युद्ध के खिलाफ एक कविता | फ़िरोज़ ख़ान
युद्ध के खिलाफ एक कविता | फ़िरोज़ ख़ान

युद्ध के खिलाफ एक कविता | फ़िरोज़ ख़ान

युद्ध के खिलाफ एक कविता | फ़िरोज़ ख़ान

भले मुझे निष्कासित कर दो
इस मुल्क, इस दुनिया-जहान से
लेकिन मैं एक अपराध करना चाहता हूँ
मैं चाहता हूँ
बगैर हथियारों वाली एक दुनिया

मैं चाहता हूँ
हजरत नूह की तरह मैं भी एक नाव बनाऊँ
दुनिया के तमाम हथियार भर दूँ उसमें
और बहा दूँ किसी बरमूड़ा ट्राइंगल की जानिब

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मैं बेदखल कर देना चाहता हूँ
दुनियाभर की तमाम पुलिस फोर्स को
छीन लेना चाहता हूँ फौजियों के मेडल
जो सरहदों पर किन्हीं के खून का हिसाब हैं
मैं सरहदों को मिटा देना चाहता हूँ
या कि वहाँ बिठा देना चाहता हूँ
फौजियों की जगह दीवानों को
मीरा को, सूर, कबीर, खुसरो, फरीद, मीर, गालिब, फैज, जालिब और निदा को

इतिहास की किताबों से पोंछ देना चाहता हूँ
जीत की गाथाएँ
हार की बेचैनियाँ
ध्वस्त कर देना चाहता हूँ
किलों, महलों में टँके जंग के प्रतीक चिह्न
संग्रहालयों में रखे हथियारों की जगह रख देना चाहता हूँ
दुनियाभर के प्रेमपत्र

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मैं लौट जाना चाहता हूँ हजारों साल पीछे
और मिटा देना चाहता हूँ
तमाम धर्मग्रंथों से युद्ध के किस्से
छीन लेना चाहता हूँ राम के हाथ से धनुष
राजाओं, शहंशाहों के हाथ से तलवार
मिटा देना चाहता हूँ
कर्बला की इबारत
मैं कुरुक्षेत्र, कर्बला और तमाम युद्धस्थलों को लिख देना चाहता हूँ
खेल के मैदान

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मैं कविताओं से सोख लेना चाहता हूँ वीर रस
एक कप चाय के बदले सूरज की तपिश को दे देना चाहता हूँ
तमाम डिक्शनरियों के हिंसक शब्द
हिंसा के खिलाफ कहे और लिखे गए मैं अपने हिंसक शब्दों के लिए माफी चाहता हूँ

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