करिश्मे भी दिखा सकती हैं अब किताबें | चंद्रकांत देवताले
करिश्मे भी दिखा सकती हैं अब किताबें | चंद्रकांत देवताले

करिश्मे भी दिखा सकती हैं अब किताबें | चंद्रकांत देवताले

करिश्मे भी दिखा सकती हैं अब किताबें | चंद्रकांत देवताले

औद्योगिक मेले के बाद अब यह पुस्तकों का
मेला लगा है अपने महानगर में,
और भीड़ टूटेगी ही किताबों पर
जबकि रो रहे हैं बरसों से हम, कि नहीं रहे
किताबों को चाहने वाले, कि नहीं बची अब
सम्मानित जगह दिवंगत आत्माओं के लिए घरों में

कहते हैं छूँछे शब्दों के विकट शोर-शराबे में
हाशिए पर चली गई है आवाज छपे शब्दों की
यह भी कहते हैं कि संकट में फँसे समाज और जीवन की
छिन्न-भिन्नताओं के दौर में ही
उपजती है ताकतवर आवाज जो मथाती है
धरती की पीड़ा के साथ, पर इन दिनों सुनाई नहीं देती

मजबूत और प्राणलेवा बंद दरवाजे हैं
अँधेरे के जैसे, वैसे ही रोशनी के भी
इन पर मस्तकों के धक्के मारते थे मदमस्त हाथी कभी
अब किताबें हाथी बनने से तो रहीं
पर बन सकती हैं चाबियाँ – कनखजूरे निकल कर
इनमें से हलकान कर सकते हैं मस्तिष्कों को
फूट सकती है पानी की धारा इनमें से
और हाँ! आग भी निकल सकती है
इन्हीं में है अपनी पुरानी बंद दीवार घड़ी
बमुश्किल साँस लेता हुआ
मनुष्यों का इकट्ठा चेहरा
हमारे युद्ध और छूटे हुए असबाब
हवाओं के किटकिटाते दाँतों में फँसे हमारे सपने
रोजमर्रा के जीवन में धड़कती हमारी अनंतता
और उन रास्तों का समूचा इतिहास
जिनसे गुजरते यहाँ तक आए
और हजारों सूरज की रोशनी के नीचे
धुंध और धुएँ के बिछे हुए वे रास्ते भी
भविष्य जिनकी बाट जोहता है

पता नहीं अब कौन सा पुच्छलतारा
आकाश से गुजरा
कि विचारों के गर्भ-गृह के सबसे निकट होने की
जरूरत थी जब
आदमी पेट और देह से सट गया
और अपनी प्रतिभा के चाकुओं से जख्मी करने लगा
अपनी ही आत्मा

जो पवित्र स्थानों को मंडियों में बदल सकते हैं
उनके सामने पुस्तकों-पुस्तकालयों की क्या बिसात
जहाँ पुस्तकालय थे कभी, वहाँ अब शराबघर हैं
जुए के अड्डे, जूतों-मोजों की दुकानें हैं
और जहाँ बचे हैं पुस्तकालय वहाँ बाहर
पार्किंग ठसाठस वाहनों की
जिनसे होकर किताबों तक पहुँचना लगभग असंभव है
भीतर सिर्फ आभास है पुस्तकालय होने का
और किताबें डूब रही हैं और जाहिर है कह नहीं सकतीं
‘बचाओ! बचाओ – दुनियावालो तुम्हारे
पाँव के नीचे की धरती और चट्टान खिसक रही है।’

अपने उत्तर आधुनिक ठाट-बाट के साथ
धड़ल्ले से छपती हैं फिर भी किताबें
सजी-धजी बिकती हैं थोक बाजार में गोदामों के लिए
करिश्मे भी दिखा सकती हैं अब किताबें
सर्कस का-सा भ्रम पैदा करते खड़ी हो सकती हैं
उनमें से निकल सकते हैं जेटयान, गगनचुंबी टॉवर|
कारखाने, खेल के मैदान, बगीचे, बाघ-चीते
और लकड़बग्घा हायना कहते हैं जिसे
पुस्तकें ऐसी भी जिनसे तकलीफ न हो आँखों को
खुद-ब-खुद बोलने लग जाएँ
चाहो जब तक सुनते रहो
दबा दो फिर बटन – अँधेरा और आवाज बंद हो जाए

जिन्हें अपनी पचास साला आजादी ने
नहीं छुआ अभी तक भी इतना
कि वे घुस सकें पुस्तक-मेले में
उठा लें अपने हक की रोशनी ‘कफन’, ‘गोदान’
या मुक्तिबोध के ‘अँधेरे में’ से
और वे भी जो फँसे हैं
साक्षरता-अभियान के आँकड़ों की
भूल-भुलैया में नहीं जानते
कि करोड़ों के नसीब के भक्कास अँधेरे
और गूँगेपन के खिलाफ कितना ताकतवर गुस्सा
छिपा है किताबों के शब्दों में
और दूसरे घटिया तमाशों के लिए हजारों के
टिकट बेचने-खरीदने वालों की जिंदगी में
चमकते ब्रांडों के बीच गर होती जगह थोड़ी-सी
सही किताबों के लिए
तो वे खुद देख लेते छलनाओं की भितरघात से
हुआ फ्रेक्चर
घटिया गिरहकट किताबों के हमले से
जख्मी छायाओं की चीख सुन लेते
अपने फायदे या जीवन की चिंता की
जिस सीढ़ी पर होंगे जो
खरीदेंगे-ढूँढ़ेंगे वैसी ही रसद अपने लिए
सफलता और धन कमाने
और दुनिया को जीतने के रहस्यों के बाद
अंग्रेजी सीखने और इसका ज्ञान बढ़ाने वाली
किताबों पर टूटेगी भीड़
इन्हीं पुस्तकों में छिपा होगा कहीं न कहीं
अपनी आबादी और मातृभाषा को
विस्मृत करने का अदृश्य पाठ
फिर प्रतियोगी परीक्षाएँ, साज-सज्जा
स्वास्थ्य, सुंदरता, सैक्स, व्यंजन पकाने की
विधियाँ, कंप्यूटर से राष्ट्रोत्थान
धार्मिक खुराकों से मोक्ष और फूहड़ मनोरंजन
टाइम पास-जैसी किताबों के बाद भी
बचेगी लंबी फेहरिस्त जो होगी
क्रिकेट, खेलकूद, बागवानी, बोनसाई,
अदरक, प्याज, लहसुन, नीम इत्यादि-इत्यादि के
बारे में रहस्यों को खोलने वाली
बीच में होगा आकर्षक बगीचा बच्चों के लिए
चमकती, बजती, महकती और बोलती पुस्तकों का
मुट्ठी भर बच्चे ही चुन पाएँगे जिसमें से
और जो बाहर रह जाएँगे असंख्य
उनके लिए सिसकती पड़ी रहेंगी
चरित्र-निर्माण की पोथियाँ

और अंतिम सीढ़ी पर प्रतीक्षा करते रहेंगे
दिवंगत-जीवित कवि, कथाकार, विचारक
वहाँ भी होंगे चाहे संख्या में बहुत कम
जिनके लिए सिर्फ संघर्ष है आज का सत्य
इन्हें जो लिखेंगे क्या वे ही पढ़ेंगे?
कहेंगे जो वे ही सुनेंगे?
और जिनके लिए जीवन के महासागर से
भरी गई विराट मशकें
साँसों की धमन भट्टी से दहकाए शब्द
क्या वे कभी जान पाएँगे कब जान पाएँगे
कि उनका भी घर है भाषा के भीतर!!

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