उन्हें बाघ खा जाए | हरियश राय
उन्हें बाघ खा जाए | हरियश राय

उन्हें बाघ खा जाए | हरियश राय – Unhen Baagh Kha Jae

उन्हें बाघ खा जाए | हरियश राय

“आप ईपीडब्ल्यु मँगाते हैं।” अचानक सामने से आ रही एक लड़की ने रुककर सवाल किया।

सुमित कुमार को अंदाजा नहीं था कि राह चलते कोई इस तरह का सवाल उनसे कर सकता है। वह भी बीच रास्ते में। उनकी विचार-तंद्रा एकाएक भंग हो गई। वे इस तरह के सवाल का मतलब नहीं समझ पाए। आजकल माहौल एकदम खराब हो गया है। बहुत लोगों पर बहुत लोग नजर रख रहे हैं। वे क्या पढ़ रहे हैं, कहाँ जा रहे हैं? किन लोगों से मिल रहे हैं, सब पर नजर रखी जा रही है। आए दिन उनके अखबार में इस तरह की खबरें छपने के लिए आती थीं य सशंकित हो गए वे। एकटक उस लड़की की तरफ देखते रहे।

“जी…!” उन्होंने हैरानी से कहा।

चलते’-चलते रुक गए सुमित कुमार। उस लड़की की बात सुनकर।

“मेरा मतलब है आप ही ईपीडब्ल्यू मँगाते हैं।”

उन्हें इस तरह हैरान होते देख लड़की ने दोबारा पूछा हालाँकि वह जानती थी वे ईपीडब्ल्यु मँगाते हैं फिर भी उसने पूछा।

सुमित कुमार ने गौर से देखा उस लड़की की तरफ। करीब तीस-पैंतीस साल की उम्र रही होगी। या इससे कम भी। साँवला रंग, मँझला कद, गोल-गोल चेहरा, कटे हुए बाल लेकिन बालों की सफेदी को ढकने के लिए उन्हें रंग कराया गया था। करीने से पहनी हुए सलवार-कमीज। आत्मविश्वास से भरा चेहरा। पहले भी ये लड़की कई बार उन्हें आते-जाते दिखाई दे जाती थी, पर कभी ध्यान नहीं दिया।

सुमित कुमार समझ नहीं पाए। यह लड़की क्यों पूछ रही है। पत्रकार होने के नाते वे ईपीडब्ल्यू के साथ-साथ और भी कई सारी मैगजीनें मँगवाते थे। उनका पेशा था लिखना और पढ़ना।

“जी आप…” सुमित कुमार ने उस लड़की की ओर देखते हुए कहा।

इससे पहले वे कुछ और पूछते, वह लड़की खुद ही बोल पड़ी। ” मेरा नाम देवयानी है। सामने वाले ब्लॉक में रहती हूँ।” उसने सामने वाले ब्लॉक की तरफ हाथ उठाते हुए कहा।

“अच्छा…” सुमित कुमार ने संक्षिप्त-सा जवाब दिया।

“सोसायटी के गार्डरूम में अपनी डाक देखते हुए ईपीडब्ल्यू देखी। मैगजीन के कवर पर आपके फ्लैट का नं. लिखा हुआ था। कई दिनों से सोच रही थी आपके पास आने की। आज आप सामने से आते दिखाई दिए तो पूछ लिया।” देवयानी ने अपनी बात का सूत्र बता दिया था।

“हाँ, मैं ही मँगवाता हूँ।” सुमित कुमार ने संक्षिप्त-सा जवाब दिया।

“मुझे एक पुराना अंक चाहिए। ईपीडब्ल्यू का… आदिवासी विशेषांक…।” देवयानी ने अपना मकसद बताया।

सोच में पड़ गए। कब निकला होगा यह अंक! उनके पास होगा भी या नहीं। ढेर सारी मैगजीनें उनके पास आती हैं। सब मैगजीनें वे सँभाल कर नहीं रखते। हाँ कुछ मैगजीनें जरूर सँभाल कर रख लेते हैं।

“कब निकला था यह अंक।” उन्होंने आहिस्ता से पूछा।

“करीब तीन-चार साल पहले निकला था।”

“तीन-चार साल पहले… वैसे इतने पुराने अंक मैं रखता नहीं हूँ। पर शायद यह अंक हो, कह नहीं सकता। पर आपकों क्यों चाहिए यह अंक?” सुमित कुमार ने सवालिया नजरों से देखते हुए कहा।

“मैं आदिवासियों के एक प्रोजेक्ट पर काम कर रही हूँ। उसी सिलसिले में मुझे वह अंक चाहिए था।” देवयानी ने अपना मकसद साफ-साफ शब्दों में बताया।

सुमित कुमार ने बड़े गौर से देखा देवयानी को। फिर पूछा, “कहीं पढ़ाती हैं आप…”

“नहीं, यूनिसेफ में काम करती हूँ।”

“क्या प्रोजेक्ट है आपका।”

“आदिवासी स्त्रियों के विद्रोह के बारे में। उस अंक में कुछ लेख हैं। मैंने कई जगह उसका रेफरेंस देखा है।”

“कह नहीं सकता कि यह अंक मेरे पास है या नहीं। पर शायद हो भी। देखने पर ही कुछ कह सकता हूँ।” सुमित कुमार ने फिर वही बात कही।

“देखिए, मिल जाए तो मेरा काम आसान हो जाएगा। देवयानी के स्वर में एक दयनीयता सी थी। ऐसा लग रहा था जैसे उसे बहुत ज्यादा जरूरत है।

“ढूँढ़ने की कोशिश करता हूँ।” सुमित कुमार ने आश्वासन सा दिया था। लेकिन मन ही मन सोच रहे थे कि इतने पुराने अंक को ढूँढ़ना है बहुत मुश्किल।

“आप कहें तो मैं इस संडे आकर ढूँढ़ने में मदद कर दूँ।” देवयानी ने प्रस्ताव दिया।

उसे यह अंक हर हाल में चाहिए था। उसने सोचा यदि यह अंक यहाँ मिल जाएगा तो बेकार की भटकन नहीं होगी। पर साथ ही उसे यह भी एहसास हो रहा था कि कहीं सुमित कुमार मना न कर दें। पता नहीं यह अंक इनके पास है भी या नहीं और यदि होगा भी तो आजकल कौन किसके लिए इतने पुराने अंक ढूँढ़ता है। उनके मना करने का मतलब था कि इस अंक को ढूँढ़ने के लिए किसी लाइब्रेरी की खाक छानना। तब भी यह अंक मिल जाएगा, इसकी कोई गारंटी नहीं थी।

“नहीं, इस संडे तो मैं बाहर जा रहा हूँ, आप अगले संडे आ जाइए। देखता हूँ मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ।” सुमित कुमार ने कहा और आगे चल दिए।

सोसायटी के गेट के बाहर आते वक्त वे सोच रहे थे कि इस लड़की को तो वे कई बार देख चुके थे लेकिन कभी इसने बताया नहीं कि वह आदिवासियों पर कोई काम कर रही है। क्या काम करती होगी यूनिसेफ में। उनके मन में सवाल उठा। फिर खुद ही जवाब भी ढूँढ़ लिया कि यूनिसेफ जैसी संस्थाएँ अपनी उदारवादी छवि को बनाए रखने के लिए बहुत सारा काम आदिवासी क्षेत्र में करवाती हैं।

इस दौरान वे अपने कामों में व्यस्त रहे। एकाध बार उन्हें याद आया कि उन्हें ईपीडब्ल्यू का पुराना अंक तलाश करना है, लेकिन इससे पहले वे इस काम की शुरुआत करते कोई न कोई दूसरा काम आ जाता और मैगजीन ढूँढ़ने का काम मुल्तवी होता रहा।

और एक संडे को जब दरवाजा सुमित कुमार की पत्नी हेमलता ने खोला तो सामने एक लड़की को देखकर कुछ-कुछ हैरान सी रह गर्इं।

“जी, आप…” हेमलता ने दरवाजे पर देवयानी को देखकर सौम्यता से पूछा।

“मैं सामने वाली बिल्डिंग में रहती हूँ। अंकल ने आज बुलाया था। एक मैगजीन के सिलसिले में…।”

हेमलता को याद आया सुमित ने उन्हें इस लड़की के बारे में बताया था और कहा था कि वह शायद आज आए।

“आओ…” कहकर हेमलता ने देवयानी को अंदर आने के लिए कहा। सुमित की पत्नी हेमलता एक भद्र महिला थी। चेहरे पर परिपक्वता। चालीस-पैंतालीस साल की उम्र रही होगी।

