यू टर्न | हेमलता महिश्वर
यू टर्न | हेमलता महिश्वर

यू टर्न | हेमलता महिश्वर – U Turn

यू टर्न | हेमलता महिश्वर

हमेशा की तरह शाम तो काफी हो गई थी बल्कि कहना चाहिए कि अँधेरा ही घिर आया था जब मैंने घर के भीतर कदम रखा। बच्चे भी कार पार्किंग करते समय बाहर निकल कर आ गए।

”मम्मी आ गईं… मम्मी आ गईं…” कहते हुए छोटा हमेशा की तरह फुदकने लगा था। और बड़ी बेटी तो अब मम्मी के चेहरे को देखकर भाँप जाया करती थी कि आज मम्मी का मन कैसा है। मुझे अब अपनी इस नौ साल की बेटी मित्रा से डर लगने लगा था। समय से पहले ही बच्ची समझदार हो चली थी। मित्रा ने मेरे हाथ से पर्स ले लिया और घर के भीतर चल पड़ी और छोटा आनंद हाथ पकड़कर अंदर खींचने लगा। मैं सोफे पर बैठी ही थी कि मित्रा ने पानी लाकर रख दिया और बोली, ”मम्मी… चाय बना दूँ”

मुझे भीतर तक चीर गई वह आवाज। हाय बेचारी बच्ची। कहाँ तो मुझे यह चाहिए था कि मैं उससे पूँछूँ कि ”बेटा, क्या किया दिन भर… क्या खाया… दूध पिया या नहीं… होम वर्क किया कि नहीं… स्कूल में क्या पढ़ाई हुई…” उलटे यह बच्ची मुझसे पूछ रही है, ”मम्मी, चाय बना दूँ!”

मैंने खुद को संयमित किया और सहज होते हुए उत्तर दिया ”ना बच्चे… मुझे चाय तो नहीं चाहिए… तुम्हारे पापा आ गए?’

”नहीं।” दीदी के कुछ बोलने के पहले ही आनंद ने उत्तर दिया।

”अच्छा… आते होंगे…” कहते हुए मैंने घड़ी की ओर देखा तो आठ बजने को आ रहे थे और पूछा, ”चलो बताओ तो क्या खाओगे।”

”मटर वाले चावल और टमाटर की चटनी।” मित्रा ने छूटते ही कहा। मैं समझ गई कि मित्रा ने शालू से इतनी तैयारी करवा रखी होगी।

कपड़े बदलकर हाथ-मुँह धोकर जब मैं खाना बनाने के लिए किचन की तरफ बढ़ी तो फिर दोनों साथ हो लिए अपनी दिन भर की चकल्लस सुनाने के लिए।

”मम्मी, आज मिस ने बताया कि जंगल हमारे लिए कितने जरूरी हैं… वन महोत्सव में क्या करते हैं मम्मी… आज मिस बता रही थीं कि जंगल खत्म हो रहे हैं क्योंकि वहाँ रहने वाले आदिवासी पेड़ काट लेते हैं… वो ऐसा क्यों करते है?’ मित्रा के पास हमेशा की तरह प्रश्न तैयार थे।

दोनों एक ही समय पर एक साथ अपनी-अपनी बातें बताना चाहते थे। मैंने नियम बना दिया था कि एक बार मित्रा और एक बार आनंद बोलेगा, इस तरह से दोनों की ही बातें सुनी जा सकेंगी। नहीं बोल पाने से बेहतर लगा था उन्हें यह तरीका।

”हीं हीं हीं मम्मी… हीं हीं हीं आज ना… हीं हीं हीं निशांत की पैंट का बटन नहीं खुल रहा था… तो उसने… तो उसने… हीं हीं हीं सबके सामने सू-सू कर दिया…हा हा हा”

”अच्छा…।” मैंने कहा।

”मम्मी… आपको हँसी नहीं आई?” आनंद ने ठुमककर पुछा।

”क्यों… किस बात पर?’ मैंने टमाटर भूँजते हुए पूछा तो आनंद गुस्सा हो गया, बोला, ”बस दीदी की बात ध्यान से सुनती हो… अभी तो बताया था ना निशांत वाली बात।”

