दैवीय उपादान

तुम में दुर्गा को नहीं पाया
न ही पाया काली को
न ही लक्ष्मी को
पर तुम
एक देवी तो हो ही
झेले है मेरे अष्टयाम प्रहार

आज
अष्टमी की सुबह
पंडाल से वापस लौटते हुए
एक बड़ी सी रजनीगंधा की माला खरीद लाया हूँ
आज देवी को देवी की भेष में
सचमुच पूजना चाहता हूँ
आज पति नहीं, भक्त होना चाहता हूँ।

(अष्टमी, 1987)

3.

आज की रात
यही रुक जाओ
हर रात वह कहती
हर रात मैं वही रुक जाता

दिनभर चाहे जहाँ भी रहूँ
शाम को बिना मिले चले आना पाप था
रात होने पर वह कहती – आज की रात
यही रुक जाओ

कोई मेरी प्रतीक्षा नहीं करता उस शहर में
सिवाय उसके

आज नवमी है
घर में बच्चे, माँ, पिताजी और बहन इंतजार कर रहे होंगे
इंतजार कर रहा होगा वह घर भी
सारे नवमी देखे है उसने मेरे साथ
आज जाने दो
कल पहली फ्लाईट पकड़कर चला आऊँगा
कलकते से यहाँ

उसने कहा था,बस और दो दिन दे दो
मैंने कहा था – आज जाने दो
वह मेरा शहर नहीं घर है

कितनी बार वहाँ गया
कितनी नवमियाँ आकर गईं
कितने घर बदले

कितने शहर
कितने समय बीते
वह नवमी वही खड़ी है
वह विजय दशमी नहीं मनाती

समय रहते सँभलने की आदत
उसी ने डलवाई थी
उसी ने बताया था
समय में की गई एक भूल
कभी ठीक नहीं होती
हम चाहे जितनी बार किसी से माफी माँगें।

(नवमी, 2007)

4.

बाहर बारिश हो रही है
इतनी तेज बारिश
कि लगता है आज ही
जल प्रलय आ जाएगा कोलकाता में
आज विजय दशमी है

दुर्गा का मैं कभी भक्त नहीं रहा
न रहा काली का
अलबत्ता काली नाम की मेरी एक मामी थी
मुझ से उम्र में चार साल छोटी
लक्ष्मी मुझे खींच न पाई
धवल वस्त्रा हंसवाहिनी सरस्वती मुझे रास आई

मैं ब्रह्मा बनना चाहता था
बचपन के दिनों से ही

बचपन से लेकर
आज तिरसठ तक किताबें ही रही
मेरी पहली प्राथमिकता
पहला प्रेम
फिर आज बार बार क्यों खींच रही हैं दुर्गा
मेरी आँखों को

मैंने निमंत्रित किया था
उस दिन दुर्गा समय से पहले आई थी

मैं बुड्ढा लंपट और कामी हो गया हूँ
हे दुर्गा
मुझे मार दो
नहीं तो प्यार दो

– “लो बाबू, मैं समझ सकती हूँ।
इसलिए ये भी खरीद रखी हूँ अपने पास।
घबड़ाओ मत, किसी से नहीं कहूँगी।
समझ सकती हूँ सब।”
तुम इतनी समझदार होगी
मैं सोचा भी नहीं था

मैं तिरसठ से फिर बचपन में आ गया हूँ
जिसे दुर्गा समझा था
वह माँ निकली
जिसे मैंने विजय दिवस समझा था
वह दरअसल विजय दशमी था
अंततः मैं हारा था
हारा था अंदर का महिषासुर

काम को देह नहीं
मन जीतता है

अभी अभी आबोहवा दफ्तर ने
सूचना प्रसारित की है
खाड़ी में तूफान टल गया है
चमक सफेद धूप होने की संभावना है.
(विजय दशमी, 2017)

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