छोटा-सा ड्राइंगरूम था। एक सोफा था, कोने में डायनिंग टेबल और फ्रिज रखा था। दीवार की तरफ दीवान था जिस पर कई सारी मैगजीनें और अखबार रखे हुए थे। ड्राइंगरूम में एक सोफे पर देवयानी बैठ गई।

“अंकल ने एक मैगजीन के लिए कहा था।” देवयानी ने सहमते हुए कहा।

“हाँ, इकनामिक एंड पोलिटिकल वीकली। मुझे पता है। शायद मैगजीन तो तुम्हारी नहीं ढूँढ़ी सुमित ने।”

सुनकर निराश सी हो गई देवयानी। वह तो बहुत उम्मीदों से आई थी।

“बहुत जरूरी है वह मैगजीन। मेरा काम रुक सा गया है।”

एक निरीहता सी उसकी आवाज में समा गई।

“घबराओ नहीं, मैं अभी ढूँढ़ दूँगी।”

“आप ढूँढ़ेंगी।” ———————–

“हाँ, मैं ही सब सँभालती हूँ। तुम थोड़ी देर बैठो, तब तक मैं तुम्हारे लिए चाय बनाती हूँ।” यह कहकर हेमलता चाय बनाने के लिए किचन में चली गई।

कुछ ही देर बाद सुमित कुमार ड्राइंगरूम में आ गए। जिस समय देवयानी ने उनके फ्लैट की कालबेल बजाई थी, उसी समय उन्हें लगा था कि शायद देवयानी ही हो, पर उस समय वे कुछ काम कर रहे थे। इसलिए तुरंत ड्राइंगरूम में न आ सके। देवयानी को वहाँ बैठा देख कर कहा – “मैं तो भूल ही गया था कि आज तुम आने वाली हो। जब तुमने बेल बजाई तब मुझे लगा कि तुम ही होगी। खैर, अब तुम थोड़ी देर रुको। अभी तुम्हारी मैगजीन ढूँढ़ देते हैं।” कहकर वे सोफे की सामने वाली कुर्सी पर बैठ गए।

“आपको डिस्टर्ब किया…।”

“नहीं… नहीं… डिस्टर्ब की कोई बात नहीं। तुम्हारा काम हो जाए बस। मैंने सारी मैगजीनों को एक बंडल में बांधकर अलमारी के ऊपर वाले आले में रखा हुआ है। तुम्हारी मैगजीन होगी, तो उसी बंडल में, नहीं तो नहीं होगी।”

“मिल जाए तो बहुत आसानी होगी।”

“किस विषय पर है तुम्हारा प्रोजेक्ट…” सुमित कुमार ने पूछा।

‘आदिवासी इलाके’ बस्तर में एक रानी हुई थी। चोरिस नाम था उसका। उसने अपने पति के खिलाफ विद्रोह कर दिया था। यह विद्रोह काफी लंबा चला। उसी चोरिस विद्रोह को लेकर काम कर रही हूँ।’ देवयानी ने विस्तार से बताया।

“गई हो कभी बस्तर में, बड़ा बीहड़़ इलाका है।”

“हाँ, कई बार गई हूँ।”

“कैसे लगे वहाँ के आदिवासी…।

‘बहुत शालीन, लेकिन बहुत गुस्से वाले हैं।’

“अच्छा, कैसे अपने गुस्से को व्यक्त करते हैं? किसी पर तीर-कमान चला देते हैं या गालियाँ देते हैं। जैसे बाकी लोग देते है।”

“नहीं, वहाँ के आदिवासी ऐसा कुछ नहीं करते। वे कभी स्त्रियों को लेकर गाली नहीं देते। और जब बहुत ज्यादा गुस्सा आता है तो कहते हैं” तुझे बाघ खा जाए या तुझे देवता उठाकर ले जाएँ। पुरुष मानसिकता उन आदिवासियों में भी गहराई से मौजूद है।”

“क्या कहती है तुम्हारी रिसर्च? कैसे छुटकारा हो सकता है इस मानसिकता से।”

“यह तो बहुत मुश्किल है कहना कि पुरुष मानसिकता से कैसे छुटकारा पाया जाए। लेकिन यह तो तय है कि कायदे-कानूनों से तो छुटकारा नहीं हो सकता। सारा किस्सा मनोविज्ञान का है। पुरुषों द्वारा अपने आपको श्रेष्ठ समझने का है। छुटकारा तभी हो सकता है जब पुरुष अपने अहंकार को छोड़े। पहले वह स्वयं अपने मनोविकारों से आजाद हो, तभी वह अपने परिवार के सदस्यों को आजाद करेगा, परिवार की स्त्रियों को आजाद करेगा।” देवयानी ने राय रखी।

बड़े ध्यान से सुन रहे थे सुमित कुमार और सोच रहे थे कि लड़की ठीक सोचती है कि बिना पुरुषों की सोच में बदलाव हुए स्त्रियों में बदलाव कैसे हो सकता है।

हेमलता ने तब तक चाय बना दी थी।

“लो चाय पियो।” हेमलता ने चाय का कप उसके हाथ में देते हुए कहा।

चाय का कप लेते हुए देवयानी थोड़ी हिचकिचाई।

“तुम लोग चाय पियो, तब तक मैं ईपीडब्ल्यू ढूँढ़कर लाता हूँ।” सुमित कुमार ने कहा और ड्राइंगरूम से उठकर दूसरे कमरे में चले गए।

“कौन से फलैट में रहती हो।” हेमलता ने पूछा।

“ई दो सौ दस में।” देवयानी ने मुस्कराते हुए जवाब दिया।

“कभी दिखाई नहीं दीं।” चाय का घूँट भरते हुए हेमलता ने कहा।

“बस आंटी रोज सुबह आठ बजे चली जाती हूँ और आते-आते नौ-दस तो बज ही जाते हैं, और फिर घर का इतना काम रहता है। सोसायटी में आने-जाने की फुर्सत ही नहीं मिलती।”

“अरे… इतनी लंबी नौकरी। कौन सी कंपनी है तुम्हारी।”

“यूनिसेफ…” उसने बहुत संक्षिप्त-सा जवाब दिया।

“यहाँ कौन-कौन रहता है तुम्हारे साथ?” हेमलता ने पूछा।

“बस मैं और मेरे पिताजी।”

“और माँ…।”

“माँ रहीं नहीं। चार साल पहले ही देहांत हो गया था।” कहते-कहते उसके चेहरे से मुस्कान गायब हो गई थी।

“ओह! …शादी हो गई तुम्हारी।” अचानक हेमलता ने यह सवाल किया। उसकी उम्र को देखकर हेमलता को अंदाजा नहीं हो रहा था कि शादी हुई है या नहीं।

उनके इस सवाल से चौंक गई देवयानी। उसे उम्मीद नहीं थी कि यह सवाल उसके सामने इस तरह और इस वक्त आ जाएगा। आए दिन उसे इस सवाल का सामना करना पड़ता है। बड़ी असहज हो जाती है इस सवाल से यह समझ में नहीं आता कि इस सवाल का क्या जवाब दे, लोग क्यों बार-बार पूछते हैं उससे यह सवाल। कुछ क्षण वह खामोश रही। उसके चेहरे पर उसकी काली चमकीली आँखें सिकुड़ने लगीं। गेंहुँए चेहरे पर एक तल्ख सा गुस्सा गहराने लगा।

“जी, अभी नहीं।” उसकी बात में एक उखड़ापन था।

“अभी नहीं, मतलब…” हेमलता ने आत्मीयता से कहा।

“जी, बस की ही नहीं।’ कहते-कहते देवयानी की आवाज मद्धम सी हो गई। धीरे-धीरे वह असहज हो रही थी। इस विषय पर बात करना उसे बड़ा बेमानी सा लग रहा था।

“क्यों? अच्छी-खासी नौकरी तो है तुम्हारी। कोई भी लड़का आसानी से मिल जाता।” हेमलता ने आत्मीयता जताते हुए कहा।

“बस ऐसे ही… अब अकेले रहने का फैसला कर लिया है।”

उसकी आवाज में एक अजीब तरह का विक्षोभ दिखाई दे रहा था।

“पर आज एक लड़की के लिए अकेले रहना बहुत मुश्किल है।” हेमलता को लगा कि बहुत कुछ है जो देवयानी उन्हें बताना नहीं चाह रही।

“है तो मुश्किल, लेकिन क्या करूँ…।”

देवयानी जानती है कि एक लड़की के लिए अकेले रहने का फैसला मानसिक त्रासदी को हमेशा अपने मन में बनाए रखने का फैसला है, हमेशा के लिए किसी निर्जन एकांत गुफा में भटकने का फैसला है। शायद कोई भी लड़की अकेले रहने की राह नहीं चुनेगी। लेकिन उसने चुना। पर वह इस राह पर कब तक चल पाएगी, खुद उसे नहीं पता।

“पर दिक्कतें तो तुम्हें बहुत आती होंगी।”

“हाँ आंटी, दिक्कतें तो बहुत आती है, पर क्या करूँ। सबसे बड़ी दिक्कत तो घर किराये पर लेने में आती है।”

“तो इस सोसायटी वाला घर भी किराये पर है?”

“हाँ अभी साल भर पहले ही लिया है। अकेली लड़की को लोग घर किराये पर भी नहीं देते। हजार तरह के सवाल करते हैं। जब उन्हें पता चलता है कि मैंने शादी नहीं की, तो किराए पर घर देने से मना कर देते हैं। पता नहीं क्यों उन्हें मेरे चरित्र पर ही शक होने लगता है। आँखें फटी की फटी रह जाती हैं। संशय के भँवरों में घिर जाते हैं सब लोग।”

“ऐसा है अभी भी…?”

“हाँ अभी भी ऐसा ही है। औरतों के लिए कुछ नहीं बदला। अभी भी हम लोग अपनी दादी और नानी के समय में ही रह रहे हैं।’

“बदलाव तो होना चाहिए…।”

“बदलने की बात तो दूर, मुझे तो लगता है, हम लोग फिर से सौ साल पीछे जा रहे हैं। जब लोगों को पता चलता है कि मेरी शादी नहीं हुई है तो एक हिकारत सी उनके मन में जन्म लेती है।”

‘”तुम्हारे माता-पिता ने नहीं सोचा कभी तुम्हारी शादी के बारे में। या फिर तुम्हीं ने अकेले रहने की राह चुनी।”

दुखती रग पर हाथ रख दिया था हेमलता ने। कैसे बताए वह कि यह सब उन्हीं का तो करा-धरा है। अपने पिता की वजह से ही उसने अकेले रहने का फैसला किया।

“जब तक माँ थी तब तक वह सोचती थी। उसके जाने के बाद पिता ने सोचना ही बंद कर दिया।”

“क्यों…?”

“माँ के जाने के बाद घर का सारा दायित्व मेरे ऊपर आ गया।”

“क्यों, भाई नहीं है कोई…”

“है, लेकिन उसने अपना अलग घर बसा लिया।”

“ओह…! तो यह मामला है। लेकिन तुम्हारे पिता को तो सोचना चाहिए?”

“उन्होंने सोचा होता तो शायद हालात कुछ और होते।” देवयानी के स्वर में एक गुस्सा सा था। अपने पिता के प्रति बेहद गुस्सा।

“क्यों… ऐसा क्या हुआ?”

देवयानी असमंजस में पड़ गई। उसे समझ नहीं आर हा था कि वह अपने पिता के बारे में सच कहे या चुप रहे। पिता की एक खास इमेज लोगों ने अपने मन में बना रखी है। जब कि ऐसा नहीं है। उसके पिता बेहद खुदगर्ज, शातिर, मक्कार और उसके प्रति निर्मम हैं और ऊपर से हमेशा शालीन बने रहने का ढोंग करते हैं और अपने बुढ़ापे का भरपूर फायदा उठाते हैं। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनकी बेटी का जीवन कैसे गुजरेगा।

“मेरे पिता सोचते तो शायद आज हालात कुछ और ही होते। वही जिम्मेदार हैं।” देवयानी ने अपने पिता को कटघरे में खड़ा कर दिया।

हैरान रह गई हेमलता देवयानी से उसके पिता के बारे में यह सुनकर। भला एक पिता अपनी बेटी की शादी न होने के लिए जिम्मेदार कैसे हो सकता है।

“वो कैसे…? तुम्हारे पिता कैसे जिम्मेदार हैं?”

“आपको मैं क्या बताऊँ… यदि मेरे पिता चाहते तो आज हालात कुछ और होते।” देवयानी का अपने पिता के प्रति गुस्सा बरकरार था।

“क्या करते हैं तुम्हारे पिता?”

“कुछ नहीं करते। प्राइवेट नौकरी करते थे। नौकरी खत्म हुई तो अचानक जीवन में सूनापन आ गया जिसकी उन्होंने कल्पना तक न की थी। माँ के जाने के बाद घर एकदम बिखर गया।”

“कितनी उम्र है उनकी।”

“है करीब अस्सी साल। बहुत बूढ़े हो गए हैं। घिसट-घिसट कर चलते हैं। आँखों से दिखाई नहीं देता, कानों से सुनाई नहीं देता।”

“आमदनी का कोई जरिया है उनका?”

“नहीं, आमदनी का कोई जरिया नहीं। यही तो प्रॉब्लम है आंटी। उन्हें लगता है कि यदि मैं इस घर से चली गई तो उनका क्या होगा। बस, इसीलिए वे कभी मेरे बारे में नहीं सोचते। बहुत सोच-समझकर उन्होंने मेरी शादी न करने का फैसला कर लिया। पहले तो मुझे लगा था कि कोई लड़का मुझे पसंद ही नहीं करता। लेकिन एक बार जब रिश्ता पक्का होने लगा तो मेरे पिता ने यह कहकर मना कर दिया कि मेरा शादी करने का कोई इरादा नहीं हैं।”

सुनकर हैरान रह गई हेमलता। कोई पिता केवल अपनी खातिर अपनी ही बेटी के भविष्य के साथ भी खिलवाड़ कर सकता है।

“ऐसा क्यों किया उन्होंने। ऐसा तो कोई पिता नहीं करता।”

“पर उन्होंने किया। आंटी बुढ़ापे में व्यक्ति कितना खुदगर्ज और मक्कार हो जाता है, यह मैंने अपने पिता को देखकर जाना। अपनी खुदगर्जी के लिए उन्होंने मेरा जीवन ही दांव पर लगा दिया।” देवयानी का गुस्सा अचानक बढ़ गया।

“एक पिता होकर भी उन्होंने ऐसा किया।”

“हाँ, एक पिता होकर उन्होंने ऐसा किया। एक पिता होकर भी उन्होंने हमेशा से चले आ रहे मूल्यों की धज्जियाँ उड़ा दी हैं। सारी मान्यताओं और लोक-व्यवहारों को ठोकर मार दी है। बहुत सी कोमल और नाजुक भावनाओं को उन्होंने खत्म कर दिया।” देवयानी के मन में अपने पिता के प्रति गुस्सा था, बेहद गुस्सा।

“तो तुमने अपने हिसाब से नहीं देखा कोई…?”

“देखा था। एक था। लेकिन पिता ने यह कहकर मना कर दिया कि भाई शादी में नहीं आएगा, तो शादी नहीं होगी। भाई के बिना वे शादी करने को तैयार नहीं हैं और भाई को किसी से कोई मतलब नहीं। मेरे मन में उनके लिए कोई सम्मान नहीं है। न उनके लिए, न भाई के लिए। भाई ने तो अपने बाप को छोड़ दिया, लेकिन बाप ने अपने बेटे को नहीं छोड़ा। आज भी घर का सारा दारोमदार मेरे ऊपर है लेकिन पिता याद अपने बेटे को ही करते हैं। माँ को याद नहीं करेंगे, लेकिन बेटे को जरूर याद करेंगे। मुझसे फोन करवायेंगें, उसके जन्म दिन पर, उसे बुलवाने के लिए कहेंगे।’ देवयानी ने विस्तार से बताया।

“ऐसा क्यों सोचती हो?”

“ऐसा न सोचूँ – तो कैसे सोचूँ। भाई हम को छोड़कर चला गया। कभी झाँकने तक नहीं आया। पिता का सारा इलाज मैं ही करूँ, उनकी देखभाल करूँ, उनके लिए अपना जीवन होम कर दूँ, लेकिन तारीफ हमेशा अपने बेटे की ही करेंगे। वो इन्हें लतियाता है और ये उस पर फक्र करते हैं।”

देवयानी की आवाज में अपने पिता के प्रति नफरत थी। उसकी आवाज का तीखापन पानी की तेज धार की तरह उसी के मन को चीर रहा था। दायित्व-बोध इनसान के जीवन में त्रासद भी हो सकता है। दायित्व का निर्वाह करते-करते बाहर के लोग तो सराहना करते हैं लेकिन जो दायित्व का निर्वाह कर रहा है, वह अपने आप से क्या कहेगा। शायद अपने दायित्व का निर्वाह करते-करते ही व्यक्ति आनंद पाता है, लेकिन एक सीमा वह भी आती है जब वह इस आनंद से मुक्ति चाहता है, हर हाल में मुक्ति।

“तो तुम छोड़ क्यों नहीं देती अपने पिता को? क्यों नहीं चुन लेती किसी को अपने लिए?” हेमलता ने सलाह देते हुए कहा।

