तुम्हें दे सकती हूँ मैं | आर अनुराधा
तुम्हें दे सकती हूँ मैं | आर अनुराधा
आओ तुम्हें कुछ दूँ
खास
जो है मेरे पास
अनुभव का पिटारा
तिगुना बड़ा, विविध रंगों भरा
ज्ञान का घड़ा
हमेशा भरा, फिर भी खाली, असंतृप्त
और-और की ललक में
किसी अमृत-बूँद की प्रतीक्षा में
जिंदगी की धूप-छाँह में रहूँ साथ तुम्हारे
एक विचार की तरह
बताऊँ स्वयं स्तन परीक्षा के बारे में
कौन जान सकता है अपनी देह को
खुद से बेहतर
बाहर और भीतर से
जहाँ लज्जा-संकोच खत्म होते हैं
वहीं से शुरू होता है ज्ञान
अपने को जानने का मान
कि कैसे और क्यों कोई जहर
दवा हो जाता है
ठीक,
जैसे जहर काटता है जहर को
कोशा के भीतर पनप गए जहर को
काटता है कीमोथेरेपी का संतुलित सम्मिश्रण
ट्यूमर के लिए ठीक उपयुक्त
और जलाने वाली मशीन
सीने को जलाकर भी
बचा देती है जान को
देती है मौका जीने का
बाकी शरीर को
बताऊँ इनके बुरे असर
और बचने-साधने के नुस्खे
निजी और डॉक्टरी
बताऊँ सर्जरी से जल्द उबरने के उपाय
मगर उससे पहले बताऊँ
कि क्यों काट देगी सर्जरी उस हिस्से को
जिसे किसी पुरुष या दुधमुँहे के लिए
बचाए रखने की कीमत है – एक जान
तुम्हारी जान
और बताऊँ आगे का जीवन कैसे चले बेहतर
सेहत भी और जीने की शिद्दत भी
बनी रहे थोड़े-बहुत हेर-फेर से
पर अगर दर्द पूछोगी
तो नहीं बता पाऊँगी
क्योंकि हर एक के लिए
उसकी जुबान अलग है
उसकी भाषा को हर देह
अपनी तरह से
समझती है / संवाद करती है
झगड़ती-निबटती है
या समझौते करती है
कैंसर के बाद दूसरी जिंदगी के लिए
कुछ प्रेरणाएँ-उछाहनाएँ
कि नहीं लौटना उस लीक पर
जिसमें तुम्हारे लिए गड्ढे और धूल हैं
पैदल रास्तों पर पाँवों को सुरक्षा तक नहीं
जहाँ सब चलते हों पालकी पर
तुम अगर न पा सको पालकी तो
रचो अपना खटोला
मजबूत सुरक्षित
जो चले तुम्हारे कहे मुताबिक, तुम्हारी रफ्तार से
जरूरी कतई नहीं कि रास्ता वही
धूल-गड्ढ़ों भरा हो
अपना खटोला / अपना रास्ता
गढ़ना कुछ कठिन नहीं
उसके लिए
जिसके हाथ है पीढ़ियों की रचना