उदासी | अभिज्ञात
उदासी | अभिज्ञात

उदासी | अभिज्ञात

उदासी | अभिज्ञात

यह क्या है जो ओढ़ रखा है
किसी ने सहसा पूछा
तो मैं सचमुच सोच में पड़ गया
मैंने इस बात पर गौर किया
आईने के सामने ठिठका रहा बड़ी देर तक

बत्ती जलाई
फिर-फिर निहारा
जी नहीं माना तो अरसे से बंद पड़ी खिड़की भी खोल दी और देखा
लेकिन नहीं
कुछ नहीं पता चला कि
मैंने आखिर क्या ओढ़ रखा है
फिर मैं हैरान हुआ
कि मुझे क्यों हुआ शुबहा
क्या मैं बगैर परखे
विश्वास और दावे के साथ
नहीं कह सकता था
क्या
यही कि यह झूठ है
यह झूठ है
लेकिन क्या झूठ है

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क्या पता वह मेरी त्वचा के बारे में ही कह रहा हो
कह रहा हो मेरे पसीने के बारे में
और नहीं तो एक हल्के से
अँधेरे के बारे में तो कहा ही जा सकता है|
जो उजाले की कमी में बेशक हो सकता था कुछ गाढ़ा
फिर मैंने छोड़ दिया उस ढंग से सोचना
मैंने सोचा
क्या पता वह पूछ रहा हो कोई
एक शाश्वत सा सवाल
वह पूछ रहा हो किसी कंबल के बारे में
जिसके बारे में कुछ भी कह गए हैं कबीरदास
और मेरे ध्यान कभी गया ही नहीं उस ओर
जस की तस रखने भर की बात जरूर सुनी थी
मगर मैं सहेजने के कला से परिचित कभी नहीं रहा
फिर खयाल आया कि आज के दौर में नहीं हो सकता कोई आध्यात्मिक सा सवाल
हो सकता है उसने थोड़ा परे हट
पूछा हो मेरी उदासी के बारे में
कहीं ऐसा तो नहीं वह मेरी ढाई इंच मुस्कान के ही पीछे पड़ा हो
जो खलती रही है रह-रहकर
मेरे वजूद को

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इन सबको छोड़कर मैंने उस ओर देखा
जिधर से पूछा गया था सवाल मगर वह एक कागज का टुकड़ा था
जिस पर लिखा था
छाते के लिए कोई विज्ञापन
मैं बहुत देर तक
मुस्कुराता रहा
कि बच गया एक जवाब से।

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