बीड़ी | नीरज पांडेय
बीड़ी | नीरज पांडेय

बीड़ी | नीरज पांडेय

बीड़ी | नीरज पांडेय

कई 
सरकारें 
देखी उसने

आती/जाती 
बनती/बिगड़ती 
लड़ती/लड़ाती 
सब तरह की सरकारें देखी

लेकिन 
जितनी खुशी उसे 
पाँच रुपये की बीड़ी 
और एक रुपये की माचिस 
से मिलती 
उतनी किसी सरकार से नहीं

वह खींचता 
कुछ देर रोकता 
तब धुआँ छोड़ता 
और उपर भगवान की तरफ 
मुँह करके उनको देखते हुए 
कुछ बातें कहता 
धुएँ के साथ ऊपर जाती बातों को 
देखता बैठा रहता 
मानो भगवान को पाती भेजी है 
और सफेद उड़ते डाकिये 
भगवान के यहाँ की डाक लेकर जा रहे हैं

वो जानता था 
कि बीड़ी बेकार है 
रोग देती है कलेजा फूँककर 
फिर भी पीता था

और भी कई राहें थी 
जिससे सुकून आ सकता था 
उसके पास 
लेकिन उन राहों पर सरकारी पाथर गड़े थे 
ऊँचे ऊँचे 
मोटे मोटे 
जिस पर महीन महीन मिलावटी अक्षरों में कुछ लिखा था 
जिसे सिर्फ सरकार पढ़ती 
वह उसे तब पढ़ती 
जब लोगों को 
फुसलाना 
होता

कोई और नहीं पढ़ पाता 
उन महीन मिलावटी अक्षरों को!

अगर कोई समझाता उसे 
कि बीड़ी रोग देती है 
जिन पिया करो 
तो मुस्कराते हुए कहता

“रोग तो कोई और देता है उस्ताद 
बीड़ी तो सुकून देती है 
कुछ देर का 
रोको मत 
पीने दो 
जउन लिखा होई 
लिलारे मा 
उ होई…. 
ओका केहु न रोक न पाई”

और इस तरह 
बीड़ी के धुएँ के साथ 
थोड़ा थोड़ा रोज ऊपर जाता रहा वह 
और एक दिन पूरा चला गया 
कोई नहीं रोक पाया उसे 
बहुत जँगरइत था

सिर्फ बीड़ी पीने से नहीं मरा वह 
और भी बहुत कुछ पीता था 
सुबह से शाम तक 
बारहों मास 
जिसे सब पीते हैं 
सराय भर के लोग 
कुछ बीड़ी के साथ पीते हैं 
कुछ बीड़ी बगैर

दोष 
बीड़ी का 
नहीं है गुरू 
वो तो बदनाम भर है 
कहानी तो अंतइ अंतइ लिखी जाती है

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *