वह चुप हैं… बिल्कुल ही चुप।

वसे कम बोलना उनकी आदत है। यह आदत उन्होंने विकसित की है। कभी वह अधिक बोलते थे जिस पर उन्होंने सप्रयास नियंत्रण पा लिया। वह जानते थे कि कम बोलने के लाख लाभ होते हैं। साथी मुँह ताकते रहते हैं कि वह कुछ बोलें लेकिन वह चुप रहते हैं। दूसरों को सुनते हैं और उनके कहे को अपने अंदर गुनते हैं। अवसरानुकूल कुछ शब्द उच्चरित कर देते हैं… एक-एक शब्द पर बल देते हुए। वह अपने वाक्यों की असंबद्धता की चिन्ता नहीं करते। चिन्ता करते हैं अधिक न बोलने की। अधिक बोलने को अब वह स्वास्थ्य खराब होने के कारणों में से एक मानते हैं। स्वास्थ्य को वह व्यापक अर्थ में लेते हैं,जो शारीरिक ही नहीं सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक… व्यापक संदर्भों से जुड़ता है।

वह कम अवश्य बोलते हैं लेकिन बिल्कुल चुप उन्हें पहली बार देखा गया है। मिलने आने वालों को उनकी पत्नी शालिनी दरवाजे से ही टरका देती हैं यह कहकर कि शुशांत जी का स्वास्थ्य ठीक नहीं है।

शालिनी जी, दो दिन पहले शुशांत जी बिल्कुल स्वस्थ थे…’ मिलने आए एक युवक के कहने पर वह बोली, ‘कल से स्वास्थ्य खराब है। छींक रहे हैं और गला भी खराब है।’

‘शालिनी जी,’ युवक बोला, ‘वह स्वयं न बोलें, बस मुझे सुन लें। उनके लिए एक आवश्यक सूचना है।’

शालिनी ने उस अपरिचित युवक को घूरकर देखा,’ आप मुझे बता दें। मैं उन्हें बता दूंगी।’

युवक ने शालिनी की ओर अखबार बढ़ाते हुए कहा,’ परसों शाम ‘जनाधार लेखक संघ’ की ओर से प्रख्यात साहित्यकार कामेश्वर जी की मृत्यु पर शोक सभा आयोजित थी। शुशांत जी भी बोले थे। बोलते हुए उन्होंने कहा था कि कामेश्वर जैसे व्यक्ति इसलिए हमारी श्रद्धांजलि के हकदार हैं क्योंकि उन्होंने थोड़ा-बहुत कुछ लिखा है। वर्ना उनका जीवन इतना अराजक… चरित्र इतना कमजोर…’

‘आप कहना क्या चाहते है?’ शालिनी ने युवक को नजरें तरेरते हुए टोका।

अविचलित युवक ने ‘आज भारत’ अखबार बढ़ाते हुए कहा,’ इसमें शुशांत जी के कथन की भर्त्सना की गई है। मुझे ‘जनाधार लेखक संघ’ के सचिव व्याकुल कुमार जी ने यह कहकर भेजा है कि शुशांत जी ‘आजाद भारत’ को यह कहते हुए अपना खण्डन भेज दें कि उन्होंने वैसा नहीं कहा था। रिपोर्टर ने उनकी बात को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया है।

‘जी शुक्रिया। मैं उन्हें बता दूंगी।’ आजाद भारत की प्रति युवक से लेती हुई शालिनी बोली और युवक को दरवाजे पर खड़ा छोड़ दरवाजा बंद कर लिया।

वह चुप हैं और चुप होने का कारण पूछने पर भी उन्होंने शालिनी को नहीं बताया।

एक और समय वह चुप रहने लगे थे, लेकिन बिल्कुल चुप नहीं थे। तब उनके स्कूटर ने उनके अंदर उथल-पुथल मचा रखा था। चार वर्षों से वह उनके गैराज में खड़ा था। बेटे के लिए उसे खरीदा गया था। बेटा उससे कॉलेज जाता… दिल्ली कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, जहाँ से वह इंजीनियरिंग कर रहा था। इंजीनियरिंग कर वह चार साल पहले एम.एस. करने अमेरिका चला गया और एम.एस. कर वहीं नौकरी करने लगा। बेटे के जाने के बाद स्कूटर को गैराज में बंद करने के बाद न उन्हें गैराज खोलने की आवश्यकता अनुभव हुई और न ही स्कूटर का खयाल आया। दरअसल बेटे के लिए उन्होंने नहीं शालिनी ने उसे खरीद दिया था। उनके यहाँ स्कूटर है यह अनुभूति उन्हें तब होती जब कभी-कभार उसे वह गेट के बाहर खड़ा देखते। वैसे होता यह था कि जब वह सुबह नौ बजे सोकर उठते बेटा कॉलेज के लिए जा चुका होता था। शालिनी विदेश मंत्रालय में सहायक निदेशक राजभाषा थी और वह भी कार्यालय जा चुकी होती थी।

शुशांत, जिनका पूरा नाम शुशांत राय था, उठते, अंगड़ाई लेते, खिड़की से झाँककर सड़क की आमद-रफ्त का जायजा लेते हुए दाढ़ी पर हाथ फेरते,जिसकी वह बहुत साज-संवार करते थे, फिर बिस्तर छोड़ किचन में जाते, जहाँ शालिनी थर्मस में उनके लिए चाय बनाकर रख जाती थी।

चाय पीते हुए वह दिन के अपने कार्यक्रम पर विचार करते। अखबार पर सरसरी दृष्टि डालते और विशेषरूप से दुर्घटनाएं, हत्या, बलात्कार और लूट-पाट की खबरें पढ़ते। ये खबरें उन्हें चिन्ता में डाल देतीं। वह अपने को असुरक्षित अनुभव करते… और घर, शालिनी और बेटे अखिल को लेकर चिन्तित हो उठते। बलात्कार शब्द पर उनकी नजरें अधिक देर तक टिकतीं। उस समाचार को वह गौर से पढ़ते और मन में विचलन अनुभव करते रहते। विचलन अनुभव करते हुए उन्हें बरबस सुहासिनी की याद हो आती। याद तब अधिक आती जब उससे मिले उन्हें दो-तीन सप्ताह बीत चुके होते।

सुहासिनी उनकी छात्रा थी… उनके निर्देशन में पी-एच.डी कर रही थी। उसके रजिस्ट्रेशन के बाद उन्होंने उसकी इस प्रकार उपेक्षा की कि एक दिन वह रो पड़ी थी। वह काम करके लाती। वह देखते… देखते नहीं बल्कि गंभीरतापूर्वक देखने का अभिनय करते और कुछ देर बाद रजिस्टर उसकी ओर सरका देते, ‘बात बनी नहीं सुहास… दोबारा लिखो…’ और वह कुछ पुस्तकों के नाम बता देते, ‘इन्हें पढ़ो। दिशा मिल जाएगी।’

एक-एक चैप्टर को पाँच-छ: बार उन्होंने उससे लिखवाया। दो वर्षों में सुहासिनी केवल तीन चैप्टर ही लिख पायी। समय समाप्ति की ओर तेजी से बढ़ रहा था और यही वह चाहते थे। चौथे चैप्टर को जब पाँचवीं बार उन्होंने रिजेक्ट किया सुहासिनी के धैर्य का बांध टूट गया और वह फफक पड़ी, ‘सर, मैं पी-एच.डी. नहीं करूँगी।’

‘च्च…च्च… ऐसा नहीं सोचते सुहास।’ सोफे पर उसकी ओर खिसक गए थे वह और अपनी उंगलियों से सुहासिनी के आंसू पोछते हुए बोले थे, ‘तुम प्रतिभाशाली हो… समझदार भी… लेकिन पता नहीं क्यों नासमझी करती जा रही हो… अब तक कब की थीसिस सबमिट हो चुकी होती। कहीं एडहॉक पढ़ा रही होती।’

