ट्रॉफी | पल्लवी प्रसाद
ट्रॉफी | पल्लवी प्रसाद

ट्रॉफी | पल्लवी प्रसाद – Trophy

ट्रॉफी | पल्लवी प्रसाद

शाश्वत सरस्वती विद्यालय! इस सब-डिविजन का यह सबसे बड़ा और पुराना विद्यालय है। आपको यहाँ शायद ही कोई शख्स मिलेगा जो यहाँ से न पढ़ा हो या जिसके बच्चे यहाँ न पढ़ रहे हों। लिहाजा, यदि कहा जाए कि यह विद्यालय समाजवाद का परचम है, तो बात गलत न होगी। स्कूल के वृहद परिसर में बनी जुदा इमारतों में नर्सरी से ले कर जूनियर कॉलेज की कक्षाएँ लगती हैं, जहाँ लड़के-लड़कियाँ साथ पढ़ते हैं। स्कूल के दो गेट हैं, पश्चिम और पूर्वी दिशाओं में। यूँ खेलने का मैदान पार कर, कच्चे रास्ते से भी बच्चे आवाजाही कर लेते हैं।

हाल ही में स्कूल परिसर के पश्चिमी छोर पर चार कमरों की श्रृंखला का निर्माण हुआ है। इन कमरों में टीचर के लिए बोर्ड, मेज, कुर्सी और बच्चों के बैठने के लिए बेंचों की व्यवस्था है। कमरों की रंगाई-पुताई बाकी है, बत्ती-पंखे भी नहीं लगे हैं। बाहर लगी तख़्ती कहती है – ‘शाश्वत सरस्वती कॉन्वेंट स्कूल’। ‘कॉन्वेंट’ का स्थानीय अर्थ हुआ इंग्लिश मीडियम। नई पीढ़ी के लोग अपने नौनिहालों को ‘कॉन्वेंट’ स्कूलों में भरती करा कर चौड़े हो जाते हैं… आजकल इलाके में कई छोटे-मोटे कॉन्वेंट चल पड़े हैं। शाश्वत सरस्वती संस्था शैक्षणिक क्षेत्र का पुराना मँजा खिलाड़ी है। जवाब में उसने भी यह कॉन्वेंट स्कूल खोल दिया है। हालाँकि इन स्कूलों में कितनी अँग्रेजी पढ़ाई जाती है, इसकी चर्चा शेष रहेगी।

बहरहाल, माध्यमिक शाला के शेल्के सर कॉन्वेंट के इंचार्ज हैं। स्कूल में नर्सरी से लेकर हायर के.जी. तक की चार कक्षाएँ हैं, पर्याप्त एडमिशनें हुई हैं। प्राइमरी की दो टीचरों को यहाँ भेज दिया गया है। अन्य दो टीचरों को नियुक्त करने के लिए इंटरव्यू रखा गया है। – सुचेता सरदेसाई की शाश्वत सरस्वती कॉन्वेंट स्कूल में नौकरी लग गई है। पिछले साल उसकी बेटी प्रिया यहाँ लोअर के.जी. में पढ़ती थी। इस साल वह हायर के.जी. में जाएगी। पहले सुचेता बेटी को रोज छोड़ने-लेने स्कूल आया करती थी। अब वह भी यहीं टीचर लग गई है। एक और टीचर बहाल हुई है – सुकेशिनी सावले। इंटरव्यू के दिन जो बहुत ही डरी-सहमी सी नवयुवती थी… वही है सुकेशिनी सावले।

दिन के बारह बज रहे हैं। स्कूल की घंटी बज गई है। इस घंटी का दो मतलब है – एक, सुबह चलने वाली कक्षाएँ छूट गईं, दूसरा, कॉन्वेंट की कक्षाएँ अब शुरू होंगी। इस समय पश्चिमी गेट पर बड़ी अफरा-तफरी मचती है। कुछ बड़े बच्चे इस तरफ से ही अपने घर लौटते हैं। परंतु ज्यादा भीड़ कॉन्वेंट में आने वाले छोटे बच्चों और उनके अभिभावकों की है। कई बच्चे अपनी माँओं का हाथ थामे, कई अपने पिता के साथ दुपहिये वाहनों पर या फिर ऑटो में बैठ कर स्कूल आ रहे हैं। दादी…नानी… बहन-भाई भी बच्चों को छोड़ने आते हैं। बच्चे अपनी कक्षाओं में जाते हैं… कोई खास जगह पर बैठने की जिद करता है, कोई दूसरे बच्चे की शिकायत, फैसला करवाता है…। टीचर को आते देख, उनके अभिभावक उन्हें छोड़ कर कक्षा से बाहर जाने लगते हैं। तब… बच्चों की आँखों में एक ही याचना होती है, ‘मुझे जल्दी लेने आना?’

टीचर अपना पर्स और रजिस्टर टेबल पर रखती है। एक नजर क्लास पर डाल कर, बच्चों को हाथ जोड़ कर खड़े होने का आदेश देती है। वह प्रार्थना करना शुरू करती है…” ओ गॉड…।” बच्चे टीचर के पीछे दुहराते जाते हैं।

टीचर नाम पुकारती है। बच्चे अपनी हाजिरी दे रहे हैं। वह सबकी जगह पर जा कर होमवर्क चेक करती है। शाबाशी-पुचकार-अनुरोध-झिड़की… कॉपी देख, वह यथा उचित प्रतिक्रिया देती जा रही है। अब आज की पढ़ाई शुरू होगी। कोई खास निर्धारित-सा अभ्यास क्रम या पुस्तकों का सेट नहीं है। स्लेट की पाटी पर बच्चे अक्षरों को चॉक पेंसिल से लिखते हैं। लिखते-लिखते मिटाते हैं, फिर लिखते हैं…। सुचेता बोर्ड पर कोई अक्षर लिखती है, फिर उस अक्षर से शुरू होने वाली चीज का चित्र बनाती है। उसकी ड्रॉइंग बहुत ही सुंदर है। बच्चे चित्र को देख कर खुश होते हैं, और बनाने की फरमाइश करते हैं। सुकेशिनी को जब से पता चला है, वह भी उसे बुला ले जाती है, “दो मिनट, मैडम, मेरे बच्चों के लिए भी चित्र बना दो? ” सुचेता जा कर झट से चित्र बना देती है। बच्चे खुश हो जाते हैं। दोनों हँसती हैं, वह अपने क्लास में लौट जाती है। दोनों क्लासें अगल-बगल हैं – एल.के.जी. ‘ ए ‘ और एल.के.जी. ‘ बी ‘।

छोटे बच्चों को पढ़ाने का सुचेता का यह पहला अवसर है। मन ही मन वह कभी झुँझला जाती है लेकिन ऊपर से सब्र दर्शाती है। बच्चे एक से बढ़ कर एक हैं – कोई हमेशा दूसरे पर गिरा जाता है, कोई हथछुट्टा है, किसी की वॉटर बॉटल बहती है और कई रोते हैं। एक गुजराती लड़का है जो हमेशा बैग-बस्ता लादे खिड़की से बाहर ताकता रहता है। माँ के इंतजार में उसकी भवें तनाव से जुड़ी रहती हैं। उस दिन सुचेता ने एक बच्ची को झिड़क दिया, “तुम्हारे पास वॉटर बॉटल नहीं है?” – बच्ची ने भोलेपन से अपनी बॉटल उठा कर दिखाई। पानी से भरी काँच की बोतल… देसी शराब की। सुचेता – “कौन दिया यह तुम्हें?” बच्ची – “दादाजी।” स्कूल छूटने पर जब बच्ची की दादी उसे लेने आई तब सुचेता ने उन्हें आड़े हाथों लिया था।

रिसेस होने पर कुछ बच्चे अपना डिब्बा खुलवाने सुचेता की मेज पर आ जाते हैं। उनमें एक सिंधी बच्चा आता है… शुभम् कृपलानी। उसके डिब्बे में घी के मोटे पराँठे भरे होते हैं। सब्जी में इतना तेल होता है कि सुचेता के हाथ, मेज… सब गंदे हो जाते हैं। बड़ी कोफ्त होती है उसे लेकिन वह क्या करे? गरम खाने के साथ बंद किया डिब्बा वह ही बड़ी दिक्कत से खोल पाती है, बच्चे से तो वह खुल ही नहीं सकता।

रिसेस में चारों टीचर हायर के.जी. के क्लास में एकत्रित होती हैं। तब वह कमरा स्टाफ रूम में परिवर्तित हो जाता है। एक रोज, सुचेता को वहीं पता चला कि इंटरव्यू में जो ट्रस्टी कृपलानी जी बैठे थे, उन्हीं का पोता है शुभम। “तब तो डिब्बा खोलना बनता है।” – उसने हँस कर कहा। टीचरें आपस में बातें करती हैं कि बच्चों को कितनी गर्मी लगती है… और उन्हें भी। शेल्के सर से कह कर पंखे लगवाने चाहिए। …फिर शेल्के सर की सब निंदा करने लगती हैं। साठे मैडम ने सहानुभूति के स्वर में टोका, “बेचारे सर! कितने दुखी हैं…।” आगे हुए वार्तालाप का निचोड़ यह है – “शेल्के सर की तीन बेटियाँ हैं। चौथी बार बच्चा रहने पर उन्होंने उसका लिंग जाँच करवाया तो सौभाग्य से लड़का ही निकला। लेकिन भाग्य की मार देखो! टेस्ट से भ्रूण के द्रव्य में कमी आ गई। बेटा तो जन्मा लेकिन उसकी रीढ़ की हड्डी में गड़बड़ रहने से न तो उसका मानसिक विकास हुआ है न शारीरिक… निपट पंगु है।” अब निंदा की जगह सामूहिक सहानुभूति के स्वर ने ले ली। सुकेशिनी और सुचेता सिर्फ सुन रही हैं।

एक नया बच्चा आया है सुचेता की क्लास में – अमित महाजन। वह सुंदर, स्वस्थ और खुश रहने वाला बच्चा है। लेकिन कॉपी में कोई काम नहीं करता। सुचेता उसके पास खड़े होकर सिखाती है तो झट बात मान लेता है। फिर उसके पलटते ही पढ़ना छोड़ देता है। घर से भी वह कोई काम कर के नहीं आता। कभी क्लास में ही टिफिन निकाल कर खाना खाने लगता है। मना करने पर समझता नहीं। सुचेता ज्यादा ध्यान नहीं देती, सोचती है, ‘बच्चा है, नया है। धीरे-धीरे कक्षा में बैठने का सलीका सीख जाएगा…।’ उसे राहत है कि अमित रोता नहीं, वरना शुरुआत में अनेक रोअंटों ने उसकी जान खाई है।

दोपहर की स्कूल में बिना पंखे दिन काटना दूभर है। निबोले बच्चों की हालत दयनीय है। शेल्के सर ने वादे तो कई बार किए लेकिन पंखे नहीं लगवाए। टीचरें उनसे कह-कह कर हार गईं। बर्वे मैडम ठीक ही कहती हैं, “शेल्के सर पुराना घाघ है। किसी बात पर ना नहीं कहता। और जिस बात पर हाँ कहे, वह कभी करता नहीं… बात को मुद्दा बनने ही नहीं देता।” भारती बर्वे नर्सरी की क्लास टीचर हैं। उम्र ४५ तक की होगी। कुँवारी हैं। गोरी, नाटा कद, दुहरी काया, काला चश्मा लगाती हैं और पीठ पर मोटी, काली चोटी झूलती है। बच्चों को बहुत प्यार करती हैं। हमेशा खुश दिखती हैं। जिस दिन घर पर उनकी भाभी से खटपट हो जाती है, उस दिन वे ज्यादा गप्प करती हैं, हँसी-मजाक भी… लेकिन सीधे घर न लौट कर राम मंदिर में देर तक बैठी रहती हैं। राम की बड़ी भक्त हैं। मुँहफट भी हैं।

भारती बर्वे से ठीक विपरीत हैं उमा साठे मैडम, हायर के.जी. की क्लास टीचर। उनकी उम्र बर्वे मैडम जितनी ही होगी। ये काले रंग और ऊँचे कद की छरहरी महिला हैं। यह अपना कोई मन नहीं रखतीं। सबकी हाँ में हाँ मिलाती हैं। किसी की बात नहीं काटतीं। जाहिर है, नौकरी की इन्हें जरूरत है। इनके तीन जवान बच्चे हैं। पति बी.ए.एम.एस. डॉक्टर हैं। आस-पास के गाँवों और कस्बों के मरीजों को शहर के डॉक्टर तक पहुँचाने का कमीशन पाते हैं। चाहे बच्चा, अभिभावक, मैनेजमेंट या सह-टीचर हो… उमा साठे किसी से जूझती नहीं।

