सारे मुहल्ले में टीका का ही एक कमरा पक्का बना हुआ है। सामने एक छप्पर, उसके पीछे दो कच्चे कमरे, जिनमें उसका परिवार रहता है। मकान टीले पर तो है ही, साथ ही मुख्य रास्ते पर भी। इसलिए गाँव में घुसते समय सबसे पहले उसी पर नजर पड़ती है। हर मंगलवार को गाँव में पैंठ लगती है और टीका के बने जूते खरीदने बाहर से भी लोग आते हैं। आस-पास टीका मार्का जूता प्रचलित है। खादर के जंगल में काम करना है तो टीका के जूते ही चल सकते हैं, शहर के जूते तो दो दिन में बराबर। पैसा पास होते ही टीका ने सबसे पहला काम यह किया कि अपने चबूतरे पर शिव मंदिर बनवा दिया और पास में ही एक कुआँ। इससे टीका की इज्जत बिरादरी में और भी बढ़ गई। अब वह बिरादरी का सदस्य ही नहीं, सम्मानित नेता भी बन गया है। चमरौटी में कोई बात हो जाती तो टीका की पक्की कमरानुमा चौपाल भर जाती और टीका अपने सारे काम छोड़ पहले उसे निपटाता।

गाँव में शांति थी। सब अपने-अपने कामों पर लगे थे, किसी को मरने तक की फुर्सत नहीं थी, परंतु पंडित जयराम न जाने कहाँ से सुन आए कि अगले महीने प्रधानी के चुनाव होंगे। पंडितजी ने अपना सारा गणित फैलाया और अंत में निष्कर्ष निकाला कि इस बार टीका को प्रधानी के लिए खड़ा करना उचित है, क्योंकि गाँव में ब्राह्मण अभी तक प्रधान नहीं हुआ, न हो सकता, हमेशा जाट ही प्रधान होता है। जाटों की हठवादिता और मनमानेपन से सारा गाँव परेशान है। इसलिए टीका ही ठीक रहेगा, क्योंकि टीका जीत भी गया तो भी जूते के नीचे ही रहेगा। प्रधान तो हम ही रहेंगे, ए.डी.ओ. और दारोगा टीका के घर तो चाय पीने से रहे, पीएँगे हमारे ही यहाँ और जब हमारे यहाँ चाय पीएँगे तो फिर एक-एक जाट से बदला ले लेंगे।

पंडितजी ने चुपके-से बनियों और मुसलमानों की राय भी ले ली, ताकि कल को आपस में फूट न पड़ जाए। जाटों से परेशान आए सभी ने अपनी सहर्ष स्वीकृति भी दे दी।

पंडितजी ने टीका को घर बुलाया और स्पष्ट कह दिया कि वह प्रधान बना धरा है यदि अपनी बिरादरी को एक सूत्र में बाँधे रखे। टीका ने भी श्रद्धा से भरकर कहा – ”बस पंडितजी, आपकी कृपा चाहिए, बिरादरी तो मेरी ही है, उसका एक भी वोट कहीं नहीं जा पाएगा, आप बेखटके रहें।”

चलते समय पंडितजी ने धीरे-से कहा – ”बच्चों और औरतों का विशेष ध्यान रखना, ये ही आग-लगावा हैं।”

टीका पालागें कर चला गया तो पंडितजी एक अतिरिक्त-सी प्रसन्नता का अनुभव करते हुए शीशम की मजबूत पाटियों से बने पलंग पर लेटकर हुक्का गुड़गुड़ाते रहे।

टीका की प्रसन्नता का भी कोई ठिकाना न रहा। पंडितजी के प्रति उसके मन में श्रद्धा-भाव हिलोरें ले रहा था। पंडितजी को वह इस समय आदमी मानने को तो कदापि तैयार नहीं था, उसकी नजर में वह देवता थे, जो टीका को प्रधान बनाने के लिए ही यहाँ अवतरित हुए हैं। घर पहुँचा, संपतिया को चुपचाप संपूर्ण चुनाव-पुराण बता दिया और कह दिया कि इन एक-दो महीनों के लिए वह बिल्कुल मिसरी बन जाए, कोई कुछ भी कहे, ध्यान ही न दे। अब प्रधानी आई रखी है – बस।

सारे मुहल्ले में नामी लड़ाकू संपतिया मिसरी की डली बन गई है। अब रोज खाना खा-पीकर घर-घर जाती है और एक-एक घंटा बैठकर घर-विधि की बातें बतियाती है – घर में कितने भाई हैं, क्या-क्या करते हैं, माँ-बाप हैं कि नहीं, भौजाई कैसी है, तीज-त्योहार विदा अच्छी देती है कि नहीं। ऊदा की नई बहू को इसमें कुछ राज-सा लगा, क्योंकि संपतिया के बारे में उसने बहुत-कुछ सुना है और वह कहाँ दूर की है, पास के कस्बे की तो है ही। उसने अपनी सास से भी कहा – लेकिन उसने उसे शांत कर दिया –

“मन की क्या है, कब बदल जाए, हमेशा एक-जैसा तो रहता नहीं? ऊपर से चाहे संपतिया कैसी ही लड़ाकू सही, लेकिन मन की कभी काली नहीं रही। तू तो कल-परसों आई है। तू क्या जाने उसे, मैं तो उस दिन से ही जानती हूँ जब वह छोटी-सी बहू बनकर टीकाराम के घर आई थी।”

ऊदा की बहू मन मारकर रह गई, क्या कहती सास से!

आखिर प्रधानी का चुनाव आया और गाँव में नए राजनीतिक पैंतरे बदले जाने लगे। सारे गाँव का मानो राजनीतिकरण हो गया था। गाँव का बच्चा-बच्चा भी बगैर राजनीति के बात नहीं करता। जाटों के विरोध में सारा गाँव एक हो गया, सबने अबकी बार प्रण कर लिया कि जाटों को हराना है, चाहे कुछ भी क्यों न हो जाए। टीका का मुँह पालागें करते-करते सूख जाता है – वह ब्राह्मणों के दो-दो साल के बच्चों तक को पालागें करता है, और ब्राह्मण हैं कि सीधे मुँह बात नहीं करते, अबकी बार वोट जो दे रहे हैं, उसे।

पंडित जयराम की बैठक पर टीका ने दस सेर कुटा हुआ देसी तंबाकू रख दिया है और एक गाड़ी पुराने कंडा। रात-दिन हुक्का गुड़गुड़ाते हैं पंडितजी। धीरे-धीरे मूँछें भी लाल पड़ने लगी हैं।

जाटों ने प्रधानी जाते देख लाठियों पर तेल मलना शुरू कर दिया है। रात को एक गोपनीय मीटिंग मुखियाजी के घर हुई और निर्णय लिया कि चुनाव के दिन सब तैयार रहें। अपने-अपने कट्टों को भी साफ कर लें, यदि कारतूस न हों तो बता दें। इंतजाम हो जाएगा। और अंत में सबने जी-जान से एक रहने की कसम खाई, ताकि बिरादरी की जाती हुई इज्जत को बचाया जा सके। सबके चेहरे उतरे हुए थे। मन में लपटें उठ रही थीं। औरतें पिछवाड़े जंगल के सहारे खड़े होकर अपने बहादुर पतियों की मीटिंग सुन रही थीं, जिसमें बातों से ज्यादा हुक्का बोल रहा था।

पारों नाई का घर मुखियाजी के घर से भिड़ा है। उसने मौके का फायदा उठाकर मुड़गेली के सहारे बैठ सारी गोपनीय बातें सुनीं और पंडितजी को जाकर ज्यों-की-त्यों बयान कर आया। पंडितजी ने भी इंतजाम सोच लिया। सुबह उठकर थाने गए और दारोगा से सारी परिस्थिति बता दी, दारोगा ने एक हजार रुपये लेकर दस जाटों को बंद करने का आश्वासन दिया। पंडितजी ने टीका से कहा, टीका ने पैसे को तो मना किया, वास्तव में इतने रुपए अब उसके पास कहाँ हैं, जो थे वह मंदिर और कुआँ में खर्च हो गए। परंतु इज्जत बचाने के लिए अपना दस बीघे खेत पंडितजी के यहाँ गिरवी रख दिया। पंडितजी ने एक हजार में से पाँच सौ दारोगाजी को दिया और साथ ही यह भी कहा कि – ”टीका पर क्या है जो पाँच सौ देता, यह तो हमारी इज्जत का सवाल है अतः हमने ही…।” और मूँछों से ही हॅंसकर रह गए पंडितजी। दारोगा ने भी अपनी ओर से कुछ कसर न उठा रखने का वायदा किया।

चुनाव का प्रतीक्षित दिन भी आ गया, सुबह से ही औरतों के टोल के टोल गीत गा-गाकर आने शुरू हो गए। सारे गाँव में एक प्रकार का अजीब संगीन वातावरण बन गया। संभवतः पहली बार लोगों में चुनावों के प्रति इतना उत्साह रहा है। एक-एक वोट के प्रति लोग सचेत हैं। जाटों की बहुत-सी लड़कियाँ भी साड़ी का लंबा घूँघट मारकर मरी हुई औरतों के वोट डाल गई हैं। उधर मुसलमानों में बुरका ओढ़कर लड़के भी वोट डाल गए। बुड्ढे-बुढ़ियों को खाट पर डालकर लाया गया। शाम तक इतने वोट पड़े कि जाटों को लगा कि बस अब हार निश्चित ही है तो वे अपनी लाठियाँ लेकर निकल पड़े और मौके की तलाश में बैठे दारोगा ने प्रमुख दस लोगों को घटना-स्थल पर पहुँचने से पूर्व ही पकड़ लिया। पंडितजी के द्वारा दिए गए कट्टे भी उनके पास से ही पकड़े बताए गए। अब मुखियाजी की हालत खस्ता हो गई। करें तो क्या करें? जिंदगी में पहली बार अपनी जाहिली पर क्रोध आया।

जाटों के घरों में केवल औरतें रह गई हैं – और रह गए हैं निमूछिये लड़के।

शाम के वक्त टीका अपना वोट डालने आया। चमरौटी के बड़े-बूढ़ों के बीच साफा बाँधे चल रहा था – गर्दन फुलाकर। पीछे-पीछे लड़के ‘टीका राम की जय हो’ के नारे लगाते हुए। जब से टीका ने सुना कि जाट पकड़े गए और हमारी ओर से इतने वोट पड़े हैं कि बंबई से लेकर तीन साल पहले तक के स्वर्गवासी भी गैरहाजिर नहीं रहे तो उसे लगा कि बस अब तो प्रधान हो ही गए। सामने से पंडितजी आते दिखाई दिए, आमना-सामना हुआ, लेकिन टीका ने पालागें तो दूर उनकी ओर देखा तक नहीं। हालाँकि पंडितजी को बहुत बुरा लगा, लेकिन क्षोभ को पीकर खरगा से कहा – जब टीका वोट डालकर लौटे तो कह देना कि, मेरी बैठक पर आ जाए, जरूरी काम है। मैं अब सीधा घर ही जा रहा हूँ।

खरगा पंडितजी का संदेश लेकर टीका के पास पहुँचा तो उसने साफ-साफ कह दिया कि आज तो नहीं जा पाऊँगा। शाम को हमारे मुहल्ले में आल्हा होगी। पंडितजी को यदि कोई जरूरी काम हो तो यहीं आ जाएँ। या किसी से कहला भेजें, जो कुछ कहना हो।

साथ ही किसी लड़के ने पीछे से कह दिया – पंडितजी के दिन तो लद गए, प्रधानी अब जाटों पर नहीं टीकाराम पर समझो और टीकाराम अब टीकाराम हैं – पंडितजी की रियाआ नहीं। कल वह टीकाराम ही नहीं, प्रधान जी भी होंगे। तब पंचायत पंडितजी की बैठक पर नहीं, टीकाराम की चौपाल पर होगी। अतः पंडितजी अब बुलाने की आदत छोड़ दें, वरना अकेले अपनी बैठक पर बैठे हुक्का गुड़गुड़ाते रहें। कोई पूछने वाला नहीं है।

खरगा जल-भुनकर चला गया और सारी घटना नमक-मिर्च मिलाकर पंडितजी को कह सुनाई। पंडितजी पहले से ही जले-भुने बैठे थे और भी भभक उठे। एक सुलझे हुए राजनीतिज्ञ की तरह उन्होंने तत्क्षण ही इस अपमान का बदला लेने की ठानी। खरगा सामने खड़ा रहा और पंडितजी सामने रखे हुक्के की नय को एक हाथ से थामे दूसरे हाथ से मूँछें ऐंठते सोचते रहे। कुछ देर बाद एकदम उनके मन में यह विचार कौंधा कि क्यों न कुछ ऐसा किया जाए, जिससे साँप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। टीका के होश भी ठीक हो जाएँ, जिससे वह अगले चुनाव तक ऊपर गर्दन न उठा सके और जाट भी समझ जाएँ कि असली चाणक्य की संतान हैं पंडित जयराम। उनके चेहरे पर प्रसन्नता की लहर-सी दौड़ गई। सुनहरी मूँछें कुछ देर को खिल उठीं। पंडितजी ने कसकर हुक्के में एक घूँट मारी और खरगा को पास बुलाकर उसके कान में धीरे-से कुछ कहा। खरगा चुपचाप सुनकर गंभीर बना वहाँ से चला गया। पंडितजी बहुत देर तक हुक्का गुड़गुड़ाते रहे। अकेले बैठकर! माथे की सलवटें असाधारण रूप में चमक रही थीं। और आँखों में योजना तैर रही थी।