मैं कुछ कहती कि बाहर गेट के खुलने की आवाज आई और आनंद अपने गुस्से को स्थगित करता हुआ पापा के लिए दरवाजा खोलने भाग गया। उसके पापा ने अपना पैर अंदर डाला ही था कि वह शुरू हो गया – ”पापा, मम्मी दीदी की बात ध्यान से सुनती हैं मेरी नहीं…”

”क्यों भई… मेरे बेटे की बात पर ध्यान दिया करो…” पलाश ने हाथ का बैग सोफे पर रखते हुए कहा तो आनंद प्रसन्न होकर ताली पीटने लगा। उसे प्रसन्न देख पलाश ने उससे कहा – ”जाओ तो बेटे, जरा सोफ्रामाइसिन लेते आओ। स्…सा…ल्…ला गेट… खोलते समय लग गया…”

मैंने तुरंत प्रतिवाद किया – ”गाली क्यों देते हो?”

”अरे!… मैंने कब दिया?”

”अभी साला किसने कहा?’

”ओह… ” पलाश ने अब मेरी तरफ गौर से देखा और पूछा – ”क्या हुआ… उखड़ी हुई क्यों हो?’

”हाँ…” सहज ही स्वीकार करते हुए मैंने हथियार डाल दिए और बताया ”वो आज फिर मीटिंग थी ना…”

”मीटिंग-वीटिंग में बहुत कुछ चलता रहता है… ज्यादा टेंशन नहीं लेना चाहिए…” कहते हुए पलाश ने मुझे हल्का करना चाहा।

”मम्मी… खाना बन गया क्या, दो ना… भूख लग गई… ” आनंद ने ठुनककर कहा।

”हाँ मम्मी… चटनी की बहुत अच्छी खुशबू आ रही है…” मित्रा ने अपने भाई का समर्थन किया।

पलाश अब तक फ्रेश होकर आ चुके थे और सलाद काटने की तैयारी कर रहे थे। मित्रा ने प्लेट निकालना शुरू किया और आनंद हमेशा की तरह पानी ला रहा था। सारे काम निपटाते हुए, खाने के दौरान बच्चों की मजेदार बातें भी चलती रहीं पर मैं बोझिल ही बनी रही। पलाश को अब लगा कि कुछ गंभीर मसला है। बच्चों के सोने के बाद उन्होंने पूछ ही लिया ”क्या हो गया, कौन-सी मीटिंग ने परेशान कर रखा है?’

”स्वीकृत पदों पर दैनिक वेतन भोगी कर्मचारियों के नियमितीकरण की बैठक चल रही है।” मैंने बताया।

”कहाँ… क्या विज्ञापन हुआ था… कौन-सी पोस्ट है… एक-दो लोगों ने कह रखा है…” कहते हुए पलाश ने मेरी ओर देखा। मुझे गुस्सा आने लगा था।

”अरे बाबा… वो लोग आवेदन कर देंगे… कोई सिफारिश नहीं कर रहा हूँ।” उन्होंने पहले के पहले ही सफाई दे दी।

”मैं जानती हूँ कि तुम सिफारिश नहीं कर रहे हो… पर यहाँ आवेदन करने की जरूरत नहीं है, स्वीकृत पदों में कुछ प्रतिशत पहले से काम कर रहे लोगों में से योग्य लोगों को बहाल करने का प्रवधान है… उनकी बात चल रही है।”

”अरे तो गुस्सा क्यों हो रही हो… क्या मुझे पता है…’

हाँ… मैं क्यों बेवजह गुस्सा हो रही हूँ पलाश पर… इनको तो कुछ पता ही नहीं है। मुझे अफसोस होने लगा। पलाश से सॉरी कहना उचित था।

फिर पलाश पूछने लगे -”क्या हुआ?’

”कुछ नहीं।” मैंने जवाब दिया।

पलाश समझ गए कि मैं ज्यादा कुछ कहना नहीं चाहती।

”तो ऐसा करो सो जाओ… स्ट्रेस कुछ कम होगा…” पलाश ने सुझाव दिया। मुझे भी लगा कि अब यही ठीक होगा। बच्चों के ऊपर चादर ठीक से ओढ़ाते हुए उन्होंने अपने साथ-साथ मेरे लिए भी जगह बनाई और मुझे अपनी बाँहों में ले लिया। मैं भी सोने की कोशिश करने लगी। पर मेरी नींद तो जाने कहाँ खुद ही नींद ले रही थी कि उसे अपना काम ध्यान ही नहीं रहा। मेरी नींद को मेरी नींद लग गई थी और मैं पलकें झपका रही थी। अपने कर्त्तव्य के प्रति लापरवाही बरतने के कारण मुझे उसे तत्काल बर्खास्त कर देना चाहिए था… और कुछ नहीं तो सस्पेंड तो कर ही देना चाहिए था। मेरे बाजू में ही सोए बच्चों को कितने प्यार से दुलरा रही थी नींद और पलाश पर भी मेहरबान थी क्योंकि थोड़ी ही देर में पलाश के खर्राटे गूँजने लगे थे और मुझ पर उनकी गिरफ्त ढीली पड़ गई। मैं करवटें लेने लगी। बार-बार मीटिंग में कहे गए वे शब्द ही मेरे कानों में गुंजार कर रहे थे – ”रेग्युलर होने के बाद… साले काम नहीं करते।”

See also  रामकली | रमेश पोखरियाल

पलाश को पता चल ही गया था कि मैं जाग रही हूँ। बीच-बीच में अलसाई आवाज़ में कह उठते, ”सो… जा…ओ…’ पर मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मेरे बेडरूम में वही मीटिंग हॉल बन आया हो। सारा दृश्य फिल्म की तरह रिवाइंड हो रहा था। समिति के लिए स्थापना विभाग के पास के कमरे में ही बैठक की व्यवस्था कर दी गई थी ताकि किसी भी तरह की जानकारी तुरंत ही हासिल की जा सके। एक आयताकार बड़ी-सी मेज के चारों तरफ दस कुर्सियाँ थीं।

मेडिकल कॉलेज में तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के पद स्वीकृत हो गए थे। मुझे इससे संबंधित समिति में बतौर अनुसूचित जाति के प्रतिनिधि सदस्य के रूप में नामांकित किया गया था। डॉ. कँवर अनुसूचित जनजाति से, प्रो. अली अल्पसंख्यक वर्ग का प्रतिनिधत्व कर रहे थे जो समिति के अध्यक्ष भी थे, प्रो. वाजपेयी और डॉ. कृष्णन सामान्य वर्ग से थे और प्रस्तुतकर्त्ता अधिकारी उपकुलसचिव दुबे जी थे। मैं अपने संस्था प्रमुख की मुक्त कंठ से प्रशंसा कर रही थी कि उन्होंने नियमानुसार समीति बनाई थी। समिति के समक्ष समस्त दैनिक वेतन भोगी कर्मचारियों की फाइलें रखी गईं। फाइलों का अंबार लगा दिया गया था। पूरा कक्ष ही फाइलों से भर गया था। कमरे में प्रवेश करते ही सड़े कागजों की बू आने लगी। अध्यक्ष तुरंत ही बाहर निकल गए और उन्होंने कहा – ”क्या हो दुबे जी… आपको हम स्वस्थ अच्छे नहीं लगते क्या… ऐसी बदबू के बीच हमें कितने घंटे बैठा लेंगे। सारी खिड़कियाँ खुलवाइए, रूम फ्रेशनर का छिड़काव कराइए… तब काम करेंगे भई… हमारी तो तबीयत ही खराब हो जाएगी ऐसे एनवायरामेंट में… ” शिकायत दर्ज करते हुए उन्होंने समिति के सदस्यों से अगले दिन आने का निवेदन किया।

दूसरे दिन फिर सारे लोग जब आ गए तो अध्यक्ष ने सूचना दी – ”देखिए भई… सरकार द्वारा जो स्वीकृत किए गए हैं, वे पद हैं – लिपिक, बुक लिफ्टर, माली, चपरासी के साथ-साथ स्वीपर के पद हैं। सर्वाधिक पद स्वीपर के हैं।”

”कितने हैं?” – मैंने छूटते ही पूछा।

”इत्मीनान रखिए… सब बताता हूँ… क्या भई… आज चाय नहीं पिलाएँगे… पंडिज्जी… क्या आज भूखे भजन कराएँगे?’ हल्के से मुस्कुराते हुए अध्यक्ष ने थोड़ा ताना मारा।

”नहीं नहीं सर… देखिए… आते ही भेज दिया था भैनालाल को चाय और समोसा लाने…। आता ही होगा।” दुबे ने खींस निपोरते उत्तर दिया।

”अच्छा तो चाय के आने तक आप कम-से-कम पद संख्या बता दीजिए।” मैंने व्यग्रता के साथ कहा।

”बताते हैं… बताते हैं… आप यह तो बताइए इसके पहले आप और किसी समिति में थीं।” उन्होंने मुझसे पूछा।

”इस तरह की समिति में तो नहीं थी… सर!” मैंने जवाब दिया।

”तभी तो… ” अध्यक्ष ने उपहास भरी नजर से सबको देखते हुए कहा।

मैंने बेचैनी से पहलू बदला कि फिर वे कहने लगे- ”गंभीरतापूर्वक सुनिए भई…” कहते हुए उन्होंने दुबेजी की ओर देखा और बोले – ”समोसे कहाँ से मँगवाए… बहुत टेस्टी हैं… एक और ले लेता हूँ…”

दुबेजी की नजरें तो समोसे पर थीं ही। मन मसोसकर बोले – ” जी… जी…”

अध्यक्ष ने अपनी बात कहना जारी रखा – ”आप लोगों से निवेदन है कि इस कक्ष में जो बातें होंगी, उन पर बाहर चर्चा नहीं करिए… अननेसेसरी लोग फिर परेशान करते हैं… हमें यहाँ गोपनीयता के साथ काम करना चाहिए… क्यों भई… वाजपेयी जी… ठीक कह रहा हूँ ना…” कहते हुए उन्होंने मुझे और डॉ. कँवर को देखा।

”बिल्कुल ठीक कह रहे हैं… इसमें क्या शक है।’ प्रो. वाजपेयी के साथ बाकी सब लोगों ने भी सहमति प्रगट की तो अध्यक्ष ने बात आगे बढ़ाई – ”तो डिटेल्स इस प्रकार हैं… लिपिक के चार पद, बुक लिफ्टर के दो, माली का एक, चपरासी के दो और स्वीपर के चौदह पद हैं। इन्हीं पदों पर नियमितीकरण करना है…।”

मैंने सोचा कि ठीक ही तो है, मेडिकल कॉलेज भला बिना स्वीपर के चल सकता है? अध्यक्ष के निर्देश जारी थे। वे कह रहे थे – ”ऐसा करिए कि सारे लोगों की फाइलें लेकर उनकी उम्र, शिक्षा, अतिरिक्त योग्यता और वर्ग के हिसाब से वर्गीकरण कर लीजिए।”

इसी के अनुसार हम फाइलें चेक करते चले जा रहे थे। अतिरिक्त योग्यता के तहत हम हिन्दी और अंग्रेजी में टायपिंग क्षमता और स्टेनोग्राफी की दक्षता आदि देख रहे थे। अचानक प्रस्तुतकर्त्ता दुबेजी छींकने लगे और कमरे से बाहर हो गए कि दुबारा चाय आ गई थी। दुबे जी वापस आकर कहने लगे – ”क्या बताएँ सर! एलर्जी से परेशान हो गया हूँ… फाइलें जाने कहाँ-कहाँ से इकट्ठा कर पाया हूँ… कोई कहीं तो कोई कहीं पड़ी थी। जो पहला पुराना भवन था ना, वहाँ से निकाल कर लाया हूँ फाइलें… कई सालों से बंद होने के कारण कमरे में फाइलों के बीच साँप, बिच्छू मिले… दूर से लकड़ी से हिला-हिलाकर तब फाइलों को उठाने की हिम्मत कर पा रहे थे। लकड़ी से फाइलें उठाते, ठोंकते, सरकाते और दूर जाकर खड़े हो जाते थे कि कुछ निकला तो जान सही-सलामत रहे।”

See also  कोन्हारा घाट | गीताश्री

अध्यक्ष ने कहा – ”रुको यार! तुमको भी छब्बीस जनवरी को वीरता पुरस्कार दिलवाते हैं।”

सब लोग हँस रहे थे पर दुबे जी के प्रति सहानुभूति का भाव भी था। फाइलें सच में ही बहुत खस्ता हालत में थीं। किसी फाइल में पानी पड़ गया था तो कुछ को दीमकें चाटने लगी थीं।

तथ्य संकलन में कुछ दिक्कतें हो रहीं थी। काम एक दिन का नहीं था। रोज ही बैठक होने लगी। मुझे और डॉ. कँवर को छोड़कर सब लोगों में से कोई न कोई बैठक छोड़कर चला जाता। कभी डीन ने बुलाया तो कभी वित्ताधिकारी ने तो किसी को बच्चे को लेने जाना है। ज्यादातर फाइलों में केवल एक टीप लगी हुई थी – ”यांत्रिकी विभाग में उपस्थिति देकर काम करिए।” कौन व्यक्ति किस कार्य के लिए नियुक्त हुआ था इसका कहीं कोई उल्लेख नहीं था। हम बड़ी गंभीरता से जन्मतिथि और कार्यादेश की तिथि देख रहे थे। मेरा ध्यान इस बात पर गया कि तृतीय वर्ग में दो क्षत्रिय, एक वैश्य और बाकी सारे पंद्रह कर्मचारी ब्राह्मण थे और चतुर्थ वर्ग में इक्का-दुक्का ब्राह्मण, बीस पिछड़ा वर्ग और पाँच अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति से एक कर्मचारी था। मैंने समिति के सामने इस बात को जोर से रखा और रोस्टर जानना चाहा।

डॉ. कृष्णन ने मुझसे कहा -”अरे मैडम! रोस्टर तो नियमानुसार दो सौ प्वाइंट का है, बस आप तो बस क्वालिफिकेशन देखिए।”

इससे पहले कि मैं कुछ कहती प्रो. वाजपेयी ने कहा – ”आप चिंता न करें। हम पूरी सहानुभूति के साथ काम करेंगे। यदि रिजर्व केटेगरी से किसी को काम नहीं भी आता है तो भी हम उसे एक साल का समय देकर उसे योग्यता हासिल करने का अवसर देने की सिफारिश करेंगे।”

”पर इसकी तो यहाँ जरूरत ही नहीं है। ये देखिए मैंने और डॉ. कँवर ने यह सूची तैयार की है जिसमें इन चतुर्थ श्रेणी के आवेदकों में लगभग सबके पास हिन्दी और अंग्रेजी टाइपिंग परीक्षा उत्तीर्ण करने का प्रमाण पत्र है और छह लोगों के पास तो आशुलिपिक की योग्यता भी है जबकि तृतीय वर्ग के आवेदकों में सिर्फ एक के पास हिन्दी अंग्रेजी टाइपिंग की परीक्षा उत्तीर्ण करने का प्रमाण पत्र है।” मैंने कहा।

”ऐसा तो नहीं हो सकता।” प्रो. वाजपेयी ने छूटते ही कहा।

”हाथ कंगन को आरसी क्या… ये देखिए…।” मैंने भी जड़ ही दिया।

”अरे मैडम… प्रतिभा और योग्यता भी कोई चीज होती है कि नहीं?” प्रो. वाजपेयी ने भी हार नहीं मानी।

”हाँ… तभी तो… देखिए ना… चतुर्थ श्रेणी वालों ने अपना आवेदन कैसे प्रॉपर मैनर में दिया है और यह तृतीय श्रेणी वाला एक तिवारी ही बस अर्हता पूरी करता है और टाइपिंग तक नहीं आती… चार लाइन में पाँच गलती…” मैंने भी चुनौती दी।

”कुछ तो कर के दिया बेचारे ने…” प्रो. वाजपेयी ने तंबाकू फाँकते हुए मेरी तरफ बगैर देखे कहा।

मैं तो अवाक ही रह गई थी यह सुनकर। चतुर्थ वर्ग के लागों को किस तरह नकार दिया था उन्होंने जिनके पास कार्य से अधिक योग्यता थी।

लगभग एक सप्ताह बीतने को चला था। समीति के अध्यक्ष प्रो. अली रोज ही समीति की कार्यवाही की सूचना डीन को देते थे। इस बीच समीति की रोज की बैठकें कर्मचारियों और छात्र नेताओं की बहस का विषय हो चली थीं। पूरे परिसर का माहौल गर्म हो गया। सबको लगता कि उनके साथ कहीं कुछ गलत न हो जाए। पद संख्या तो सीमित थी, जाने किसकी छँटनी हो जाए। एक दिन बाहर कॉरीडोर में प्रो. शुक्ला और डॉ. सिंह मिल गए और मुझसे बैठक की जानकारी लेना चाहा। प्रो. शुक्ला ने कहा, ”क्यों मैडम… क्या चल रहा है मीटिंग में… भई, आपके हाथों से बहुत-से लोग तर जाएँगे… लक्ष्मीदेवी के दर्शन हुए या नहीं… उल्लू पर ही तो सवार होती हैं आखिर।”

”मुझसे तो पूछा गया था समिति की सदस्यता के लिए… मैंने तो भई मना कर दिया था… पता नहीं कितना सच बताएँ और कितना झूठ… और किसी के साथ अन्याय हो गया तो जीवन भर का अजाब… पता नहीं मैडम कैसे सँभाल रही हैं… कहिए मैडम, टेंशन तो होता होगा ना।” डॉ. सिंह ने कहा।

दोनों की बातें सुनकर मन कसैला हो आया था। केवल इतना ही कहा – ”भई, संस्था में हैं तो संस्थागत कार्य से कब तक बचेंगे और पद स्वीकृत हुए हैं तो नियमितीकरण होना ही है। उसमें मेरा भला क्या रोल है। लक्ष्मी और उल्लू से भला मेरे जैसे नास्तिकों का क्या वास्ता… जो भी होगा सब सामने आ जाएगा… अच्छा…”

”हाँ भई! मैंने तो देखा है… मैडम बड़ा खतरनाक साहित्य पढ़ती हैं…” डॉ. सिंह ने पुछल्ला लगाया।

”अच्छा!… आपने कब देख लिया…” मैंने पूछा

”वहीं आपके कमरे में जब आप व्याख्यानमाला की तैयारी में कुछ कविता पोस्टर लगवा रही थीं।” उन्होंने अपनी अच्छी स्मृति का एहसास कराया।

”अच्छा वो… वो तो गोधरा कांड पर गुलज़ार और अंशु मालवीय की कविताएँ थीं।” मैंने हँसते हुए कहा और चल पड़ी।

एक दिन समीति के अध्यक्ष ने चुटकी लेते हुए कहा – ”कब तक सरकारी चाय समोसा खाएँगे आप लोग… बहुत दबाव है भई इस काम को जल्दी पूरा करने के लिए… अब हम लोगों ने सभी लोगों की फाइलें देख ली हैं और सारे तथ्य भी सामने आ गए हैं… बस अब हर केटेगरी में योग्यतानुसार वरिष्ठताक्रम को ध्यान में रखते हुए नाम चढ़ाते जाना है।”

”पर अभी तो स्वीपर के पदों के लिए हमने नाम देखे तक नहीं जबकि सबसे अधिक पद वहीं हैं।” मैंने अपनी चिंता जाहिर की।

”उसे आखिरी में करेंगे।” अध्यक्ष ने मुझे आश्वस्त कर दिया।

अब चूँकि सारे लोग सूचीबद्ध हो चुके थे तो उनके नियमितीकरण की सिफारिश में कोई विशेष परेशानी नहीं आई।

पर इतना करते हुए भी शाम के छह तो बज ही गए थे। सबने एक बार फिर मिलान कर लिया कि कहीं कोई गलती तो नहीं रह गई वरना होम करते हाथ जले वाली स्थिति न हो जाए। सारी फाइलें अब बँधने लगी थीं। मैंने कहा, ”अब तो सब कुछ हो गया है और स्वीपर रह गए हैं। कल सबसे पहले स्वीपर के पदों पर नियमितीकरण का मसला देख लेंगे इसलिए उनकी फाइलें अभी ही ऊपर रख ली जाएं। दस ही तो हैं…”

See also  प्रलय | जयशंकर प्रसाद

”उन पर काम नहीं करना है।” मि. कृष्णन ने जवाब दिया।

”क्यों?’ मैंने छूटते ही पूछा।

”पूछिए ना… प्रो. अली से… हा हा हा… अब तो हमारा काम खतम हो गया मैम… कल आकर साइन करना है बस।” मि. कृष्णन के स्वर में थोड़ी तुर्शी थी।

”हैं… क्या मतलब… हाँ सर… क्या कोई आदेश आया है…” मैंने अध्यक्ष से बेचैन होकर पूछा।

”हाँ… ऐसा ही समझिए।” प्रो. अली ने थोड़ी शुष्कता से जवाब दिया।

”अच्छा… अब तक तो आपने बताया नहीं… जरा आदेश दिखाइए तो… क्या लिखा है,’ मैंने सहजता के साथ अपनी प्रतिक्रिया दी।

”मैडम, उन पर काम नहीं करना है…बस।” उन्होंने बताया।

”पर क्यों?’

”रेग्युलर होने के बाद… साले काम नहीं करते…” प्रो. अली की आवाज में करारी तलखी थी। मेरे मुँह को तो जैसे ताला लग गया। मेरी बोलती बंद हो गई। जैसे सन्नाटा पसर गया था सारे वातावरण में। बाकी लोगों के चेहरों पर एक व्यंग्यपूर्ण दबी हुई-सी मुस्कान खिलने लगी थी। मैंने डॉ. कँवर की तरफ आँख उठाकर देखा तो उन्होंने भी अवश भाव से आँखें झुका लीं। जब सब उठने लगे तो मैंने चुपचाप अपना पर्स उठाया और सबको नमस्ते करती हुई घर आ गई थी। तब से लगातार बेचैन। मेरे कानों में वही शब्द गूंज रहे थे – ”रेग्युलर होने के बाद… साले काम नहीं करते…” ”रेग्युलर होने के बाद… साले काम नहीं करते…”

रात भर मुझे नींद नहीं आई पर सुबह जब मैंने बिस्तर छोड़ा तो एक आत्मविश्वास आ गया था। बच्चों को तैयार कर स्कूल भेज दिया और खुद भी गुनगुने पानी से स्नान करते हुए मानो सारी मानसिक थकान मैल की तरह मैंने उतार दी। विश्वविद्यालय जाने के लिए सिल्क की एक बहुत सुंदर-सी साड़ी बांधी और क्लास में भी विद्यार्थियों को खूब हँसाया और फिर चल पड़ी मीटिंग के लिए।

अध्यक्ष और सारे सदस्य आ गए थे। मैंने अध्यक्ष से कहा, ”क्या सर… बड़ी जल्दी ही ये काम करवा लिया आपने… मानना पड़ेगा…”

”हें हें हें… आप ही लोगों ने किया है भई… मेरा क्या।” अध्यक्ष ने अपनी विनम्रता प्रदर्शित की।

”सर, क्या कोई दबाव था इसके लिए…” मैंने फिर पूछा जैसे उनके मनमाफिक बात छेड़ दी हो मैंने। उन्होंने पूरे उत्साह से बताना शुरू किया और मैं गंभीर बनी रही।

”अरे अभी पंद्रह दिन पहले ही तो मुख्यमंत्री से ये कर्मचारी नेता लोग मिल कर आए थे… बहुत दबाव है… अभी जो हफ्ते भर पहले डीन का घेरावकर उनकी टेबल का जो शीशा तोड़ा गया था, उसका कारण भी यही था कि हम जल्दी सिफारिशें नहीं दे रहे हैं।…”

”बहुत खराब हैं ये लोग…”

”अरे मैडम, सबको जानता हूँ… नालायक… सब अच्छे परिवारों से हैं… उनके पैंरेंट्स बड़े संस्कारी हैं… नेतागीरी के चक्कर में पड़े हैं… पर हम भी क्या करें… जैसा आदेश…” उन्होंने मासूमियत के साथ कहा।

”तो ये बताइए … जिन लोगों ने मुख्यमंत्री से दबाव बनवाया, जिन लोगों ने डीन का घेराव कर कॉलेज की संपत्ति को नुकसान पहुँचाया… ये लोग कैसी काबिलियत रखते हैं… यही लोग हैं जो हमारे यहाँ काम कर रहे हैं… कभी सीट पर नहीं मिलते… इनसे फाइलें आगे बढ़ाई नहीं जातीं… फाइलें गुमा दी जाती हैं… और आप कहते हैं… दबाव है… इनके लिए…” मैं फट पड़ी।

हॉल में शांति तैर आई थी। प्रो. अली, प्रो. वाजपेयी और मि. कृष्णन का चेहरा लटक गया था और डॉ. कँवर अपनी निरपेक्षता के बावजूद संतुष्ट लग रहे थे। मैंने अपना कहना जारी रखा, ”इतने बड़े कॉलेज में कितने स्वीपर हैं… वाशरूम तो सारे समय इस्तेमाल होते हैं… उनकी सफाई की जिम्मेदारी सुबह के समय उस स्वीपर को आपने दे रखी है… बाकी हम लोग दिन भर इन वाशरूम्स का इस्तेमाल करते हुए कितने सावधान होते हैं… सारे लोग बीड़ी, गुटका, तंबाकू, सिगरेट वहाँ फेंकते हैं… एक दिन यदि किसी स्वीपर ने छुट्टी ले ली तो बदबू तो उठेगी ही… वो एक दिन नहीं करता तो कह दिया कि काम नहीं करते और इतनी महत्वपूर्ण फाइलों को गुमाने वाले ये लोग काम करते है।… बोलिए।”

”आप ठीक कह रही हैं…” अध्यक्ष ने मरे-से स्वर में कहा।

”आप सब यह जान लीजिए कि जब तक स्वीपर के पदों पर नियमितीकरण का कार्य नहीं होगा… मैं इससे संबंधित किसी भी कागज पर हस्ताक्षर नहीं करूंगी।”

अब तक साढ़े छह बज गए थे। सबके साथ मैं उठकर चली आई।

अगले दिन अध्यक्ष का सुर बदला हुआ था। मीटिंग में अध्यक्ष कह रहे थे, ”अरे भई… भ्रष्टाचार की कौन कहे… सिर्फ पुरुष ही थोड़ी करते हैं… महिलाएँ भी करती हैं… क्यों मैडम… आपका क्या ख्याल है?’

”हाँ… समाज से कोई अलग प्राणी तो हैं नहीं महिलाएँ… माहौल और नेचर के हिसाब से ही काम करते हैं सब।” मैंने कहा।

”देखिए भई… मैडम भी मान गईं… अरे भई… इंदिरा गांधी भी भ्रष्टाचार में लिप्त थीं तो साधारण औरतों की कौन कहे…’ उन्होंने कहा।

”अच्छा चलिए काम करते हैं… मैडम, क्या आपसे कोई स्वीपर मिला था?” डॉ. कृष्णन ने मुझसे पूछा।

”नहीं तो… क्यों?’ मैंने जानना चाहा।

”नहीं… बस यूँ ही।” प्रो. वाजपेयी की तरफ देखते हुए उन्होंने जवाब दिया।

”अच्छा… तो आज का काम शुरू करें।’ मैंने सबकी सहमति लेना चाहा।

सुनते ही अध्यक्ष ने कहा, ”नहीं… अब नहीं करना है… कोई और पेंच पड़ गया है जब तक स्पष्ट नहीं होगा तब तक कोई मतलब नहीं काम करने का… फालतू का काम कर रहे हैं… नियमितीकरण के चक्कर में हमारे विभाग का नुकसान हो रहा है… जाएँ और पढ़ें-पढ़ाएँ भई। चाय पीने के बाद निकल चलते हैं… जब आदेश आएगा तब बाद में कर लेंगे मीटिंग।’

Download PDF (यू टर्न )

यू टर्न – U Turn

Download PDF: U Turn in Hindi PDF

Leave a comment

Leave a Reply