एक नन्ही-सी धोबिन (चिरैया)
ek nanhi, एक नन्ही-सी धोबिन (चिरैया) | अनामिका

एक नन्ही-सी धोबिन (चिरैया) | अनामिका

एक नन्ही-सी धोबिन (चिरैया) | अनामिका

(गुरु धोबी सिख कापरा, साबुन सिरजनहार)

दुनिया के तुड़े-मुड़े सपनों पर, देखो
कैसे वह चला रही है
लाल, गरम इस्तिरी!
जब इस शहर में नई आई थी –
लगता था, ढूँढ़ रही है भाषा ऐसी
जिससे मिट जाएँगी सब सलवटें दुनिया की!
ठेले पर लिए आयरन घूमा करती थी
चुपचाप
                   सारे मुहल्ले में।
आती वह चार बजे
जब सूरज
हाथ बाँधकर
टेक लेता सर
अपनी जंगाई हुई-सी
उस रिवॉल्विंग कुर्सी पर
और धूप लगने लगती
एक इत्ता-सा फुँदना –
लड़की की लंबी परांदी का !
                   कई बरस
                   हमारी भाषा के मलबे में ढूँढ़ा –
                   उसके मतलब का
                   कोई शब्द नहीं मिला।
चुपचाप सोचती रही देर तक,
लगा उसे –
इस्तिरी का यह
अधसुलगा कोयला ही हो शायद
शब्द उसके काम का !
जिसको वह नील में डुबाकर लिखती है
नंबर कपड़ों के –
वही फिटकिरी उसकी भाषा का नमक बनी !
लेकर उजास और खुशबू
मुल्तानी मिट्टी और साबुन की बट्टी से,
मजबूती पाटे से
धार और विस्तार
अलगनी से
उसने
एक नई भाषा गढी !
धो रही है
देखो कैसे लगन और जतन से
दुनिया के सब दाग-धब्बे !
इसके उस ठेले पर
पड़ी हुई गठरी है
                 पृथ्वी !

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