ऐसा ही होता है | आस्तिक वाजपेयी
ऐसा ही होता है | आस्तिक वाजपेयी

ऐसा ही होता है | आस्तिक वाजपेयी

ऐसा ही होता है | आस्तिक वाजपेयी

ऐसा ही होता है।
समय मे भागता अश्वत्थामा
भूल जाएगा कि वह क्यों भागता है,
भागना ही बच जाएगा, सब खत्म हो जाएगा।

‘प्रेम’ – किससे किया था ?
वह कौन है जो मुझे देखती है।
मैं भूल चुका हूँ।

‘मृत्यु’ – वह शुरू हो गई थी मेरे पैदा होते ही,
खत्म हो पाएगी या नहीं इस घास पर पड़ी
ओस की चमक।

यह अंधकार मेरा पहला अंधकार
नहीं है, इसके पीछे से मेरी यादें
मुझे, भाले मार रही है। कुत्तों की तरह झुंड में
धावा बोलती है, किसी एक का भी चेहरा नहीं
देख पाता।

हत्या सिर्फ मैंने ही नहीं की है।
मुझे ही क्यों दंडित करता है यह मैं।
किससे करवाऊँ बचाव खुद से अपना।
ऐसा ही होता है।

‘अफसोस’ – पहले दूसरों पर होता है
फिर खुद पर, फिर इस बात पर
कि यह सोचते सोचते कितना समय बीत गया।

मासूमियत छीन ली है भगवानों ने
जानवरों को देने के लिए।
हमारे लिए इच्छाएँ छोड़ दी हैं।

कुछ ऐसा करूँ जो मुझे अच्छा लगता हो,
मैं क्यों भाग रहा हूँ ?
यह मैंने खुद के लिए चुना है या दूसरे ने।

अगला कदम क्या एक सदी पार कर रहा है
या एक क्षण या ये सारी सदियाँ ही एक क्षण थीं।
कितना समय बीत गया।

यह कुरुक्षेत्र ही है क्या ?
कोई सपना लगता है, या कोई भ्रम
मैं इससे क्यों नहीं भाग पाता।

यह पाताल है या स्वर्ग।
यह भीड़ क्यों लड़ती है,
मैं क्यों नहीं लड़ता।

घास के ऊपर तैर रही ओस पीकर जिंदा रहतीं
ये मृतकों की चीखें।
क्या वास्तव में मर गए सिर्फ वे लोग
या हम भी चलते मुर्दे हैं।

इस रण में ही छिपी है शांति
हँस रही है धूप, पसीने और रक्त
से लिप्त खड़ी रण के बीच।

कुत्तों और गिद्धों की आँखें लाल हो गईं है
रक्तचाप से योद्धाओं की कल्पनाएँ लाल हो गईं हैं।

इतिहास हम हैं या वेदव्यास या गणेश जो
लिखते हैं महाभारत या जीत की संभावना जो छिप
गई है मनुष्यों की इच्छाओं में।
ऐसा ही होता है।

हम क्या लड़ें, क्यों लड़ें, किससे लड़ें
कुछ भी स्मरण नहीं।

हम सत्ता के लिए नहीं लड़े थे,
न ही ईर्ष्या से, न ही समृद्धि के लिए
हम लड़े क्यों ?
क्या वास्तव में लड़े थे ?
संभव है कि यह देवताओं की चाल हो,
लेकिन यह भूमि लाल है
कुरुक्षेत्र, हाय कुरुक्षेत्र जिसे छलनी किया
भयावह सेनाओं ने, असंख्य योद्धाओं ने
क्या यह तुम्हारे द्वारा रचा एक स्वप्न था ?

हमें क्यों कौशल इतना अधिक मिला
और इच्छाएँ इतनी कम।
रात्रि में स्वप्न नहीं मिले, सूर्यास्त
पर संतुष्टि नहीं मिली।

मैं थक गया हूँ, थक गया हूँ, थक गया हूँ।
कहाँ जा रहा हूँ ? आँखें सूज गई हैं
नहीं सो पाता हूँ, मृत्यु भी क्षमा नहीं करती है।

यह फूल अभी उगे ही हैं, भीष्म की
तरह पता है इन्हें भी मृत्यु का समय।
धन्य हैं।

अपनी इच्छाओं से बहुत पहले पल्ला
झाड़ चुका हूँ दूसरों की इच्छाओं को ढोता हूँ
कभी अर्जुन बनकर द्रोपदी की कामना करता हूँ,
कभी धृतराष्ट्र बनकर अपने पुत्रों की,
कभी अश्वत्थामा बनकर मृत्यु की,
ऐसा ही होता है।

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