कुटैव | आत्माराम शर्मा
कुटैव | आत्माराम शर्मा

कुटैव | आत्माराम शर्मा

कुटैव | आत्माराम शर्मा

गली के सिरे पर था
उसका मकान
खुली हो खिड़की
चाहता था मन सदा

यदा-कदा ही खुलते उसके पट
सोचती थी मैं
न होते खिड़की में पल्ले
कितना अच्छा होता

माँ ताड़ लेती
गली पार करते पाँव
कहाँ थमने मचलेंगे
कहाँ घूमेगा सिर

माँ की ऑंखें
कह जातीं बहुत कुछ
मेरी ऑंखों में
बाप की नाक तिर जाती

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *