यहाँ जो कुछ लिखा हुआ है, वह कहानी नहीं है। कभी-कभी सच्चाई कहानी से भी ज्यादा हैरतअंगेज होती है। टेपचू के बारे में सब कुछ जान लेने के बाद आपको भी ऐसा ही लगेगा।

टेपचू को मैं बहुत करीब से जानता हूँ। हमारा गाँव मड़र सोन नदी के किनारे एक-दो फर्लांग के फासले पर बसा हुआ है। दूरी शायद कुछ और कम हो, क्योंकि गाँव की औरतें सुबह खेतों में जाने से पहले और शाम को वहाँ से लौटने के बाद सोन नदी से ही घरेलू काम-काज के लिए पानी भरती हैं। ये औरतें कुछ ऐसी औरतें हैं, जिन्हें मैंने थकते हुए कभी नहीं देखा है। वे लगातार काम करती जाती हैं।

गाँव के लोग सोन नदी में ही डुबकियाँ लगा-लगा कर नहाते हैं। डुबकियाँ लगा पाने लायक पानी गहरा करने के लिए नदी के भीतर कुइयाँ खोदनी पड़ती हैं। नदी की बहती हुई धार के नीचे बालू को अँजुलियों से सरका दिया जाए तो कुइयाँ बन जाती है। गर्मी के दिनों में सोन नदी में पानी इतना कम होता है कि बिना कुइयाँ बनाए आदमी का धड़ ही नहीं भींगता। यही सोन नदी बिहार पहुँचते-पहुँचते कितनी बड़ी हो गई है, इसका अनुमान आप हमारे गाँव के घाट पर खड़े हो कर नहीं लगा सकते।

हमारे गाँव में दस-ग्यारह साल पहले अब्बी नाम का एक मुसलमान रहता था। गाँव के बाहर जहाँ चमारों की बस्ती है, उसी से कुछ हट कर तीन-चार घर मुसलमानों के थे। मुसलमान, मुर्गियाँ, बकरियाँ पालते थे। लोग उन्हें चिकवा या कटुआ कहते थे। वे बकरे-बकरियों के गोश्त का धंधा भी करते थे। थोड़ी-बहुत जमीन भी उनके पास होती थी।

अब्बी आवारा और फक्कड़ किस्म का आदमी था। उसने दो-दो औरतों के साथ शादी कर रखी थी। बाद में एक औरत जो ज्यादा खूबसूरत थी, कस्बे के दर्जी के घर जा कर बैठ गई। अब्बी ने गम नहीं किया। पंचायत ने दर्जी को जितनी रकम भरने को कहा, उसने भर दी। अब्बी ने उन रुपयों से कुछ दिनों ऐश किया और फिर एक हारमोनियम खरीद लाया। अब्बी जब भी हाट जाता, उसी दर्जी के घर रुकता। खाता-पीता, जश्न मनाता, अपनी पुरानी बीवी को फुसला कर कुछ रुपए ऐंठता और फिर खरीदारी करके घर लौट आता।

कहते हैं, अब्बी खूबसूरत था। उसके चेहरे पर हल्की-सी लुनाई थी। दुबला-पतला था। बचपन में बीमार रहने और बाद में खाना-पीना नियमित न रहने के कारण उसका रंग हल्का-सा हल्दिया हो गया था। वह गोरा दिखता था। लगता था, जैसे उसके शरीर ने कभी धूप न खाई हो। अँधेरे में, धूप और हवा से दूर उगनेवाले गेहूँ के पीले पौधे की तरह उसका रंग था। फिर भी, उसमें जाने क्या गुण था कि लड़कियाँ उस पर फिदा हो जाती थीं। शायद इसका एक कारण यह रहा हो कि दूर-दराज शहर में चलनेवाले फैशन सबसे पहले गाँव में उसी के द्वारा पहुँचते थे। जेबी कंघी, धूपवाला चश्मा, जो बाहर से आईने की तरह चमकता था, लेकिन भीतर से आर-पार दिखाई देता था, तौलिए जैसे कपड़े की नंबरदार पीली बनियान, पंजाबियों का अष्टधातु का कड़ा, रबर का हंटर वगैरह ऐसी चीजें थीं, जो अब्बी शहर से गाँव लाया था।

