छोटी-छोटी ये बातें जरा-जरा सी छुअन,
वही मेरे अंतर में रचे रँगे फागुन…

मेरे चित में नित नृत्य ये नाचे कोई,
ता ता थेई थेई, ता ता थेई थेई, ता ता थेई थेई…

हो तुम जानी पहचानी मेरी ओ हो विदेशिनी,
तुम सागर पार रहती हो, ओ हो विदेशिनी…

सुबह से पाखी को मालूम नहीं क्या हुआ था, एक के बाद एक मंजरी से सुने गीत गाए जा रही थी। एक गीत पूरा होता नहीं कि दूसरा उसके मुँह से निकलने के लिए छटपटाने लगता। सारे गीत एक साथ गाने की ऐसी प्रबल इच्छा, इतना धैर्य भी नहीं कि गीतों के सुर-ताल गड़बड़ा रहे हैं। मम्मी दो बार टोक चुकी, गा रही हो या कविता पाठ कर रही हो। मम्मी की बात सुन पाखी धीरे से बोली, “क्या करूँ? सभी गीत एक साथ याद आ रहे हैं और सभी अच्छे हैं। एक को गाती हूँ तो दूसरा मचल उठता है। कहता है मुझे भी गाओ।”

गीत गाना उसी तरह जारी रख पाखी सिफोन की एक सफेद चुन्नी को प्लास्टिक के पैकेट में ठूँस मटकते हुए रंगरेज के यहाँ जाने को घर से निकल पड़ी।

कल ही उसकी बी.ए. की फाइनल परीक्षा खत्म हुई थी। परीक्षा हॉल में अंतिम पर्चा लिखते हुए पाखी ने मन ही मन तय कर लिया था कि तीन दिन बाद रविवार को वह गुलाबी रंग की सलवार-कमीज पहनेगी जिस पर लाल रेशम की कढ़ाई की हुई है।

पैदल चलते हुए यदु बाबू बाजार और गाँजा-पार्क के बीच उसने देखा – आकाश में रंग-बिरंगी चुन्नियाँ फरफरा रही हैं। तेज हवा से फिसलती, चंगुल से भाग निकलने को मचलती, हमजोली से हँसी-मसखरी करती, पूरे वातावरण को रंगीन बनाती, मानो, जीवन मनुष्य से सरक इनमें समा गया है।

कड़ाके की गर्मी हो या पुलकाने वाली बसंत ऋतु, भिगो डुबो देने वाली बारिश हो या काँपने-ठिठुराने वाली सर्दी, ये तो रँगी जाती हैं, टाँगी जाती हैं। टाँगता है भरे बदन, गोल मुँह और ऊँचे कद वाला पप्पू। पंजाबी में कुछ बोलते हुए थका, लस्त-पस्त वह लकड़ी के डंडे से ऊपर टाँग देता है, उन नारियल की रस्सियों पर जो आसपास के बड़े-बड़े लंबे पेड़ों की गर्दनों से बाँध दी गई हैं। रस्सियों पर पड़ते ही चुन्नियाँ यह सोच-सोच इतराती हैं, खिलखिलाती हैं कि उतर कर सजना है कोमल सुकुमार किशोरियों के अंग पर। गर्व से चुन्नियों का रंग दमकने लगता है तब जब वे सजती हैं किशोरियों की छाती पर, नई-नई बेलें। प्यारी-दुलारी कुड़ियाँ, अबोध गति से बहता इनका जीवन, जी जुड़ जाता है इनकी भोली आँखों को देखकर; प्रेम का प्रवाह उमड़ता है इनमें। जिससे दो मीठे बोल सुनती हैं उसी की हो जाती हैं, गंगा-सी निश्छल; पहनने ओढ़ने का ऐसा चाव कि एक उम्र कम। पहनना, दिखलाना, शर्माना, इतराना तू-तू, मैं-मैं इस बात पर कि तुमसे मैं हूँ क्या कम सुंदर।

उदास तो ये चुन्नियाँ तब होती हैं जब इन्हें पता चलता है कि किशोरियों के लिए नहीं, पके बाल और पोपले मुँहवालियों के लिए रंगी जा रही हैं – किसी की अम्मी के लिए, दादी और नानी के लिए। आजकल खिजाब लगाए पके बालवालियाँ किशोरियाँ बन भीड़ में उमड़ती हैं। पर क्या चुन्नियों से कुछ भी छुपा है।

खिजाबवालियों का सँभालकर पहनना, सँभालकर रखना इन चुन्नियों को नहीं भाता। इनको तो कम उम्रवालियों की लापरवाही ही रुचती है और रुचता है उनका अल्हड़पन।

