वसंत शुक्रिया | कुमार अनुपम
खुद को बटोरता रहा
हादसों और प्रेम में भी
रास्ते थे कि उम्मीदों से उलझते ही रहे
ठोकरों की मानिंद
घरेलू उदासियाँ रह रह गुदगुदाती रहीं
कटे हुए नाखून-सा चाँद धारदार
डटा आसमान में
काटता ही रहा एकउम्र हमारी अधपकी फसल
रंध्रों में अँटती रही कालिख और शोर और बेचैनी अथाह
पनाह
जहाँ का अन्न जिन जिन के पसीनों खेतों सपनों का पोसा हुआ
जहाँ की जमीन जिन जिन की छुई अनछुई
जहाँ का जल जिन जिन नदियों समुद्रों बादलों में
प्रथम स्वास-सा समोया हुआ
जहाँ की हवा जिन जिन की साँसों आकांक्षाओं प्राणों से भरी हुई
नसीब ऐन अभी अभी हमें पतझर में
सबके हित
अपने हित
समर्पित
एक दूब
(कृपया, ऊब से न मिलाएँ काफिया!)
वसंत शुक्रिया!