ठिकाना | आकांक्षा पारे काशीव
ठिकाना | आकांक्षा पारे काशीव

ठिकाना | आकांक्षा पारे काशीव – Thikana

ठिकाना | आकांक्षा पारे काशीव

‘अब बताओ, है कि नहीं शानदार जगह।’

‘हूँ। ठीक है।’

‘ठीक है मतलब? यार पूरा छह लीटर पेट्रोल फूँका है यह जगह ढूँढ़ने में।’

‘पर यहाँ भीड़ है।’

‘भीड़ कहाँ है यार? अब इतनी आवाजाही तो होगी न। तुम्हें क्या लगा था मैं तुम्हें सहारा के रेगिस्तान की तरह निर्जन जगह ले जाऊँगा? देखो कितना अँधेरा है। हमें यहाँ कोई नहीं देख पाएगा।’

‘पर कोई ऐसी जगह ढूँढ़ो न जो थोड़ी सुनसान हो। मेरा मतलब है थोड़ी खाली तो हो।’

‘यह भी खाली ही है यार। कितना अच्छा बस स्टैंड है। न यहाँ किन्नर दस रुपए माँगने आएँगे, न पुलिस को चाय-पानी का खर्चा देना पड़ेगा। बस स्टैंड पर तो कोई भी बैठ सकता है।’

‘पर यहाँ…?’

‘क्या दिक्कत है यार यहाँ। पाँच मिनट का तो काम है।’

‘अच्छा जैसे पाँच मिनट में छोड़ दोगे?’

‘स्वीट हार्ट ज्यादा बहस मत करो। सुबह से सोचकर आया हूँ एक किस तो तुम्हें कर के ही रहूँगा।’

‘नहीं यहाँ नहीं। कोई और जगह ढूँढ़ो। यहाँ यह सब करना ठीक नहीं है।’

‘अरे यार…।’

‘अरे यार, वरे यार कुछ नहीं बस चलो यहाँ से।’

‘चलो भई। कल देखता हूँ कोई तुम्हारी मनपसंद ज-ग-ह।’

‘फोन इतनी देर से क्यों उठाया?’

‘एक कॉपी एडिट कर रही थी। इस वक्त फोन क्यों किया?’

‘सुनोगी तो खुशी से उछल पड़ोगी। एक शानदार जगह खोजी है मैंने। परमिंदर ने बताई है। सिम्मी को लेकर वह वहीं गया था पहली बार।’

‘तब तो मैं बिलकुल भी नहीं चलूँगी।’

‘क्यों अब क्या हुआ?’

‘उस लुच्चे परमिंदर पर मुझे कतई यकीन नहीं। उसने कोई फालतू सी जगह ही सुझाई होगी। और वह सिम्मी, वह तो कहीं भी उठकर चल देती है।’

‘मेरे दोस्तों को कुछ मत कहो। बेचारा ऑफिस में कितनी मदद करता है मेरी, तुम्हें क्या पता? बॉस से झूठ बोलकर गया मेरे लिए वह जगह दिखाने।’

‘सबसे पहले तो मुझे यह बताओ तुमने उस परमिंदर को भी बता दिया तुम्हें सुनसान जगह क्यों चाहिए। दिस इज डिसगस्टिंग।’

‘तुम्हें तो लड़ने का बहाना चाहिए। मैंने उसे सिर्फ पूछा था कि वह सिम्मी के साथ कहाँ-कहाँ गया है। बस उसने मुझे अपना सीक्रेट अड्डा बता दिया।’

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‘अभी से बताए दे रही हूँ वह सफदरजंग के मकबरे जैसी फालतू जगह नहीं होनी चाहिए।’

‘नहीं है बाबा।’

‘पक्का।’

‘पक्का यार। तो आऊँ लेने।’

‘नहीं आज नहीं। आज हमारे ऑफिस में कोई मीटिंग है। देर हो जाएगी। कल चलेंगे।’

‘तुम्हारे बहाने भी एक से एक रहते हैं।’

‘बहाने मतलब क्या। तुम्हारी टुच्ची सी किस के लिए नौकरी छोड़ दूँ क्या?’

‘आज तो तुम्हें एक मस्त स्मूच करके ही रहूँगा।’

‘स्मूच? भूल जाओ बच्चू कि मैं तुम्हें यहाँ करीब भी आने दूँगी।’

‘क्यों अब क्या हुआ?’

‘क्या हुआ मतलब? वहाँ देखो दो गंजेड़ी कैसे घूर रहे हैं।’

‘तुम्हें कैसे पता वे गंजेड़ी हैं?’

‘तो यहाँ इतनी शाम को कीर्तन मंडली के सदस्य आएँगे क्या?’

‘बेकार की बात मत करो प्लीज। वे दोनों अपनी बात कर रहे हैं, हमारी ओर उनका कोई ध्यान नहीं है। यह एकदम सेफ जगह है। सामने से सीधा रास्ता जेएनयू जाता है, अगर बीच वाले रास्ते से जाएँगे तो वसंत विहार आएगा। और इधर से..’

‘मुझे दिल्ली की जॉग्रफी मत समझाओ। चलो यहाँ से मुझे नहीं बैठना यहाँ। और इधर जेएनयू है तो क्या इसका मतलब यह हुआ कि यहाँ कोई बदमाश रहता ही नहीं होगा। कमाल करते हो यार तुम भी। पूरी दिल्ली में एक जगह नहीं मिलती तुम्हें ढंग की बैठने लायक?’

‘तुम्हें क्या लगता है, शीला दीक्षित मेरी चाची हैं, जो मेरे लिए ऐसी दिल्ली डिजाइन करें जहाँ लवर्स के बैठने के लिए शानदार जगह हों। सारा मूड खराब कर देती हो हमेशा। कनॉट प्लेस से यहाँ तक बाइक पर आना कोई मजाक है क्या?’

‘मजाक मतलब? मैंने तुम्हें थोड़े ही कहा है कि तुम मुझे अपनी बाइक पर दिल्ली दर्शन कराओ। गलती तुम्हारी है। तुम्हें जगह ही ऐसी-ऐसी मिलती हैं। कभी हसनपुर या पृथ्वीराज रोड का बस स्टैंड, कभी कालिंदी कुंज…’

‘कुंज नहीं पार्क’

‘हाँ, हाँ वही, कालिंदी पार्क, कभी नशेड़ियों का बुद्धा जयंती पार्क, कभी भीख माँगने वालों और किन्नरों का अड्डा इंद्रप्रस्थ पार्क, कभी हाई सोसायटी की बेतुकी हरकतों से गुलजार लोधी गार्डन। कभी…’

‘एक्सक्यूज मी मैडम, इतने नखरे आपके ही हैं। वरना दिल्ली के दिलवाले बेचारे इन्हीं ठिकानों के भरोसे रहते हैं। उस एरिया में हम इसलिए जाते थे क्योंकि तुम्हारा पीजी लक्ष्मी नगर में है। वहाँ से पास पड़ता। एक मैं ही हूँ जो तुमसे मिलने के लिए मरा जाता हूँ वरना…’

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‘वरना क्या?’

‘वरना यह कि ऑफिस में तन्वी भी कुछ बुरी नहीं है। अभी तक कोई ब्वॉयफ्रेंड भी नहीं है उसका।’

‘तो ठीक है कल से उसी के पास जाना। ओके बाय।’

‘अरे यार सुनो तो… सुनो तो प्लीज। ऐसे भाग क्यों रही हो।’

‘अच्छा बताओ तुम्हारे हिसाब से हमारे मिलने की जगह कैसी होनी चाहिए। मतलब तुम कहाँ कंफर्टेबल रहोगी?’

‘कोई ऐसी जगह होनी चाहिए जो बिलकुल सुनसान हो। जहाँ दूर-दूर तक कोई परिंदा भी न हो। सिर्फ हम दोनों हों। और…’

‘ठीक है, ठीक मैं समझ गया। जल्द ही ऐसी जगह ढूँढ़ लूँगा।’

‘हैलो’

‘बोलो’

‘सुनो’

‘सुनाओ’

‘अब तक नाराज हो क्या?’

‘क्यों तन्वी का कोई ब्वॉयफ्रेंड बन गया है क्या?’

‘छोड़ो भी यार। मजाक तो समझा करो। अच्छा मैं यह कह रहा था कि कल और परसों निखिल रूम पर नहीं रहेगा। आदित्य की इस पूरे हफ्ते नाइट है तो वह पाँच बजे ही चला जाएगा। मकान मालिक आंटी भी नहीं हैं। घर चलोगी?’