सुकेशिनी की शादी को छ महीने हुए हैं। नए ससुराल में वह जैसे रहती होगी, दब कर अनुसरण करती हुई वैसे ही वह स्कूल में भी रहती है। सुचेता के पति नौकरी पेशा वाले हैं। उसे घर पर अकेले रहने से अच्छी यह नौकरी लगती है। वह अपनी बेटी प्रिया को साथ लिए स्कूल आती-जाती है।

शनिवार को ‘हाफ-डे’ होता है। स्टाफ-रूम में चाय चल रही है… गप्प-शप्प भी। आज घर पहुँचने की किसी को जल्दी नहीं है। तभी, एक महिला दनदनाते हुए अंदर प्रवेश कर गई। वह साठे मैडम की परिचिता है। महिला एकदम से लाल-पीली हुई जा रही है, लगभग चिल्ला-चिल्ला कर उन्हें अपनी व्यथा बता रही है। वह गुस्से से लड़के को धक्के, मुक्के मारते जाती है… गालियाँ भी देती है। लड़का ढीठ बना खड़ा है। महिला की दूसरी बाँह पकड़े एक भूरी आँखों वाली छोटी लड़की खड़ी है – वह प्रिया की सहपाठी है। सुचेता का ध्यान उस लड़की पर है। बच्ची लाचारी से इधर-उधर ताक रही है। सुचेता से नजरें मिलने पर वह मुस्कुराने की चेष्टा करती है परंतु उसके चेहरे के भाव क्षमायाचना से बन कर रह जाते हैं। वह लज्जित है माँ के व्यवहार से। बड़े भाई के अपमान से वह भी अपमानित हो रही है। …वह औरत जैसे आई थी, वैसे लौट गई।

टीचरों की स्तब्धता टूटी तो साठे मैडम बोल उठीं, “यह सौतेली माँ है। इनकी माँ तो जल कर मर गई…। बेचारी परेशान रहती है।” फिर मानो पारी बदल कर कहने लगीं, “…सगी होती तो क्या इस तरह सबके सामने लड़के को जलील करती? बच्चों की कंपलेन तो जाती ही है स्कूल से। तो क्या हुआ?” कमरे का माहौल भारी हो गया है। सुचेता उस बच्ची के बारे में सोच रही है। तभी सामने मैदान में उसे अमित दौड़ता हुआ दिखाई दिया। उसकी ऑटो अब तक आई नहीं है इसलिए वह बच्चों के साथ खेल रहा है। सुचेता ने अमित की ओर इशारा कर उसे साठे मैडम को दिखाया और पूछा, “वह मेरी क्लास का अमित महाजन… कौन है? किसका बेटा है?” साठे मैडम बोली, “वो? …उसकी बहनें यहीं सेकेंडरी और हाई स्कूल में पढ़ती हैं। महाजन ज्वेलर्स वालों का बेटा है… टॉवर के पास जो सुनार की दुकान है? वही!” सुचेता ने आश्चर्य से कहा, “अच्छा? इसकी बहनें यहीं पढ़ती हैं? …मैंने इतना बुलवाया लेकिन साल भर से इसका कोई अभिभावक मिलने नहीं आया। बहुत परेशान करता है यह। ए-बी-सी-डी…, गिनती, कुछ नहीं आता इसे। कभी भी होमवर्क नहीं करता है। क्लास में किसी की भी कॉपी-पेंसिल ले लेता है… किसी भी बच्चे का टिफिन उठा कर खाने लगता है। कभी चालू क्लास से बिना बताए गायब हो जाता है। डाँट-फटकार का कोई असर नहीं होता। कई बार मुझसे पिट भी चुका है… ऐसी भोली आँखों से देखता है कि मत पूछो। अपनी सीट पर लौट कर फिर वही बदमाशी करता है।”

बर्वे मैडम ने सलाह दी, “ऑटो वाले से कह कर इसके माँ-बाप को स्कूल बुलवाओ।” सुचेता चिढ़ कर बोली, “ऑटो वाले से कितनी बार कहलवाया… कोई मिलने आता ही नहीं। उल्टा ऑटो वाला ही इसकी शिकायत करने लगता है। कहता है, दो बार चलती ऑटो से कूद चुका है अमित!”

बर्वे मैडम ने जोर से पुकारा, “ऐई! …अमित! इधर आ।” अमित आया तो टीचरों ने मिल कर उसकी खबर ली। वह मासूमियत से सबको देख रहा है। सुकेशिनी कहती है, “बहुत बदमाशी करता है? चल, मुर्गा बन जा।” वह मुर्गा बन गया। थोड़ी देर बाद बर्वे मैडम बोलीं, “तेरी ऑटो आ गई अमित। जा। अब अच्छा बच्चा बन कर रहना।” वह खिलखिला पड़ीं। अमित भाग गया। सारी टीचर आपस में हँस पड़ती हैं। साठे मैडम कहती हैं, “यह ज्यादा दुलार से बिगड़ गया है। बड़ी मन्नतों से जो आया है। इसकी बहनें इससे बहुत बड़ी हैं, माँ-बाप की ढलती उम्र में यह रहा तो उन्होंने मुंबई जा कर टेस्ट कराया। तब यह चार बहनों के बाद हुआ… कितना सुंदर है!”

साठे परिवार यहाँ के मूल रहवासी हैं। चूँकि डॉक्टर साहब ग्रामीण मरीजों और शहरी नर्सिंग होम्स की बिचौलिया कड़ी हैं इस नाते यहाँ के प्रतिष्ठित परिवारों की स्वास्थ्य संबंधी अंतरंग बातें वे जानते हैं। बातें पुरानी हो जाने पर उनकी गोपनीयता के प्रति सतर्कता भी नहीं बरतते। सुचेता के मुँह से निकल गया, “यहाँ बड़ा चलन है टेस्ट कराने का? यह तो गैरकानूनी है, कड़ी सजा हो सकती है। डरते नहीं लोग?” फिर क्या था, चर्चा छिड़ गई… कानून किसी के घर में थोड़े ही घुसता है। भई, एक लड़का तो जरूरी है। पैसे वाले लोग बड़े शहरों में जा कर लिंग पड़ताल करवाते हैं… डॉक्टर भ्रूण से द्रव्य निकाल कर टेस्ट करते हैं पर रिपोर्ट पक्की आती है। जिसे पैसों का हिसाब देखना पड़ता है वे लोग चार माह गर्भ पाल कर सोनोग्राफी से पता लगाते हैं। लड़की निकली तो गर्भ गिरवा लेते हैं। सुना है तकलीफ ज्यादा होती है… वह देशमुख मैडम हैं ना… इसी कारण आजकल छुट्टी पर हैं। पंद्रह दिन पहले तक अस्पताल में थीं…। इस प्रकार देर तक ऐसे ही तथ्य खुलते रहे। नवोढ़ा सुकेशिनी की मन की प्रार्थना तेज हो गई, ‘हे भगवान! जब मैं प्रेगनेंट होऊँ तो पहली ही बार में मुझे लड़का दे देना…।’

दैवयोग से चार रोज बाद ही सबकी मुलाकात देशमुख मैडम से हो गई। वे काम पर लौट आई हैं। स्कूल के मैदान में ही मिल गईं। दिखने से कमजोर मालूम पड़ती थीं लेकिन परिचय की औपचारिकता पूरी होते ही मानो उन्होंने बातों का समाँ बाँध दिया। वे दुखी नहीं, उत्साहित लगीं। पराक्रम करके लौटने का उत्साह या कहिए कि मुसीबत पार कर लेने की राहत का उत्साह? पता नहीं। वे हाल में अपने परिवार का आकर्षण केंद्र रही हैं। वे एक-एक डीटेल बता रही हैं, ऐसे, वैसे… कैसे उनकी फोर्स्ड डिलीवरी कराई गई। बड़ा भयावह वाक्या है। वे खास घनिष्ठता से जो सिर्फ महिलाओं के बीच होती है, ब्योरा देते जा रही हैं। डॉक्टर ने मुझे दिखाया… समूची थी, इतनी-सी…। वे अपनी उँगलियों और अँगूठे से एक छोटा सा इशारा बना कर बताती हैं… अपने गिराए बच्चे का आकार। घनिष्ठता का समाँ श्रोताओं की हैफ के आगे न टिक सका। …टूट गया। मंडली तितर-बितर हो गई।

छोटी जगहों की यह खासियत है, सुख-दुख में सारे सहभागी होते हैं। जरूरत सर्वोपरि है। उसे पूरी करने के रास्तों की भयंकरता को जैसे सामाजिक मान्यता मिल चुकी है। पुरुष उत्तराधिकारी एक जरूरत है। उसके लिए रेस लगी है। इस रेस में जिसने बेटियाँ जनी वह फिसड्डी है – वह ‘ऑल्सो रैन’ की पंक्ति में जाकर खड़ा होता है। विजेता वह है जो बेटा जनता है। बेटा ट्रॉफी है। इस ट्रॉफी को हासिल करने के लिए मानवता दूर, लोग खुदा से खेल जाते हैं। कभी हाथ लग जाती है फूटी पेंदी की ट्रॉफी भी। यह किसी मेज या शेल्फ पर सज नहीं पाती। तब इसे हाथों में ही उठाए पूरा जीवन काटना पड़ता है। हाथ दर्द से काँपते हैं लेकिन ट्रॉफी छोड़ी तो नहीं जा सकती? शेल्के सर का बेटा… भगवान न करे, अमित भी?

आजकल सुचेता अमित पर पैनी नजर रखती है। उसके उत्पात से वह त्रस्त है फिर भी भूल कर उस पर हाथ नहीं उठाती। वह उसको डाँटती नहीं, पास बुला कर बातों का जरिया निकालती है। हर तरह से कोशिश कर के देखती है लेकिन पाती है कि यह लड़का बेअसर है। अमित में तार्किक बुद्धि नहीं है, स्वामित्व बोध नहीं है। अपने कारनामों और उनके फल में मिलने वाली सजा की कड़ियों को वह जोड़ नहीं पाता है। मेरा-तेरा समझता नहीं। भले-बुरे का उसे कोई ज्ञान नहीं है। कॉपी निकालने को कहो तो किसी की भी कॉपी निकाल लाएगा। भूख लगने पर किसी का भी खाना खाने लगता है। उसकी उम्र के साथ ये विसंगतियाँ और उनके दुष्परिणाम भी बढ़ेंगे। ईश्वर कब तक उसकी रक्षा करेंगे?

ऐसा नहीं है कि अमित के माता-पिता परिस्थिति से बेखबर हों। उस रोज ऑटो वाले ने बताया था कि वे उसे दुगुने पैसे देते हैं – सबसे पहले अमित को घर से उठाने के लिए और उसे सबसे आखिरी में घर छोड़ने के लिए। यानी चार घंटे स्कूल में बिताने के अलावा जाती डेढ़ और आती डेढ़, जोड़ तीन घंटे अमित ऑटो में घूमते रहता है। उसके अभिभावकों ने कुल सात घंटों की राहत अपने लिए खरीद ली है।

…और एक दिन – सुचेता ने सदा के लिए खुद को अमित की चिंता से मुक्त कर लिया। छुट्टी की घंटी बजने में अब चंद मिनट ही रह जाते थे। कक्षा में बच्चे पीठ पर बैग-बॉटल लादे प्रार्थना बोल रहे थे। सुचेता की नजर क्लास के सामने के मैदान में खड़ी स्कूल की पीली बस पर पड़ी। ड्राइवर अपनी सीट पर बैठ चुका था और उसने बस घुमाने के लिए बस स्टार्ट कर ली। अनायास ही सुचेता ने देखा, बस के पहियों की आड़ में सफेद शर्ट, भूरी निकर पहने एक बच्चा गुड़मुड़ सोया पड़ा है। …वह पागलों की तरह चीखती हुई बाहर भागी। ड्राइवर ने उसे देख लिया और वह रुक गया। भीड़ जमा हो गई। हो-हल्ले से अमित जाग गया, उस पर ड्राइवर का कहर बरपा। वह मासूम अपनी डाँट-पिटाई का कारण समझ नहीं पा रहा था। सुचेता को पता भी न चला वह कब क्लास से गायब हुआ, बस की छाँह में सो गया? एक पल की देर… और वह कुचला जाता। भय और क्रोध से सुचेता की आँखें फटी जाती थीं। उसने अपना निर्णय सुनाया, “अब यह मेरी क्लास में नहीं रहेगा।” बाकी लोग भी ‘ कुचला जाता, तो क्या होता’ के आशय से आतंकित हैं।

अगले रोज सुचेता शेल्के सर से मिली। उसने उन्हें सारी बातें समझाईं और अपना फैसला सुनाया। वह मन ही मन मोर्चा बाँध कर गई थी… पूरी तरह से तैयार थी। परंतु यह क्या? शेल्के सर ने तनिक भी प्रतिकार नहीं किया? उसकी बातें सहज स्वीकार कर लीं।

उस रोज के बाद नन्हें अमित को स्कूल में फिर किसी ने कभी नहीं देखा।

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ट्रॉफी – Trophy

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