युद्ध विराम | प्रेमशंकर मिश्र
युद्ध विराम | प्रेमशंकर मिश्र

युद्ध विराम | प्रेमशंकर मिश्र

युद्ध विराम | प्रेमशंकर मिश्र

इधर कुद हफ्तों से
एक अजीब सी घुटन
साँसों को घेरे हुए है
लगता है
अंदर की सारी बेचैनी
सारी गैस
जैसे नली में ही घूमकर रह जाती है।

जन जागरण केंद्र
सड़क, बाजार, दफ्तर
और विधान-सभाएँ
सभी
सायरन की साया में
लुक छिप कर
आग और बर्फ का
संघर्ष देख रही हैं
और
देख रही हैं
इतिहास की चलती कलमों का
एकाएक

वर्तमान की चट्टानों से टकराना।

हवाओं का रुख
कुछ ऐसा बदला है
कि दो पहाड़ों के बीच
युगों में सुरक्षित
रूप रस गंध की
अकेली घाटी
पर्त दर पर्त
क्रम से जमी
बर्फों के बीच पड़ी
तहजीब और परिपाटी
धीरे-धीरे
पिघलकर
|धाराओं के फूटने के बजाए
धुआँ होकर
हमें घेर रही है।

पूरी टेबुल पर बिखरे
प्रगति विकास के ग्राफ
गोष्ठियों की रिपोर्ट
सोख्ता पैड़ पर उभरी
बेतरतीब उलझी
उल्‍टी लिपियों पर
युद्धस्‍थल के नक्‍शे हैं।

खिड़की के बार
भूखी नंगी जर्जर
पसलियों की खड़खड़ाहट
छतों से गुजरी
अभी-अभी की घड़घड़ाहट
में खो गई है।
सरकारी दुकानदार और जनता
सबकी निगाहें ऊपर

कान रेडियों पर अटके हैं
कार्ड की यूनिटें
साहब की मोटी तनख्वाह
सेठ की मुनाफाखोरी
आज
कहीं कोई कुछ नहीं जोहता
सब
एक दूसरे से
जैसे संतुष्‍ट हैं।

सोचता हूँ
कितनी आवश्‍यक
और अनिर्वाय हो जाती है
ऐसी स्थिति भी
कभी-कभी
जब
अपने आप
हर छोटे बड़े क्षितिज
सिमटकर
हर दूसरे से मिल जाते हैं
समूची धती का
एक बड़ा सा अनंत आकाश
खुद-बखुद बन जाता है।
दिशाओं से
एक ही जन गन मन
बिना किसी सरकुलर के
प्रतिध्‍वनित होने लगता है
बिल्‍कुल अपने आप।

कितनी निश्‍चित
सर्वभौम और चिरंतन होती है
युद्ध की
यह सक्रिय प्रतिबद्धता।

नहीं तो
सीमाओं का यह तथाकथित सवाल
यह समस्‍या
जब भी कभी
ग्‍लोब के किसी सुदूर कोने
पर भी उभरी है
नजकत और नफासत के
गुलमर्ग और शालीमार
जब-जब अफीमी आँखों में चुभे हैं
इसी तरह
गोरी ति‍तलियाँ
काली बनी हैं
ऋषियों ने फावड़ा
कवियों ने मैदान
और
विचारकों ने राइफलें संभाली हैं।
कागज, कलम, दवात
फिलहाल
सब स्‍थगित।
सवाल
धरती के कुछेक वर्गमील से हटकर
पूरी परिधि को
घेर लेता है।

परिधि
जो इंसानियत और हैवानियत
जिंदगी और मौत
के बीच लछिमन रेखा है।
फैलती हुई परिधि
जिसके पूर्वाद्ध पर टिके हैं
बुद्ध, ईसा, सुकरात
गांधी, नेहरू, आजाद
और उत्‍तराद्ध को घेरते चले आ रहे हैं
चंद्रगुप्‍त, अशोक, कनिष्‍क, बलबन

अकबर, शेरवानी, उस्‍मान और हमीद
आज की भाषा में
चाहें तो कह लें शहीद।

क्षण पर क्षण
बदलती हुई
इस अशांत और अनिश्चित
विराम की स्थिति में
बूटें और जुर्राबें
पावों से लिपटी हैं
पलकों ने आपस में मिलना
बंद कर रखा है।

यह एक शुभ लक्षण है
अडिग अजेय हिमालय के
उस महासंकल्‍प का
जिसके सुनहरे – अखंड सूरज को
समझौता का
कोई मोटा पतला कुहरा
हरगिज-हरगिज नहीं काट सकता।
खुरासन के बादाम
ल्‍हासा के बाजारों में
बिना रोक टोक बिकें
अमरनाथ के कबूतर
सरोवर के हँस
निर्भय होकर टिकें
झुलसी क्‍यारियाँ
चाहे जितनी रक्‍त सोखें
पर
केसर की कलियाँ
बेरोक टोक
उगें पनपें
दुनिया में फैली दुर्गंध

एक बार फिर से
दूर हो, दूर हो।

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