पाखी गली के मुहाने पर बैठे तीनों रंगरेजों के गुमटीनुमा अड्डे पर आ गई। तीन जगह, तीन कोनों पर, तीन भट्टियाँ सुलग रही थीं। सभी पर अल्युमीनियम का बर्तन चढ़ा हुआ था जिसमें रंगीन पानी खदबदा रहा था। भट्टी के पास पानी से लबालब भरा हुआ एक ड्रम पड़ा था। पानी के अंदर एक डिब्बा कमंडल के आकार में काटा हुआ डूबा पड़ा था। ड्रम से दो कदम के फासले पर दो-दो, तीन-तीन लड़कियों और औरतों का समूह था। सभी के हाथ में कुछ न कुछ था। किसी के हाथ में चुन्नी, किसी के में साड़ी, तो किसी के में सलवार-कमीज। कुछ के चेहरों पर नाराजगी थी। कुछ पर थकान और परेशानी से पैदा हुई खीझ। एक औरत झुँझला रही थी, “कल भी आई, आज भी। अभी तक तुमने मेरी साड़ी नहीं रंगी। रोज कहते हो कल ले जाना। पता नहीं तुम्हारा कल कब आएगा। आज तो मैं लेकर ही जाऊँगी।”

एक महिला चिरौरी कर रही थी, “गोल्डी, पहले मेरी रंग दे। मेरी लड़की की चुन्नी है रंग दे भइया। शाम को उसे अपने दूल्हे के साथ घूमने जाना है।” तभी गाड़ी का हॉर्न बजा, पप्पू की नजर हॉर्न की दिशा में घूमी। सफेद रंग की मारुती-800 में सामने दो लड़कियाँ बैठी थीं। खिड़की से चार-पाँच चुन्नियाँ बढ़ाकर पप्पू को इशारे से बुलाने लगीं। पप्पू भागकर गया तो उसे समझाने लगीं – इसे पिंक और व्हाइट करना है, इसे लेमन यैलो, इसे पर्पल और इसे रेड। यह सेंपल है। कल पार्टी है। प्लीज रेडी रखना। लौटाना मत। हॉर्न बजाती हुई गाड़ी निकल गई। एक सरदार जी, “पप्पू, यह पगड़ी रँग दे। मैं यहीं खड़ा हूँ। जल्दी करके अभी दे। घर पर सुखा लूँगा।”

पप्पू चिल्लाया, “ऐ गोल्डी, इधर आ। इसे जल्दी उस भट्टी पर रंग दे। सरदारजी खड़े हैं।” “क्यों पप्पू ठीक तो हो!” पप्पू चौंककर घूमा – गोरा रंग, भरा बदन, कलाई पर खूबसूरत घड़ी बाँधे खूबसूरत नौजवान खड़ा था। जींस बढ़ाकर बोला, “इसे नीला करना है। गहरा नीला रंग करके रखना कल ले जाऊँगा। ट्रेकिंग पर जा रहा हूँ। कल जरूर दे देना” फट-फट की आवाज के साथ धुआँ फेंकता, उसका स्कूटर निकल गया।

पाखी पप्पू के सामने खड़ी हो गई। खुश होकर पूछने लगी, “कल मैंने तुम्हें एक चुन्नी रंग करने के लिए भिजवाई थी बूला के हाथ। वह दे दो और यह देखो इसे गुलाबी करना है। यह मैं नमूना भी लाई हूँ बिलकुल ऐसा करना। न हल्का न गहरा। उन्नीस-बीस नहीं चलेगा। हूबहू यही रंग करके दो।” पप्पू का ध्यान कहीं और था। उसने कुछ नहीं सुना। पाखी अपनी छोटी-छोटी भोली आँखों को गुस्से में फैलाते नाक को बार-बार फुलाते और चिपकाते हुए बोली, “तुम सुन क्यों नहीं रहे! कल मैंने एक चुन्नी भिजवाई थी। लाल रंग करने कहा था। क्या तुमने उसे रँग दिया? तुम कैसे आदमी हो सुनते भी नहीं।” पाखी ने देखा पप्पू का ध्यान उस महिला पर था जो बहुत देर से कह रही थी, “मेरी साड़ी ढूँढ़ो नहीं तो पाँच सौ रुपये दो।” पप्पू उसे समझा रहा था, कह रहा हूँ ना, मिल जाएगी थोड़ी देर ठहरिए तो। इस तरह हड़बड़ाने से कैसे होगा?” उसको समझाकर पप्पू एक चुन्नी रंगने में व्यस्त हो गया।

भट्टी पर चढ़े बड़े भगौने के गर्म खदबदाते पानी को लकड़ी के डंडे से हिलाने लगा। एक तरफ झुककर प्लास्टिक के खुले दस डिब्बों में पड़े तरह-तरह के रंगों में से हरे रंग को स्टील की चम्मच से उठा खौलाते पानी में डाला फिर हाथ में थामी मार्बल-सिफोन की चुन्नी को उस रंगीन पानी में आधा डुबोया आधा बाहर पकड़े रहा। बगल में खड़ी एक महिला को बताने लगा, “आजकल आधा-आधा रंग करवाने का फैशन है। लहरिया अभी नहीं चल रहा है।” तीन-चार मिनट बाद टोपिए भगौने में डुबोई चुन्नी को निकाला। देखा, चुन्नी का आधा हिस्सा गहरे हरे रंग का हो गया है। रंगे हुए चुन्नी के छोर को उसने दो अँगुलियों से निचोड़ा फिर उस हिस्से को भट्टी की बाहरी दीवार से सटाकर चूल्हे की गर्मी में सुखाने लगा। वह हिस्सा, तुरंत सूख गया। उसे उस कपड़े से मिलाने लगा जो नमूने के तौर पर उसके पास था। रंग नमूने के कपड़े से ज्यादा गहरा हो गया था। तुरंत गर्म पानी में एक चम्मच पीला रंग डाल कर एक बार फिर पानी में चुन्नी डुबों डंडे से हिलाने लगा। पीले रंग की तरह अँगुली दिखाकर बोला, इस रंग को मैं आलू कहता हूँ, सभी रंगों में डाल दो।”

पाखी का गुस्सा बढ़ता जा रहा था। यह भी कोई तरीका है पप्पू का। कोई जवाब नहीं देता। कितनी देर से खड़ी हूँ। पाखी उस पर चिल्लानेवाली थी तभी पप्पू घूमा। पूछने लगा, “लाल रंग वाली चुन्नी के साथ एक रूमाल भेजा था नमूने के तौर पर। वह तो…” पाखी झट से बोल पड़ी, “रंगी नहीं गई। क्यों नहीं रंगी तुमने? बूला ने तुम्हें कहा था ना कि मुझे वह जल्दी चाहिए।” पाखी गुस्से में धारा-प्रवाह बोले जा रही थी तभी पप्पू ने कहा, ‘बीबी साँस तो लो, रेडी हो गई है चुन्नी।” पाखी झेंप गई। तुरंत चुप हो गई पर अब उसे इस बात पर गुस्सा आने लगा कि वह उसे बीबी क्यों बोलता है।

एक दिन उसने मम्मी से गुस्से में भुनभुनाते हुए कह दिया था, मम्मी वह बीबी-बीबी करता है। मम्मी चौंकी। पाखी को समझ में नहीं आया मम्मी क्यों चौंकी। क्या मम्मी मुझे डाँटेगी? पर किस बात पर? अचानक पाखी मम्मी को सफाई देने लगी थी, मम्मी, वह अच्छा आदमी है। बस समय से चुन्नी रँग कर नहीं देता। मम्मी कुछ और सोच रही थी। मम्मी ने पूछा, क्या तुमने उसकी स्त्री को देखा है। पाखी याद करने लगी थी।

एक बार कुछ महीनों पहले जब उसकी बैगनी रंग की चुन्नी बहुत खोजने पर भी नहीं मिल रही थी। पप्पू अपनी दुकान पर रखी सारी गठरियों और झोलों को छान चुका था। सहसा उसे कुछ याद आया और वह बोला, “बीबी, बुरा न मानना, गली में ही मेरा घर है। मेरे भतीजे गोल्डी के साथ वहाँ जाकर अपनी चुन्नी खोज लो। मैं खोजता पर देखो, यहाँ इतना काम पड़ा है, भट्टी सुलग रही है, कोयले जल कर खाक हो जाएँगे।” पाखी पप्पू की बात सुन गोल्डी के साथ गली में घुस गई थी।

पप्पू का दो छोटे-छोटे कमरों का घर था। कमरे से बाहर जो थोड़ी जगह थी वहाँ स्टोव पर कड़ाही चढ़ी हुई थी। जिसमें कोई सब्जी पक रही थी। कमरे के अंदर घुसते ही पाखी को गर्मी लगने लगी थी। लोडशेडिंग थी और उस कमरे में कोई खिड़की नहीं थी। पूरा कमरा सामान से उफन रहा था। एक चौकी पर कपड़ों का ढेर लगा हुआ था। सामने दीवार में आलमारियाँ बनी हुई थीं जिनमें स्टील के बर्तन चमक रहे थे। वहीं पर पप्पू की एक रंगीन फोटो लगी हुई थी। जिसमें उसने सफेद रंग का कुर्ता पाजामा पहन रखा था और पाँवों में जरीदार नुकीली जूतियाँ। पास के मोखे में एक टू-इन-वन रखा हुआ था, और वहीं दीवार से लगा एक बड़ा फ्रिज था जिस पर एक फोन। फ्रिज के ऊपर खाली दीवार पर गुरु गोविंद सिंह की बड़ी तसवीर टंग रही थी। छोटा सा कमरा ढेर सा सामान। कपड़ों के बीच में गद्दे पर पप्पू की पत्नी एक छोटी लड़की को अपने सामने बैठा उसके कान के पास की बालों की लट ले मीड़ियाँ बना रही थी। मीड़ियाँ बनाते-बनाते कोई कहानी भी सुना रही थी। कह रही थी, “…बस इसी कारण बकरी की कुरबानी दी जाने लगी और लोग बकरीद मनाने लगे। तुम्हारे पापा के बाबा कहते थे, बकरी की कुरबानी देना माने तेरा- मेरा छोड़ना।” कहानी पूरी होते ही लड़की उछल कर खड़ी हो गई। अपनी गुँथी चोटी को हिलाकर देखा और बाहर भाग गई।

गोल्डी बगल वाले कमरे से प्लास्टिक का बड़ा टब उठा लाया जिसमें ढेर सारी रंगीन चुन्नियाँ घुसी हुई थीं। तीनों मिलकर उसमें से पाखी की बैंगनी चुन्नी खोजने लगे।

जब मम्मी ने पूछा, क्या तुमने पप्पू की स्त्री को देखा है तो पाखी को याद आया, उसकी स्त्री सुंदर थी। उस दिन उसने हल्के पीले रंग की सलवार कमीज पहन रखी थी। कान में बड़ी-बड़ी बालियाँ। जब वे तीनों चुन्नी खोज रहे थे वह बार-बार कह रही थी, “रब दी मर्जी होगी तो मिल जाएगी।” पाखी ने मम्मी को यह सब कुछ बताया। मम्मी ने पूछा, “क्या उसका बुर्का भी कहीं लटका हुआ था?” पाखी जोर से बोली, “तुम भी कैसी बात करती हो मम्मी, वह सिंह है बुर्का क्यों पहनेगी?” मम्मी का चेहरा संजीदा था। बोली, ठीक है माना, बीबी हिंदू भी बोलते हैं पर वह बकरीद की कहानी क्यों सुना रही थी?” इस बार पाखी चौंकी पर तुरंत मम्मी को सफाई देते हुए बोली, “बच्चों को नित नई कहानी सुनने को चाहिए। अगर उन्हें कहानी सुनने को न मिले तो आफत मचा देते हैं। बस, बच्ची को सुनाने मनाने के लिए पप्पू की स्त्री किसी से सुनी बकरीद की कहानी उसे सुना रही होगी।”

पाखी यह सब याद कर रही थी तभी पप्पू बोला, “बीबी, लो अपनी चुन्नी।” लाल रंग की चुन्नी उसके सामने रख दी। पाखी मुग्ध हो चुन्नी को देखती रही। वह बहुत खुश होकर बनावटी गुस्से में बोली, “तुम बीबी बीबी क्यों बोलते हो?” पप्पू हँसने लगा, बोला, “मेरे बाबा बोला करते थे। खान थे ना!” “क्या?” पाखी चौंकी, मम्मी ने ठीक ही कहा था। पर ये लोग हिंदू क्यों हो गए। पाखी के आँखों के सामने चमेली घूम गई। संतोषपुर से आती थी।

जब पहली बार पाखी के यहाँ काम करने आई थी, मम्मी ने पूछा था, “कहाँ की हो तुम?” उसने बताया, “भागलपुर की।” पिछले महीने छठ पूजा के समय मम्मी ने चमेली से पूछा था, छट मैया की पूजा में तुम क्या करती हो? चमेली बोली, वही जो सब करते हैं। “फिर भी बताओ तो” तभी चमेली मम्मी की बात का जवाब दिए बिना यह कहते हुए जल्दी से उठ गई कि चौके में नल खुला हुआ है।

छठ पूजा आनेवाली थी मम्मी को यह अच्छी तरह मालूम था कि इन महरियों की आदत है त्यौहार पर्व का नाम ले तीन-चार दिन घर बैठने की। चमेली भी जरूर तीन चार दिन नागा मारेगी। उस समय परेशानी न हो इस कारण मम्मी ने एक दूसरी महरी लक्ष्मी को रख लिया था। लक्ष्मी को घर में देख चमेली चौंकी, परेशान हो मम्मी से पूछने लगी, “भाभीजी क्या बात है, मैं तो खूब साफ बर्तन धोती हूँ, कपड़े भी तीन बार साफ पानी में डूबाती हूँ, आपने लक्ष्मी को क्यों रखा? ठीक है महीना मत बढ़ाना,” मम्मी चमेली की बात सुन बोली, “उसे तो इन चार पाँच दिनों के लिए रखा है। छठ पूजा में तुम तो घर बैठ जाओगी। बर्तन झाड़ू-पोंछा क्या मैं करूँगी?” चमेली आँखें फाड़े मम्मी को देख रही थी,बोली, “किसने कहा आपको छठ पूजा में घर बैठ जाऊँगी।” मम्मी बोली, “कहेगी कौन, क्या मुझे नहीं पता! तुम छठ पूजा तो करती ही हो।” चमेली तपाक से बोली, “नहीं।” “क्या” मम्मी चमेली को घूरने लगी। “ऐसा कैसे हो सकता है। तुम तो बिहारी हो। बिहारी छठ मैया की पूजा नहीं करे ऐसा हो ही नहीं सकता।” चमेली घबरा गई। तुरंत सँभल कर बोली, “मेरा बड़का लड़का छठ पूजा के दिन मर गया था इसके चलते ही नहीं मनाते।”

ठीक दो दिन बाद दिन के दो बजे पाखी मम्मी की चिल्लाहट सुन चौंक कर उठी। लगा घर में कोई बिस्फोट हुआ है। भाग कर कमरे से बाहर आई। देखा मम्मी चमेली को घूर रही थी और चीखते हुए कह रही थी, “हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी इतना बड़ा झूठ बोलने की। मेरे घर को तुमने भ्रष्ट कर दिया। मेरी मति मारी गई थी कि पूजा घर तक में तुम्हें घुसा दिया था। मुझे क्या पता था कि तुम मुसलमान हो। इतना बड़ा झूठ कैसे बोला गया तुम से? कम हिम्मत नहीं है तुममें अभी तो अपना, अपने बच्चों का, सभी का नाम तक बदल लिया। पर क्या सच छुप सकता है? यह तो कोई पुण्य ही किया है मैंने कि आज पता चल गया। लक्ष्मी के रूप में कोई पितर आए हैं। सच घर के पितरों ने रक्षा कर ली। देर ही सही पता तो चल गया।

अब जाओ मेरे सामने से यहाँ रोना-धोना मत करो।” मम्मी बड़बड़ाए जा रही थी, “हवन करवाना होगा। पता नहीं क्या होने वाला था। हे भगवान! आजकल तो जाति का भी पता नहीं चलता। बहुत खराब समय आ गया है।” यह चमेली की पाँचवीं नौकरी थी जो मुसलमान होने के कारण छुटी थी।

बाप रे, मम्मी को तो पूछताछ की आदत है। उस दिन शक हुआ था पप्पू के बारे में। अगर यह पता चल गया कि इसके बाबा खान थे तो पता नहीं क्या करेगी। हो सकता है कहे, उससे रंगवाना बंद करो। शायद मम्मी ऐसा नहीं कहेगी, वह कहती है, कारीगर तो मुसलमान ही अच्छे होते हैं। बेहतरीन काम करते हैं। सिलना-बुनना देखना है तो मुसलमानों के हाथ का देखो। हो सकता है मम्मी यह कहे कि तुम मत जाया करो रंग करवाने। यह भी कह सकती है, तुम उन लोगों से बात मत किया करो। मम्मी का दिमाग समझ में नहीं आता। कब क्या कह दे। नहीं, वह मम्मी को कुछ भी नहीं बताएगी, यह सब सोचते हुए पाखी लाल चुन्नी हाथ में पकड़े खाड़ी थी तभी पप्पू बोला, “बीबी आज क्या लाई हो रंगवाने।” पाखी ने जल्दी-जल्दी सफेद रंग की चुन्नी उसके सामने बढ़ा दी, बोली “इसे गुलाबी कर दो।” पप्पू ने कहा, “ठीक है कल ले जाना।” पाखी बोली, “नहीं-नहीं, कल नहीं आज। अभी लेकर जाऊँगी। मैं खड़ी हूँ तुम कर दो।”

पाखी ने अभी देखा बहुत सारे लोग आए और ढेर सारे कपड़े पप्पू को रंगने देकर चले गए। उन कपड़ों के बीच में पाखी की चुन्नी कहाँ दबी रह जाएगी पता भी नहीं चलेगा। पाखी की बात सुन पप्पू बोला, “ठीक है बीवी, रंग देता हूँ। पर, पहले ये दो साड़ियाँ रंग दूँ।”

पाखी वहीं खड़ी हो पप्पू को रंग करते देखने लगी। वह जैसे ही पानी में कोई रंग डालता पाखी पूछती, कौन सा रंग था लाल या नीला। पाखी ने पप्पू से पूछा, “तुम रंगने का काम क्यों करते हो? तुम कोई और काम भी तो कर सकते हो।एक – एक चुन्नी के लिए रंग बनाना मिलाना कितनी मेहनत है इस काम में!”