‘घर चलोगी मतलब?’

‘मतलब रूम पर चलोगी शाम को?’

‘जी नहीं। सॉरी।’

‘प्लीज न। उससे ज्यादा सुनसान और कहाँ मिलेगा मेरा मतलब है एकांत कहाँ मिलेगा। अब देखो तुम्हारे पीजी में मैं आ नहीं सकता। मेरे रूम में तुम आ नहीं सकती थीं। बड़ी मुश्किल से मौका मिला है। थोड़ी देर बैठेंगे बात करेंगे। प्लीज।’

‘नहीं यार।’

‘हम कभी ठीक से बात ही नहीं कर पाते हैं। तुम ऑफिस से निकलती इतनी देर से हो, फिर तुम्हें घर छोड़ने जाता हूँ तो आधे वक्त तो हम आईटीओ के जाम में ही फँसे रहते हैं। ऊपर से मेट्रो का काम चल रहा है तो मैं दस के पहले घर ही नहीं पहुँच पाता। तुम्हारी सूरत देखने को तरस गया हूँ। बाइक पर भी ऐसे डाकू की तरह मुँह लपेट के बैठती हो कि कभी साइड ग्लास में ही चेहरा देखने का मन हो तो वह भी न देख सको।’

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‘तो तुम्हारे लिए अपनी स्किन खराब कर लूँ क्या? कितनी धूल होती है रास्ते पर। चेहरा न ढकूँ तो देखने लायक रह ही नहीं जाएगा। और फिर कभी कोई बाइक पर देख ले तुम्हारे साथ तो? जब चेहरा ढका रहेगा तो कौन पहचानेगा।’

‘अच्छा अब फोन पर ज्ञान का तड़का मत लगाओ। तुम्हारे रिश्तेदार के नाम पर दिल्ली में चूहा भी नहीं रहता। दोस्त तुम बनाती नहीं और फिर इंदौर से इतनी दूर दिल्ली में तुम्हारे अड़ोस-पड़ोस वाले क्या तुम्हें सिर्फ बाइक पर किसके साथ बैठी हो यही देखने आएँगे क्या? बेकार की बात छोड़ो, यह तो बताओ चलोगी कि नहीं।’

‘नहीं।’

‘फिर?’

‘फिर कुछ नहीं।’

‘अच्छा एक काम करते हैं, लफूट पम्मी वाली जगह पर ही चलते हैं। घर में तो जाना ठीक नहीं होगा।’

‘ग्रेट यार। थैंक्स। और पम्मी को लफूट मत बोला करो। जान मैं लेने आऊँ अभी।’

‘ठीक है।’

‘याहू।’

‘अरे कल हमारे ऑफिस में क्या हुआ…’

‘हवा कितनी तेज है, मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा।’

‘मैं कह रहा था कल ऑफिस में…’

‘वहाँ चलकर बताना। सुनाई नहीं दे रहा। बाइक कितनी तेज चला रहे हो।’

‘अब वहाँ चलकर भी तुम्हें दफ्तर के किस्से सुनाऊँगा क्या?’

‘क्यों थोड़ी देर बात भी तो करेंगे।’

‘और कितनी दूर है।’

‘इतनी बेचैन क्यों हो जान। सब्र नहीं हो रहा क्या?’

‘फालतू बात मत करो, मैं बैठे-बैठे थक गई इसलिए पूछा।’

‘बस और पाँच मिनट।’

‘अब यह नकाब उतार लो जान, यहाँ कोई नहीं है।’

‘अरे बाप रे। कितना सुनसान है। अँधेरा भी होने वाला है। मुझे तो डर लग रहा है। ये टूटी-फूटी इमारत क्या है?’

‘डर की क्या बात है जान, मैं हूँ न। और इस इमारत के बारे में मुझे नहीं पता क्योंकि मैं आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया में नहीं बैंक ऑफ इंडिया में काम करता हूँ।’

‘मजाक मत करो। सुनो, देखो कितनी सुनसान जगह है। मुझे लगता है यहाँ कुछ गड़बड़ है। हमें फौरन चलना चाहिए। शायद यह मकबरा है। और देखो हम दोनों के सिवाए यहाँ कोई नहीं है। एक परिंदा भी नहीं।’

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