“बस अब सोच लिया है। अब और ज्यादा नहीं रह सकती उनके साथ…” बोलते-बोलते अचानक रुक सी गई देवयानी।

फिर कहना शुरू किया, “बस मेरा यह प्रोजेक्ट पूरा हो जाए और यूनिसेफ में मेरी नौकरी पक्की हो जाए। तो मैं चली जाऊँगी, किसी दूसरे शहर। अब देखना यह है कि वह दिन कब आएगा।”

अपने पिता के प्रति उसकी नफरत और गहरा रही थी।

“और तुम्हारे पिता… उन्हें भी साथ ले जाओगी?” हेमलता ने पूछा।

“नहीं, उन्हें साथ नहीं ले जाऊँगी।”

एक गहरा दर्द था जो उसके इस कथन के पीछे झाँक रहा था।

“तो फिर… वे कैसे रहेंगे?” हेमलता ने जानना चाहा।

“मुझे क्या पता कैसे रहेंगे। उन्हें बाघ खा जाए तो अच्छा है।” देवयानी ने बहुत गुस्से से कहा।

कुछ पल पूरे घर में एक मौन सा छा गया। किसी ने कुछ नहीं कहा, न देवयानी ने कुछ कहा, न हेमलता ने।

“इस उम्र में अकेले नई जिंदगी की शुरुआत करना बहुत मुश्किल नहीं होगा?” अचानक हेमलता ने चुप्पी तोड़ते हुए सवाल किया।

देवयानी के लिए बहुत मुश्किल था इस सवाल का जवाब देना। दोनों के बीच एक मौन सा छा गया। इस मौन को तोड़ा सुमित कुमार ने। ड्राइंगरूम में आते ही उन्होंने कहा “तुम्हारी मैगजीन शायद इसी बंडल में हो।” कहकर उन्होंने मैगजीन का एक बंडल सामने रखी मेज पर रख दिया।

देवयानी ने देखा कि ईपीडब्ल्यू के बहुत सारे इशू उस बंडल में बंधे थे।

“होगा तो इसी बंडल में होगा, नहीं तो नहीं होगा।” सुमित कुमार ने कहा और एक कुर्सी पर बैठ गए।

“जी मैं ढूँढ़ लूँगी।” देवयानी ने कहा।

उस बंडल को देखकर देवयानी खुश हो गई। थोड़ी देर पहले चेहरे पर जो तनाव था, वह धीरे-धीरे कम होने लगा था।

अगले ही पल देवयानी ने बंडल खोल लिया। ईपीडब्ल्यू के सारे अंक ड्राइंगरूम के फर्श पर फैल गए। देवयानी एक-एक अंक को फर्श से उठाती, उस अंक को उलटती-पलटती और फिर अलग रख देती। हर अंक ध्यान से देख रही थी।

उसे इस तरह देख हेमलता सोच रही थी। अपने पिता के लिए जीवन क़ुर्बान कर रही है यह लड़की।

“यह रहा, यही चाहिए था मुझे।” काफी अंकों को उलटने पलटने के बाद एकाएक देवयानी ने एक अंक को हाथ में लेकर कहा।

उसे वह अंक मिल गया जिसकी उसे तलाश थी। उसके चेहरे पर खुशी छा गई।

“दो-चार दिन में यह मैं आपको वापस कर दूँगी।”

“नहीं मुझे नहीं चाहिए, अपने पास ही रख लेना।” सुमित कुमार ने कहा।

“नहीं मैं वापस कर दूँगी। शायद किसी और के काम आए।”

देवयानी ने ईपीडब्ल्यू का आदिवासी विद्रोह का विशेषांक उठाया और दरवाजे से बाहर जाने लगी।

देवयानी को जाता देख सुमित कुमार और हेमलता भी सोफे से उठ गए।

“किसी और मैगजीन की जरूरत हो तो बताना।” सुमित कुमार ने कहा।

“जरूर…” कहकर देवयानी दरवाजे से बाहर चली गई।

जाते-जाते देवयानी की आँखों में एक आत्मविश्वास सुमित कुमार ने देखा था।

देवयानी को दरवाजे से बाहर जाता देख हेमलता सोचने लगी जितनी जल्दी हो सके यह भी बस्तर की रानी चोरिस की तरह अपने लिए एक नई राह बना ले तो अच्छा है।

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