बेंच पर ब्रह्मांड | घनश्याम कुमार देवांश
बेंच पर ब्रह्मांड | घनश्याम कुमार देवांश
मैं उसे अँधेरा कहूँ तो झूठ होगा
लेकिन था तो कुछ अँधेरा ही
एक बेंच, एक तुम और एक मैं
हमारे बीच उस बेंच का एक टुकड़ा
दौरा पड़ने की हद तक धड़क रहा था
हवा हमारे कंधों पर गीले मफलर की तरह झूल रही थी
और पास के पेड़ में छिपा एक घोड़ा
बिना थके खड़ा था सदियों से