कृष्ण ! निशिदिन घुल रहा है
सूर्यतनया में जहर।
बाँसुरी की धुन नहीं है,
भ्रमर की गुन-गुन नहीं है,
कंस के व्यामोह में
पागल हुआ सारा शहर।
पूतना का मन हरा है,
दुग्ध, दधि में विष भरा है,
प्रदूषण के पक्ष में हैं ताल,
तट, नदियाँ, नहर।
निशाचर-गण हँस रहे हैं,
अपरिचित भय डँस रहे हैं,
अब अँधेरे से घिरे हैं
सुबह, संध्या, दोपहर।
शंख में रण-स्वर भरो अब,
कष्ट वसुधा के हरो अब,
हाथ में लो चक्र,
जाएँ आततायी पग ठहर।