पप्पू हँसने लगा, “किस काम में मेहनत नहीं है। यह हमारे बाप दादों का काम है। खूब जम गया है। अब देखो इस काम में इतनी कुड़ियों से बात करने का मौका भी तो मिलता है।” पाखी उसकी यह बात सुन हँस दी। वह जानती है पप्पू ऐसे ही कहता है। काम करते समय इसे फुर्सत ही कहाँ है कि बात करे। इसका स्वभाव ही ऐसा है, सबको खुश कर देता है। पप्पू बोलने लगा, “बीबी, जब किसी को अपने रंगे कपड़े पहने देखता हूँ तो सच कहूँ ऐसा जी खुश हो जाता है कि पूछो मत।”

पप्पू से दो-चार बात करने के बाद पाखी पप्पू की माँ के पास जो वहीं एक चबूतरे पर बैठी ग्राहकों से पैसे ले रही थी बैठ गई और बात करने लगी। तभी उसने दूसरे रंगरेज को भी देखा जिसने पाखी से कहा था, रंग करना सीखोगी?

पाखी ने देखा, आज भी वह दूसरा रंगरेज भूरे रंग की खाकी पेंट-शर्त पहने पाखी की तरफ पीठ कर अपना सिर खुजला रहा था।

चिलचिलाती धूप में भी वह मोटे गाढे रंग के कपड़े पहने रखता। और वह हैरान हो जाती कि कपड़ों में क्या उसका दम नहीं घुटता!

उसने अपना नाम परवेश बताया था। जब पहली बार पाखी अपनी चुन्नी रंगवाने आई थी तो परवेश के बगल में खड़े जसी को ही तो दे गई थी। जसी ने कहा था, “कल ले लीजिएगा, पर मेरा नाम जसी है जसविंदर नहीं।” ऐसा कह जसी हँसा था। पाखी को वह अच्छा लगा।

दूसरे दिन पाखी जब चुन्नी लाने गई जसी ने कहा, “रंगी नहीं गई कल ले लीजिएगा।” तीसरे दिन गई तो उसने कहा, “बारिश के कारण कर नहीं सका।” बीच के दो दिन छोड़ पाखी फिर लेने गई जसी पाखी को दूर से आता देख रफूचक्कर हो गया। पाखी परेशान हो गई। क्या उसने चुन्नियाँ खो दी। वह परवेश पर बिगड़ने लगी, “कैसे लड़के को रखा है आपने! पाँच-छह दिन हो गए मेरे अज तक मेरी चुन्नियाँ रंगी नहीं गई। मैं पागल की तरह रोज घूम रही हूँ। मुझे मेरी चुन्नियाँ वापस कर दो। रंग नहीं हुई तो भी दे दो।”

परवेश पाखी को समझाने लगा। पाखी उसकी एक बात सुनना नहीं चाहती थी, बार-बार यही कह रही थी – मुझे कुछ नहीं मालूम मुझे मेरी चीज चाहिए। परवेश पाखी को धीरज बंधा रहा था, “चिंता मत करो, कल जरूर मिल जाएगी।” किसी तरह समझा बुझाकर पाखी को शांत कर परवेश उससे बात करने लगा बोला, यहाँ बहुत लड़कियाँ आती हैं। मैंने कईयों को रंग करना सिखाया है, तुम सीखोगी?” पाखी यह बात सुनकर बहुत खुश हुई। तुरंत बोली, “हाँ, हा, क्या आप सिखाएँगे?” “क्यों नहीं सिखाऊँगा। रविवार को आ जाना। यहीं पर ग्यारह बजे।” पाखी उससे पूछने लगी, उसने कितनी लड़कियों को रंग करना सिखलाया है।

धीरे-धीरे परवेश उससे बात करने लगा। पूछने लगा, “किस क्लास में पढ़ती हो, किस कॉलेज में? बात-बात में बताने लगा – उसकी एक कविता ‘एशियन एज’ में आने वाली है। भाग कर बगल वाली दुकान में बैठे एक आदमी से एक कागज लाया, पाखी को दिखलाने लगा। देखो पढ़ो इसे। पाखी ने देखा, हिंदी के एक अखबार की कटिंग थीं। उसमे पंजाबी में एक कविता छपी हुई थी जिसके नीचे नाम लिखा था परवेश सिंह।

पाखी परवेश को ऐसी देखने लगी मानो दुनिया का कोई नया आश्चर्य देख रही हो। कबीर जुलाहा थे। भक्तिकाल में उसने पढ़ा था कि कई ऐसे कवि हुए जो नाई थे, दरजी थे। यह रंगरेज भी साहित्य के इतिहास में आने वाला है क्या? पूरे दिन यह रंगने का काम करता है, लिखता कब होगा? रात को लिखता होगा पाखी ग्लानि से भर गई। एक कवि से उसने चुन्नियों को लेकर झगड़ा किया। छिः। कैसी ओछी हरकत की उसने उस जसी के कारण। गुस्सा तो उसी पर आ रहा था उतार डाला इन पर। अब पाखी परवेश को तुम से आप कहने लगी, आदर भरी निगाह से देखती रही।

अचानक उसे होश आया, बात करते-करते बहुत देर हो गई है। घर पहुँचते ही मम्मी पचास सवाल करेगी। अब उसे जल्दी घर लौट जाना चाहिए। पर परवेश चुप ही नहीं हो रहा था। किसी तरह पाखी ने घड़ी देखते हुए उसे यह जताने की कोशिश की कि उसे देर हो रही है, बोली, “जसी से कहिएगा, कल मेरी चुन्नियाँ मुझे जरूर दे दे। अब मैं चलती हूँ।” पाखी की यह बात सुनते ही परवेश भड़क उठा, “पूरी बात भी नहीं सुनती, बीच में टोका-टोकी, समझ में नहीं आता।” व्हाई यू पीपल आर आलवेज इन हरी?” पाखी डर गई फिर सँभल गई कि सचमुच कवि हैं?

परवेश पाखी को कहने लगा, “मैंने धर्म पर एक पुस्तक लिखी है। छपेगी तो तुम्हें दूँगा।” आँखों के नीचे गहरे काले गड्ढे, सिलवटों से भरे माथे वाले काले रंग के परवेश को पाखी देखती रही। सोचने लगी, शायद इनका रंगने का काम ठीक नहीं चलता। खाना ठीक से नहीं खाते। पाखी के दिमाग में हिंदी की परीक्षा में लिखे गए प्रश्नों के उत्तर की तर्ज पर कई-कई बातें घूमने लगी, ‘यह कैसा समाज है जहाँ लेखकों कवियों, कलाकारों का कोई सम्मान नहीं; जहाँ प्रतिभाशाली लोग अपना कीमती समय रोजमर्रा की जरूरत को पूरी करने में गवाँ देते हैं; यह कैसा समाज है जहाँ की सरकार इनका जीवन स्तर ऊपर उठाने के लिए कुछ नहीं करती; जब ये कवि, लेखकगण मर जाते हैं तो इनके नाम पर सड़कों के नाम रख दिए जाते हैं पर जब ये जीवित रहते हैं अभावपूर्ण जीवन जीते हैं। यह बिडंबना है इस समाज की।’

पाखी की सहेली मंजरी ने उसे एक नुस्खा दिया था, जब कभी किसी भी प्रश्न का उत्तर लिखना हो तो इस तरह लिखा करो, यह कैसा समाज है, बिडंबना है, दोहरे मानदंड हैं, विरोधाभास है, विद्रूपताएँ हैं – इस तरह के शब्द बीच-बीच में डाल दोगी तो नंबर अच्छे मिलेंगे। मंजरी कहती थी, व्यवस्था की बुराई खूब किया करो क्योंकि मैं जो भी पढ़ती हूँ उसमे यह बुरा है, वह बुरा है, वही पाती हूँ। इसलिए ऐसा लिखोगी तो नंबर मिलेंगे। पाखी उस दिन परवेश से मिलकर उसकी पीड़ा को गहराई से समझकर भारी मन से घर आ गई थी।

घर आते ही उसने मम्मी को सारी बाते बताई, कहा, “उन्होंने कहा है कि मुझे रंग करना सिखाएँगे।” मम्मी ने पाखी की बात सुन कोई उत्साह नहीं दिखाया। बोली, “मुफ्त में क्या कोई किसी को सिखाता है भला।” “पर मम्मी, वह कवि हैं,” पाखी ने मम्मी को समझाने की कोशिश की। पाखी का मन यह सोचकर खराब हो गया कि पता नहीं मम्मी उनको महत्व क्यों नहीं दे रही हैं। अगले दिन पाखी जसी से अपनी चुन्नियाँ लाने गई तो उसने देखा, परवेश वहाँ नहीं था। पूछने पर पता चला वह कलकत्ते में नहीं हैं। पाखी ने जसी को बताया कि उन्होंने कहा कल रविबार को वह उसे वह रंग करना सिखाएँगे। जसी जोर-जोर से हँसने लगा। बोला, “अच्छा आप से भी कहा है? वह सभी लड़कियों को ऐसा कहता है।” पाखी को झटका लगा। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि परवेश ने जो कहा था वह ऐसे ही कहा था। झूठ कहते हुए आदमी का चेहरा बदल जाता है। आवाज भी लड़खड़ा जाती है ऐसा वह अपने अनुभव से जानती है। उसे जसी की बात पर यकीन नहीं हुआ। बस, वह इतना जानती है कि उस दिन परवेश ने जो कहा, सच कहा था, पर यह भी तो सच है कि वह कलकत्ते में नहीं है पाखी को कुछ समझ में नहीं आया।

आज जब पाखी पप्पू की माँ के पास बैठी उसे देखने लगी थी तो वह उसकी तरफ पीठ करके खड़ा हो गया।

पप्पू की माँ पाखी से बात करने लगी। उसने पूछा, “आप लोग कहाँ की हैं?” पाखी तपाक से बोली, “राजस्थान की। मेरा नाम पाखी अग्रवाल है।” पाखी को पप्पू की माँ पड़ोस में रहनेवाली राजू की दादी सी लगी। राजू की दादी पाखी को बहुत अच्छी लगती है। पाखी ने धीरे से पप्पू की माँ से पूछा, “मैं आपको दादी कहूँ?” पप्पू की माँ हँसने लगी, बोली, “हाँ, हाँ।” यह सुनते ही पाखी पप्पू की माँ को आप न कह तुम कहने लगी। निमिष में ही पाखी उससे ऐसे बोलने जताने लगी जैसे वह उसकी अपनी दादी हो। पूछने लगी, “वह जो खड़ा है परवेश क्या तुमने उसकी किताब देखी है। चारों धर्म पर उसने लिखा है।” पप्पू की माँ हँसने लगी। पाखी थोड़ा रुककर फिर बोली, “उसने मुझे अपनी एक कविता दिखलाई थी जो किसी हिंदी अखबार में छपी थी।” पप्पू की माँ बोली, “हाँ, वह अँग्रेजी में भी लिखता है।” पप्पू की माँ पाखी से बोली, “वह एक फिल्म बना रहा था। पप्पू को पकड़कर विक्टोरिया ले गया था। खुले मैदान में कुर्सी-टेबल रख स्कूल का प्रधानाध्यापक बन बैठा हुआ था। प्रधानाध्यापक भी वही। मैनेजर भी वही, दरबान भी वही। तो छात्र का पिता भी वही, “अच्छा।” पाखी चौंकी पूछने लगी, “नाम क्या रखा था फिल्म का।” पप्पू की माँ ने बिना किसी उत्साह के बताया, “पैसो का करिश्मा” अचानक पप्पू की माँ गुस्से में बोलने लगी, “एकदम पागल है। कितने पैसे खो दिए इन चक्करों में। यह भी नहीं समझता कि लोग उसे पागल कहेंगे। आदमी भला है पर कौन समझेगा। सब तो यही कहते हैं पेंच ढीला है इसका।”

अचानक पप्पू की माँ चुप हो गई। ग्राहकों से पैसे लेने में व्यस्त हो गई। पप्पू की माँ भी पप्पू की तरह ज्यादा बात नहीं कर पाती। कोई न कोई आकर सामने खड़ा हो जाता, हिसाब के पैसे देने लगता बचे माँगने लगता। पाखी इधर-उधर देखने लगी। पप्पू की माँ को ग्राहकों में बहुत व्यस्त देख पाखी वही गीत गाने लगी जो घर से निकलने के पहले गा रही थी –

हो तुम अपनी पहचानी मेरी ओ हो विदेशिनी
तुम सागर पार रहती हो ओ हो विदेशिनी।

पप्पू की माँ पाखी की तरफ घूमी, “तुमने लिखा है यह गीत?” “अरे नहीं दादी। यह तो रवींद्र संगीत है। मंजरी का मंगेतर आजकल उसे सुनाता रहता है।”

“मंजरी! कौन?” पाखी समझते हुए बोली, “मेरे साथ पढ़ती है मेरी खास सहेली। उसकी ही तो सगाई है परसों। इसलिए चुन्नी रंगवाने आई हूँ। मैं गुलाबी रंग की सलवार कमीज पहनूँगी।” पप्पू की माँ हँसकर बोली, “और तुम्हारी सगाई?” पाखी शर्मा गई, बोली, “जल्दी होगी। जब होगी तब मैं साड़ी पहनूँगी और शादी में घाघरा।”

“मुझे भी बुलाओगी तो?”

पप्पू की माँ ने पूछा। पाखी का चेहरा फक हो गया।

“क्या हुआ? नहीं बुलाना चाहती। ठीक है मैं नहीं आऊँगी।” पाखी हकलाकर बोली, “नहीं-नहीं। आना। जरूर बुलाऊँगी। तुम भी आना और पप्पू भी। जसी को भी लाना और गोल्डी को भी और उस परवेश जी को भी।

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