खरगा सीधा अपने घर गया और वहाँ से चुपचाप कुछ सामान लेकर टोंटा को बुलाता हुआ – खेरे पर पहुँचा। झुटपुटा-सा हो गया। पचास गज दूर का आदमी भी दिखाई नहीं दे रहा था। सामने से दो साइकिल आ रही थीं और तीसरा आदमी पैदल। जैसे ही वे तीनों पास आए कि खरगा और टोंटा धर्मशाला से बाहर निकल पड़े, एक-एक लाठी पीछे से जमाईं और वोट के डिब्बे लेकर यमुना की ओर भाग छूटे। अड्डा के सहारे पहुँचकर उन्होंने पीछे फिरकर देखा – कोई नहीं था, दूर-दूर तक अँधेरी रात सब कुछ अपने में समेट चुकी थी। यमुना का जल धीरे-धीरे बह रहा था, मोटे-मोटे कछुए बाहर पार पर बैठे थे, वे उन्हें देखकर एकदम अंदर जल में घुस गए। खरगा-टोंटा ने अंदर जल में घुसकर डिब्बे डुबो दिए, छप-छपाक् की आवाज हुई और फिर वही रात्रि की अखंड शांति। हाथ-पैर धोए, पानी पिया और वहीं किनारे पर बैठकर एक-एक बीड़ी इत्मीनान से फूँकी और दूसरे रास्ते से गाँव की ओर चल दिए।

पंडितजी बैठक पर अकेले बैठे थे। खाना भी नहीं खाया – अभी तक। चिलम भी ठंडी पड़ी थी। घर से कई बार खाने की खबर आई, लेकिन उठकर नहीं गए। चमरौटी में खटक रही ढोलक की तीखी आवाज उन्हें साल रही थी। उनके मन में बार-बार कुछ शंकाएँ उठतीं और चेहरे पर उनके अक्स उभर आते परंतु मूँछें ऐंठते हुए पंडितजी शांति से मन-ही-मन उनका समाधान खोज निकालते। जग्गी को कई बार आवाज दी, चिलम भरने के लिए लेकिन वह कहाँ था वहाँ। वह तो टीका की चौपाल पर बैठा आल्हा सुन रहा था। आल्हा तो चार-चार कोस तक भी नहीं छोड़ता वह। गाँव में आल्हा हो और जग्गी न जाए, यह कैसे हो सकता है। पंडितजी की मूँछें ऐंठते-ऐंठते सुतली की तरह हो गई हैं – ऐंठादार। खरगा और टोंटा आए और पंडितजी के कान में सूचना दी। पंडितजी की बाँछें खिल उठीं – खरगा टोंटा की पीठ ठोकी और घर ले गए खाना खिलाने। तीनों ने साथ बैठकर ही खाना खाया।

खाना खाकर निकले तो सुना गाँव में कुहराम-सा मच गया है। चमरौटी की ढोलक अचानक ठिठक गई है और आल्हा गायक शंकर का स्वर घुटकर रह गया है। यह सब देख-सुनकर पंडितजी की प्रसन्नता का कोई ठिकाना न रहा। हो साले प्रधान, हम भी तो देखें – कैसे…। पंडितजी बुदबुदाए। टोंटा भट्टी में सुलगती आग में से चिलम भर लाया। पंडितजी हुक्का गुड़गुड़ाते रहे और खरगा-टोंटा चिलम।

रात-भर गाँव में इस अनहोनी पर अटकलें लगती रहीं – शायद ही कोई सो पाया हो। सबसे अधिक नुकसान हुआ छोटे-छोटे लड़कों को चिलम भरते-भरते हाथ भी जल गए हैं कहीं-कहीं।

चमरौटी में अचानक शांति देख कुत्तों ने सामूहिक स्वर में रोना शुरू कर दिया।

दिन निकलते ही दारोगा आए। पंडितजी की बैठक पर चाय-पानी हुई। टीका को बुलाया गया। गर्दन झुकाकर आया टीका। एक रात में ही उसका चेहरा जर्द पड़ गया है। शर्म की वजह से नजर भी नहीं उठ रही हैं – ऊपर। दारोगा ने कई लोगों की गवाही ली और साथ ही जाटिनियों को चेतावनी दी कि या तो वे असली आदमियों के नाम बता दें, वरना एक-एक घर का पानी बंद करा दूँगा।

पंडितजी ने पाँच सौ रुपए देकर मामले को वहीं रफे-दफे कर दिया।

मुखियाजी की पत्नी और कोई आसरा न देख हल्ली बनिया के पास गहने गिरवी रख अपने आदमी को छुड़ा लाई।

तीसरे दिन पंचायत-मंत्री ने बताया कि चुनाव रद्द हो गया है। टीका औंधा पड़ा डकरा रहा है धर्मशाला में और पंडितजी टीका का दिया देसी तंबाकू ठाठ से पी रहे हैं – मूँछें फैराकर! बूढ़ी देह में फुरफुरी-सी उठ रही है।

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