वे सब कहाँ गई | जसबीर चावला
वे सब कहाँ गई | जसबीर चावला

वे सब कहाँ गई | जसबीर चावला

वे सब कहाँ गई | जसबीर चावला

वह तोड़ती पत्थर
इलाहाबाद के पथ पर
कहाँ है वह
निराला की
कालजयी रचना की
‘रचना’
उसे मिलते हैं कम
पत्थर
तोड़ता है अब क्रशर
हर गाँव / शहर

अब बबूल की दातुन नहीं बेचती
ख्वाजा अहमद अब्बास की नायिका
हम गर्व से कहते हैं
दातुन नहीं बच्चे भी पेस्ट करते हैं
{पूछता बच्चा दातुन किसे कहते हैं}

रेणु / कृश्न चंदर की नायिकाएँ
बाँसचटाई / सूपड़ा / टोकरी / झाड़ू / डलियाएँ
नहीं बनाती / बेचती
प्लास्टिक ने उन्हें बाहर कर दिया
वन से बाँस नहीं मिलते
हम भी नहीं खरीदते
{बच्चे नहीं जानते}
कभी कदा दिख जाती है
गारोड़िया लुहारन / बंजारन


लोहा कूटती
धोंकनी धौंकती
चूल्हा फूँकती
सड़क किनारे
बिना पते की गाड़ी / घर
के साथ
न जाने किस
महाराणा की आन बान
की रक्षा में
बिता रही
सतत निर्वासन
नहीं जानती
उसके औजार
अब
टाटा बनाता है
यही किसान को भाता है

कहाँ है / किस हाल है
पत्तल / दोने वाली
धुनकी से तुन्न तुन्न कर
रूई पींजने वाली
रशीदा पिंजारन

कहाँ गईं
कहाँ सबके घरवाले
लगाकर ताले
प्रेमचंद का होरी
हीरामन / शैलेंद्र की
‘चलत मुसाफिर मोह लिया रे
पिंजरे वाली मुनिया’
गोदान की धनिया

लील गया सबको
विकास का बनिया

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