सुहासिनी का रोना बंद हो गया था। वह सोचने लगी थी, ‘क्या सच ही वह प्रतिभाशाली है… लेकिन सर ने कहा… अभी कहा…’

सुहासिनी सोच में डूब गयी… वह कुछ और परिश्रम करेगी… उसे प्राध्यापक बनना है… वैसा ही करेगी जैसा शुशांत सर कहेंगे…’

और उसको वही करना पड़ा जैसा शुशांत राय ने कहा। शालिनी दफ्तर जा चुकी थी और बेटा कॉलेज… तब से सुहासिनी को अकेले में वह सहवासिनी कहकर पुकारने लगे थे।

सुहासिनी ने पी-एच.डी की और एक कॉलेज में उनके सहयोग से एडहॉक पढ़ाने लगी। उसे रेगुलर होना है और वह सोचती है कि उसके सर यानी शुशांत सर… उसके रेगुलर होने में भी सहायक होंगे। इसीलिए वह दस-पंद्रह दिनों में उनके घर आती है… कॉलेज जाते समय… शालिनी के कार्यालय जाने के बाद। लेकिन उस दिन ऐसा नहीं हुआ। शालिनी को ज्वर था। वह कार्यालय नहीं गई थी। सुहासिनी घर आए और शुशांत अपने को नियंत्रित रख लें, संभव नहीं था। चार वर्षों बाद उन्हें गैराज की याद आयी थी। बमुश्किल से चाबी खोज पाए थे वह। ज्वर के कारण शालिनी अर्धचेतनावस्था में थी।

शुशांत कठिनाई से गैराज का ताला खोल पाए, क्योंकि उसमें जंग लग चुकी थी। गैराज में जमी धूल की पर्त और दीवारों में लगे जालों ने एक बार तो उन्हें हतोत्साहित किया था, लेकिन उसका विकल्प उन्होंने खोज लिया था। ‘चटाइयों का आविष्कार शायद ऐसे अवसरों के लिए ही हुआ था’ उन्होंने उस समय सोचा था। लेकिन स्कूटर बाधक बन गया था। छोटे-से गैराज का अधिकांश स्थान उसने घेर रखा था। उतावलेपन के उस क्षण उस बाधा से मुक्ति आवश्यक थी। मुक्ति उसे हटा देने से ही संभव थी। लेकिन चार वर्षों से एक ही जगह अड़े स्कूटर को हटाना उनके लिए किसी पहाड़ को हटाने जैसा था। भले ही उन्होंने दुनिया को चलाया था, लेकिन स्कूटर चलाना तो दूर आने के बाद उसे हाथ भी नहीं लगाया था, उसे हटाने से शालिनी के उठ आने का खतरा भी था। उसे खिसकाकर उन्होंने धूल और जालों की परवाह न कर धूलभरी फर्श पर किसी तरह आधी-अधूरी चटाई बिछा ली थी। ऐसे अवसरों में असुविधाओं में सुविधा खोज लेना उनकी फितरत थी।

लेकिन स्कूटर उनके दिमाग में अटक गया था। वह सड़क पर दौड़ने के बजाय उनके दिमाग में दौड़ने लगा था। उसे घर से बाहर कर देने का निर्णय उन्होंने कर लिया था। उसे बेच दें या किसी को दे दें इस द्वन्द्व में वह कई दिनों तक फंसे रहे थे। बेचने से अधिक किसी को दे देना उन्हें अनेक दृष्टिकोण से उपयुक्त लगा था। लेकिन कुछ मुफ्त देना उनके सिद्धांत के विरुद्ध था। मुफ्त पाने वाले की आदतें खराब हो जाती हैं। वह श्रम से बचने लगता है… इससे न उसका विकास होता है और न देश का। ‘मुफ्त’ देने-पाने की नीति उनके प्रगतिशील विचारों के विरुद्ध थी। अपने प्रगतिशील विचारों के प्रतिपादन के लिए उन्होंने अपने कुछ सिद्धांत तय किए थे और उन सिद्धांतों का वह कठोरता से पालन करते थे।

सोच-विचारकर उन्होंने ‘जनाधार लेखक संघ’ से जुड़े अपने एक छात्र को स्कूटर देने का निर्णय किया। संघ की परिकल्पना में उनकी भी भूमिका रही थी, जिससे उनके कुछ छात्र भी उससे जुड़े हुए थे। समय-समय पर वे संघ की ओर से धरना-प्रदर्शन कर लेते – जंतर-मंतर पर सरकार के विरुद्ध नारे लगा लेते। संघ से जुड़े लोग प्रसन्न हो लेते कि वह सरकार की दुर्नीतियों के विरुद्ध आवाज बुलंद कर रहे थे जबकि संघ के पदाधिकारी इससे सरकारी तंत्र पर दबाव बनाकर अपने हित साध लेने से प्रसन्न होते थे।

एक दिन राजीव प्रसाद नाम के उस युवक को उन्होंने घर बुलाया। उसकी पढ़ाई, समस्याओं आदि की चर्चा कर कहा, ‘राजीव तुम्हे एक प्रोजेक्ट पर काम करना है।’

‘कैसा प्रोजेक्ट सर?’

‘स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यासों में स्त्री विमर्श’ विषय पर कुछ काम करना है।’

‘सर…’ राजीव के स्वर में कंपन था।

‘मैं तुम्हारी सहायता करूँगा। यही कोई दो-ढाई-सौ पृष्ठों की पुस्तक… पर्याप्त पारिश्रमिक मिलेगा। पाँच दशकों के महत्वपूर्ण उपन्यासों की सूची मैं लिखवा दूँगा। प्रत्येक दशक के आधार पर पाँच अध्याय और छठवां अध्याय उपसंहार।’

‘सर… मैं…।’

‘अरे घबड़ाते क्यों हो? मैं हूँ न! ‘दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए सुशांत राय बोले, ‘इसके लिए कुछ परिश्रम करना होगा… कुछ पुस्तकालयों की खाक भी छाननी होगी… उसके लिए तुम मेरा यह स्कूटर ले जाओ। केवल कार्य करने तक के लिए ही नहीं… इसे मैं तुम्हें दे रहा हूँ।’

राजीव उनके चेहेरे की ओर देखने लगा तो वह बोले, ‘ऐसे क्यों देख रहे हो! भई मुफ्त में नहीं दे रहा हूँ… काम करवा रहा हूँ। तुम प्रतिभाशाली हो और प्रतिभाशाली लोग मुझे प्रिय हैं। मैं उनके लिए कुछ भी करने को तैयार रहता हूँ…’

‘सर…’ राजीव कसमसाया। वह सोच रहा था कि उसके लिए अपनी एम.फिल. का शोध प्रबंध ही भारी पड़ रहा है, ऊपर से इतना भारी-भरकम काम… कैसे कर पाएगा वह !’

‘इसे दो महीनों में पूरा करना है… फिर अपने एम.फिल का काम करते रहना… अभी उसके लिए पर्याप्त समय है।’ और उन्होंने राजीव की ओर स्कूटर की चाबी उछाल दी थी। चाबी वह नहीं थाम पाया तो दाढ़ी में मुस्कराते हुए वह बोले, ‘कैच करने में कमजोर हो?’

राजीव के घर से स्कूटर घसीटकर बाहर निकालते ही उन्होंने गेट बंद कर लिया था। उसके बाद उन्होंने यह जानने की कोशिश नहीं की कि चार वर्षों में पिचक चुके टायरों और पथरा चुकी पेट्रोल की टंकी की रबड़ ने उसे कितना दुखी किया था। मेकेनिक ने उसकी जेब से पाँच सौ रुपए निकलवा लिए थे, जो कि उसके पास नहीं थे। उसने एक साथी से रुपए उधार लेकर मेकेनिक को दिए थे।

लेकिन जिन्दगी में पहली बार उनके साथ ऐसा हुआ कि सोची-समझी योजनानुसार किए गए कार्य में उन्हें असफलता मिली थी। राजीव प्रसाद नामक छात्र द्वारा तैयार पुस्तक उनके नाम से प्रकाशित हानी थी। उसने एक दशक के उपन्यासों पर एक चैप्टर लिखकर उन्हें दिखा भी दिया था, लेकिन उसके बाद वह गायब हो गया था। उन्हें ज्ञात हुआ कि बंगलौर की एक बहुराष्ट्रीय बैंक में उसे नौकरी मिल गयी थी और वह पढ़ाई छोड़ गया था। उन्हें इस बात का अफसोस था कि उन्होंने पहली बार गलत घोड़े पर दांव लगाया था।

लेकिन अब उनके चुप होने का यह कारण नहीं था। हुआ यह कि दो दिन पहले लंबे समय के बाद सुहासिनी उनके यहाँ आयी। शालिनी दफ्तर जा चुकी थी। सुहासिनी को देख वह प्रसन्न हुए। प्रसन्न इसलिए कि उसके आने के लिए कितनी ही बार उन्होंने उसके मोबाइल पर फोन कर उससे आग्रह-अनुग्रह किया था। उसे प्रेम भरे एस.एम.एस. किए थे।

सुहासिनी का उन्होंने ऐसे स्वागत किया मानों वर्षों बाद मिले थे। लेकिन सुहासिनी में उन्हें न वह उत्साह दिखा और न औत्सुक्य। घर में प्रवेश करते ही वह हिमखण्ड की भाँति सोफे पर ढह गयी थी। वह देर तक उसकी ओर ताकते रहे थे चुप फिर पूछा था, ‘सुहास तुम चुप क्यों हो? तुम्हारी चुप्पी मुझे बर्दाश्त नहीं हो रही।’

सुहासिनी उन्हें घूरती रही अपनी बड़ी-बड़ी तीक्ष्ण आँखों से। उन्होंने फिर जब टोका, वह रो पड़ी। उन्हें उसके साथ का पहला दिन याद हो आया। तब भी वह ऐसे ही रोयी थी और सोफे पर उसके निकट खिसक उन्होंने उसके आंसू पोछे थे।

उन्होंने उसी प्रकार उसके आंसू पोछने चाहे तो सुहासिनी ने उनका हाथ झिटक दिया, ‘आपने मुझे बर्बाद कर दिया।’ वह चीखी।

‘मैं ऽ ऽ ने…?’

‘हाँ… आपने… मैं गर्भवती हूँ…’ ‘तुम… तुम…’ उनकी जुबान लड़खड़ा गयी थी। किसी प्रकार अपने को सँभाल वह बोले,’ इसमें परेशान होने की क्या बात… मैं तैयार होता हूँ… किसी डॉक्टर के पास…’

‘नहीं…’

‘फिर…’ वह भौंचक थे। ‘आप शालिनी जी को तलाक दें और मुझसे विवाह…’

‘तुम होश में तो हो न सुहासिनी…?’

पूरे… होश-ओ-हवाश में कह रही हूँ…’

‘क्या प्रमाण है कि यह मेरा ही गर्भ है?’ वह भड़क उठे थे।

‘प्रमाण क्या हैं… यह आपको भी पता है…’ सुहासिनी ने सधे स्वर में कहा।

वह धप से सोफे पर बैठ गए थे सिर थामकर। उनके सामने डॉ. विप्लव त्रिपाठी का चेहरा घूम गया था… राजनीतिशास्त्र विभाग के डॉ. विप्लव त्रिपाठी… उनकी एक एम.फिल. की छात्रा ने ऐसा ही आरोप लगाते हुए उनके द्वारा उसे मोबाइल पर भेजे गए एस.एम.एस. के प्रमाण विश्वविद्यालय प्रशासन और इन्क्वारी कमीटी के समक्ष प्रस्तुत किए थे और आरोप सिद्ध होने के बाद डॉ. त्रिपाठी को प्रोफेसर पद से विश्वविद्यालय ने बर्खास्त कर दिया था।

सुहासिनी जा चुकी थी… कब उन्हें पता नहीं चला था। और तभी से वह चुप हैं।
 

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