अंधकार | अरुण कमल
अंधकार | अरुण कमल
मैं आदी हो गया था उस खिड़की का
जो थोड़ी दूर पर सामने खुलती थी रोज
रात के करीब आठ बजे सातवीं या आठवीं मंजिल पर
और नग सी रोशनी ठहर जाती थी वहाँ –
एक स्त्री आती और दोनों हाथ खिड़की की चौखट पर
रख केहुनियाँ निकाले
खड़ी रहती कुछ देर रोशनी छेंकती
और फिर बच जाती केवल रोशनी
आज भी आठ बजा
नौ
ग्यारह
बस अंधकार था वहाँ
सातवीं या आठवीं मंजिल पर थोड़ी दूर
अंधकार