ये वृक्षों में उगे परिंदे | माखनलाल चतुर्वेदी
ये वृक्षों में उगे परिंदे | माखनलाल चतुर्वेदी

ये वृक्षों में उगे परिंदे | माखनलाल चतुर्वेदी

ये वृक्षों में उगे परिंदे | माखनलाल चतुर्वेदी

ये वृक्षों में उगे परिंदे 
पंखुड़ि-पंखुड़ि पंख लिए 
अग जग में अपनी सुगंध का 
दूर-पास विस्तार किए।

झाँक रहे हैं नभ में किसको 
फिर अनगिनती पाँखों से 
जो न झाँक पाया संसृति-पथ 
कोटि-कोटि निज आँखों से।

श्याम धरा, हरि पीली डाली 
हरी मूठ कस डाली 
कली-कली बेचैन हो गई 
झाँक उठी क्या लाली!

आकर्षण को छोड़ उठे ये 
नभ के हरे प्रवासी 
सूर्य-किरण सहलाने दौड़ी 
हवा हो गई दासी।

बाँध दिए ये मुकुट कली मिस 
कहा – धन्य हो यात्री! 
धन्य डाल नत गात्री। 
पर होनी सुनती थी चुप-चुप 
विधि-विधान का लेखा! 
उसका ही था फूल 
हरी थी, उसी भूमि की रेखा।

धूल-धूल हो गया फूल 
गिर गए इरादे भू पर 
युद्ध समाप्त, प्रकृति के ये 
गिर आए प्यादे भू पर।

हो कल्याण गगन पर – 
मन पर हो, मधुवाही गंध 
हरी-हरी ऊँचे उठने की 
बढ़ती रहे सुगंध!

पर जमीन पर पैर रहेंगे 
प्राप्ति रहेगी भू पर 
ऊपर होगी कीर्ति-कलापिनि 
मूर्त्ति रहेगी भू पर।।

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