बेकारी के दिनों में | प्रदीप जिलवाने
बेकारी के दिनों में | प्रदीप जिलवाने
1 .
बहुत आसानी से
चुभ जाते हैं बोदे शब्द भी
बहुत आसानी से
उतर जाती है भीतर तक
तपते हुए सूरज की आग और
सुगलाये रखती है मन को
और देह को और आत्मा को
जिसे रात की शीतलता भी नहीं भर पाती
अक्सर लगता है जैसे
भाषा में इन दिनों बढ़ रहा है पैनापन
हर दूसरा शब्द चुभोता है आर* जैसे
* बैलगाड़ी में बैलों को हाँकने के लिए जिस डंडे का प्रयोग किया जाता है , उस डंडे में एक नुकीली कील लगाई जाती है , जिसे इधर स्थानीय भाषा ‘ निमाड़ी ‘ में आर कहते हैं।
2 .
अंततः मैं उन बेढंगी और
घिसी हुई चप्पलों के लिए कलप रहा हूँ
जिन्हें किसी बेशक्ल और थोड़े भले समय में
कहीं छोड़ नहीं पाया या
अपने ही आप वे कहीं गुम नहीं हो गई जबकि
मैं भी शिद्दत से चाहता था कि
वे अपने मन-मुआफिक कोई और पैर तलाश लें
किसी भूल-गलती से
हालाँकि कलपने को
मेरे पास और भी वाजिब वजहें थीं और हैं
और यह भी जानता हूँ कि
हल्की-पतली कैसी भी
मेरे पैरों को फिर मिल जाएँगी
नई चप्पलें थोड़ी बहुत डाँट-डपट के बाद
मगर हाल-फिलहाल
उन खोए हुए चप्पलों के लिए
शायद मेरे पास कुछ ज्यादा ही आँसू सुरक्षित हैं
अब मैं इनका क्या करता ?
3.
बहुत कुछ
बहुत कुछ जिसे हम अपने लायक नहीं समझते थे
या समझते रहे
या ऐसा ही कोई भ्रम पाले रहे
अंततः हारकर या मन मारकर
किसी गुप्त समझौते साथ
जब उसके लिए भी आगे आए
तब किसी निर्लज्ज क्रूरता के साथ
हमारे सामने यह सच भी उद्घाटित होना था
और हुआ कि
जिसे कभी हमने अपने लायक नहीं समझा
हम तो उसके लायक भी नहीं।
4 .
हमें धरती से ही नहीं
आसमान से भी शिकायतें बहुत हैं
यहाँ तक कि हमारी शिकायतों की फेहरिस्त
आसमान जितनी ही लंबी हो सकती है
बावजूद इसके हमारे भीतर इतना नमक बचा है अभी
कि हम आसमान पर थूकने जैसी कोई मूर्खता नहीं करते
हमें अँधेरे से ही नहीं
रोशनी से भी मुश्किलें बहुत हैं
अँधेरा तो कई दफा
हमें अपने घर लौटा लाया है सुरक्षित
जबकि उजाला हमें
रोज बताता है आत्महत्या के दर्जन भर तरीके
हमें झूठ से उतनी नहीं
सच से जितनी परेशानियाँ हैं
क्योंकि हमारा सच, हमारा होकर भी हमारा नहीं है
और हमें किसी रोशनी से मुखातिब नहीं करता
जबकि झूठ के आईने में हमें उम्मीदें नजर आती हैं
और यही उम्मीदें तो हमें भ्रम देती हैं कि
हम इस देश के लिए
महज भीड़ का हिस्सा नहीं बचे हैं अभी