टिकुली | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता
टिकुली | प्रेमशंकर शुक्ला | हिंदी कविता

दस माह कलोरी की कोख में रह
हवा-पानी धूप की इस दुनिया में
अभी पाँच दिन पहले तो आई है
इतने इत्मीनान से झपिया रही है
जैसे जानती हो –
कि आगे का समय इतनी फुरसत का नहीं होना है।

एकदम वही ललछर-रूप और माथे पर वही उज्जर-टिकुली
माथे पर उज्जर टीके की वजह से ही
बछिया की माँ का नाम चंदनी हुआ होगा
और सुबह इसके पैदा होने के दो-तीन घंटे बाद ही
बड़ी माँ ने इसका भी नाम टिकुली रख छोड़ा
बढ़ी माँ को हमेशा नाम की जल्दी रहती है
कहतीं हैं – बिना नाम के अपनापा नहीं बनता

हमारे घरों में हमारी तरह
हमारे मवेशियों की भी पीढ़ियाँ चलती हैं
बिंदिया की वंशज आसन्न-प्रसवा अपनी चंदनी के लिए
बड़ी माँ रातभर जागतीं और कहतीं –
‘नौवें नारि दसवें कलोरी…
उतरते जेठ धना गई थी
इसलिए उतरती फागुन ही ब्याएगी’
बड़ी माँ का कहना एकदम ठीक निकला
और फागुन की एक सुबह
हमारे परिवार की उत्सुक-गहमागहमी के बीच
एक सुकुमार सदस्य और शामिल हो गया

प्रसव के बाद चंदनी को धो-पोंछ स्वच्छ किया गया
और उसे हल्दी-गुड़ तथा तेल का घोल दिया गया
बड़ी माँ ने तेल तथा कोयले को फेंट
चंदनी की योनि पर लेप लगाया
(प्रसव के बाद शायद यह एक आवश्यक चिकित्सा है)

हुँकरती-हौंकती चंदनी के पास
झपिया रही है टिकुली
और घर के बच्चे जमा हैं
इस कौतुक से
कि टिकुली शामिल हो उनके साथ
जल्दी से अब उछल-कूद में।

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