बहुत गहरे हैं पिता | अनूप अशेष
बहुत गहरे हैं पिता | अनूप अशेष

बहुत गहरे हैं पिता | अनूप अशेष

बहुत गहरे हैं पिता | अनूप अशेष

बहुत गहरे हैं पिता
पेड़ों से भी बड़े,
उँगलियाँ
पकड़े हुए हम
पाँव में उनके खड़े।

भोर के हैं उगे सूरज
साँझ सँझवाती,
घर के हर
कोने में उनके
गंध की पाती
आँखों में मीठी छुअन
प्यास में
गीले घड़े।

पिता घर हैं बड़ी छत हैं
डूब में हैं नाव,
नहीं दिखती
ठेस उनकी
नहीं बहते घाव
दुख गुमाए पिता
सुखों से
भी लड़े।

धार हँसिए की रहे
खलिहान में रीते,
जिंदगी के
चार दिन
कुछ इस तरह बीते
मोड़ कितने मील आए
पाँव से
अपने अड़े।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *