अँधेरा | अर्पण कुमार
अँधेरा | अर्पण कुमार

अँधेरा | अर्पण कुमार

अँधेरा | अर्पण कुमार

प्रकृति की विरासत से तुम्हें
दिन और रात मिले थे
मगर तुम्हारी जरूरत
तुम्हारे प्राप्य से बाहर जा रही थी
तुममें बेसिर पैर की आकांक्षाएँ
आकार लेने लगीं
बढ़ने और फैलने लगीं
अपनी बेतरतीबी में।

प्रकृति की अन्यथा कल्याणकारी
नाप-जोख
तुम्हें असंतुष्ट रखने लगी
और तुमने पहले आग और
बाद में बिजली की खोज की

भोग और विलास का पहाड़
ऊँचा और ऊँचा उठता चला गया

ताकतवर लोगों का ‘कार्टल’ बना
बिजली, तेल, कोयला, लोहा आदि
शक्ति के सभी संसाधनों के
उत्पादक, उत्खननकर्ता, नियंत्रक,
वितरक और उपभोक्ता सभी वही बने
रोशनी के चंद कतरे
कभी किसी और को मिल जाएँ,
उनकी मर्जी ठहरी
नतीजा…
बिजली है और नहीं भी
जहाँ है जरूरत से अधिक
जहाँ नहीं है, वहाँ आपात स्थितियों में भी नहीं
अनिवार्य आवश्यकताओं के लिए भी नहीं
प्रकृति की विरासत से तुम्हें
दिन और रात मिले थे
सबको बराबर मिला था
प्रकाश और अंधकार
दुनिया तब एक दिखती थी
मगर जब तुमनें ढूँढ़े
रोशनी के विकल्प
उसके कतरों में बँट गई दुनिया
जिसके एक बड़े हिस्से में
चला आया अंधकार
जो कहीं अधिक अप्राकृतिक
अन्यायपूर्ण और भयावह है

प्रकृति की तुला पर
तुम सबका वजन एक था
मगर उसकी डंडी जब
तुमने थामी
मालिक बना तो कोई नौकर
शोषक बना तो कोई शोषित
पूँजीपति बना तो कोई सर्वहारा

प्रकृति द्वारा हुए वितरण में
तुम्हें दिन और रात मिले थे
समान रूप से, समभाव में
मगर तुम्हें यह समानता पसंद नहीं आई
तुम्हें प्रकृति का यह द्विविभाजन भी पसंद नहीं था
तुम्हें किसी भी तरह की बराबरी
अब खलने लगी थी
अँधेरे में रहना तुम्हें
जंगलीपन और असभ्यता का प्रतीक लगने लगा
तुम प्रकाश के पथ पर एक बार जो आगे क्या बढ़े
बढ़ते ही चले गए
तुम अपने आप को निरंतर सभ्य बनाते चले गए
तुमने मनुष्यों की मंडियाँ लगाई
गुलामों की खरीद-फरोख्त की
उन्हें पशुओं के पैरों में बांधकर
‘दौड़ प्रतियोगिता’ का मजा लिया
अपने विरोधी स्वरों को
कतारबद्ध कर
निस्संग भाव से

‘कांसनट्रेशन कैंप’ के हवाले किया
तो कभी उनके शहरों पर
एटम बम गिराकर
उन्हें पल-भर की रोशनी में ऐसा नहाया
कि आने वाली उनकी कई नस्लें
रोशनी के भय से
अपनी आँखें नहीं खोल सकीं

तुम्हें रोशनी पैदा करना आया
रोशनी में जीना भी
मगर तुम्हें अँधेरे कोनों को
रोशन करना नहीं आया
एक से बढ़कर एक हुनर सीखा तुमनें
मगर उजाला बाँटने का हुनर
तुम्हें नहीं आया
तुम सीखना भी नहीं चाहे

दिन और रात के अंतर को
तुमने पाट दिया
मगर बढ़ा दी
मनुष्य और मनुष्य के बीच की खाई
तुमने अपना ‘ज्योति-रथ’ दौड़ाया
प्रकृति के सीने पर
मगर तुम हार गए
अपने अंदर के अंधकार से

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *