चिट्ठी | नीरज पांडेय
चिट्ठी | नीरज पांडेय

चिट्ठी | नीरज पांडेय

चिट्ठी | नीरज पांडेय

हर उस चिट्ठी को 
जो परदेश से आती थी 
उसके पसीने की महक लेकर 
हाल चाल और प्यार लेकर, 
बहुत ठहि ठहि के पढ़ती थी वह 
उन आई चिट्ठियों को, 
पढ़ी लिखी नहीं थी 
लेकिन मिला मिला के पढ़ जाती पूरी चिट्ठी

“क” 
क में ऐ की मात्रा, 
“स” 
स में बड़ी ई की मात्रा 
“कैसी”, 
ह 
ह में ओ की मात्रा 
“हो”

“कैसी हो”

इतना पढ़ते ही 
लगता जैसे पूरी चिट्ठी पढ़ ली हो 
दाँतों में आँचर को खोंसते हुए कुछ लजा जाती 
अगले ही पल लजाई आँखें जल भर लेतीं 
फिर नीली चिट्ठियों के बादल 
उसे बारी बारी से भिगोते 
और कायदे से रोने भी न देते

हर महीने आती चिट्ठी को 
आलपिन में टाँककर 
टाँग देती ओसार के कोने वाले बाँस में 
जब हवाएँ मसखरी करतीं 
तो चिट्ठियाँ फरफराने लगतीं 
इसे लगता 
कि चिट्ठियाँ गोहरा रही हैं…

ये जाती उन चिट्ठियों तक 
और कुछ देर के लिए चिट्ठियों की हो के रह जाती 
बड़ा सुकून देता उसे यह सब 
उसके लिए ये नीली रंगीन चिट्ठी भर नहीं थी 
पूरा नीला आसमान था 
जिसमें कई रंग के बादल थे 
कुछ प्यार और हाल चाल बरसाते 
कुछ दुख के छीटे मारते 
कुछ दुलार की फुहार बन बरसते 
कुछ मेहनत बनकर चीख जाते 
कुछ माटी बनकर गर्दा उड़ाते 
कुछ चिंताओं पर लेप लगाते

ताकत देती थीं चिट्ठियाँ उसको 
जब भी खाली पाती 
बैठ जाती पढ़ने,

नीली चिट्ठियों के बादल 
उसे बारी बारी से भीगोते 
और कायदे से रोने भी न देते!

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