जब से अब्बी ने हारमोनियम खरीदा था, तब से वह दिन भर चीपों-चीपों करता रहता था। उसकी जेब में एक-एक आने में बिकनेवाली फिल्मी गानों की किताबें होतीं। उसने शहर में कव्वालों को देखा था और उसकी दिली ख्वाहिश थी कि वह कव्वाल बन जाए, लेकिन जी-तोड़ कोशिश करने के बाद भी… ‘हमें तो लूट लिया मिल के हुस्नवालों ने’ के अलावा और दूसरी कोई कव्वाली उसे याद ही नहीं हुई।

बाद में अब्बी ने अपनी दाढ़ी-मूँछ बिल्कुल सफाचट कर दी और बाल बढ़ा लिए। चेहरे पर मुरदाशंख पोतने लगा। गाँव के धोबी का लड़का जियावन उसके साथ-साथ डोलने लगा और दोनों गाँव-गाँव जा कर गाना-बजाना करने लगे। अब्बी इस काम को आर्ट कहता था, लेकिन गाँव के लोग कहते थे, ‘ससुर, भड़ैती कर रहा है।’ अब्बी इतनी कमाई कर लेता था कि उसकी बीवी खा-पहन सके।

टेपचू इसी अब्बी का लड़का था। टेपचू जब दो साल का था, तभी अब्बी की अचानक मौत हो गई।

अब्बी की मृत्यु भी बड़ी अजीबो-गरीब दुर्घटना में हुई। आषाढ़ के दिन थे। सोन उमड़ रही थी। सफेद फेन और लकड़ी के सड़े हुए लट्ठे-पटरे धार में उतरा रहे थे। पानी मटैला हो गया था, चाय के रंग जैसा, और उसमें कचरा, काई, घास-फूस बह रहे थे। यह बाढ़ की पूर्व सूचना थी। घंटे-दो घंटे के भीतर सोन नदी में पानी बढ़ जानेवाला था। अब्बी और जियावन को जल्दी थी, इसलिए वे बाढ़ से पहले नदी पार कर लेना चाहते थे। जब तक वे पार जाने का फैसला करें और पानी में पाँव दें तब तक सोन में कमर तक पानी हो गया था। जहाँ कहीं गाँव के लोगों ने कुइयाँ खोदी थीं, वहाँ छाती तक पानी पहुँच गया था। कहते हैं कि जियावन और अब्बी बहुत इत्मीनान से नदी पार कर रहे थे।

नदी के दूसरे तट पर गाँव की औरतें घड़ा लिए खड़ी थीं। अब्बी उन्हें देख कर मौज में आ गया। जियावन ने परदेसिया की लंबी तान खींची। अब्बी भी सुर मिलाने लगा। गीत कुछ गुदगुदीवाला था। औरतें खुश थीं और खिलखिला रही थीं। अब्बी कुछ और मस्ती में आ गया। जियावन के गले में अँगोछे से बँधा हारमोनियम झूल रहा था। अब्बी ने हारमोनियम उससे ले कर अपने गले में लटका लिया और रसदार साल्हो गाने लगा। दूसरे किनारे पर खड़ी हुई औरतें खिलखिला ही रही थीं कि उनके गले से चीख निकल गई। जियावन अवाक हो कर खड़ा ही रह गया। अब्बी का पैर शायद धोखे से किसी कुइयाँ या गड्‌ढ़े में पड़ गया था। वह बीच धार में गिर पड़ा। गले में लटके हुए हारमोनियम ने उसको हाथ-पाँव मारने तक का मौका न दिया। हुआ यह था कि अब्बी किसी फिल्म में देखे हुए वैजयंती माला के नृत्य की नकल उतारने में लगा हुआ था और इसी नृत्य के दौरान उसका पैर किसी कुइयाँ में पड़ गया। कुछ लोग कहते हैं कि नदी में ‘चोर बालू’ भी होता है। ऊपर-ऊपर से देखने पर रेत की सतह बराबर लगती है, लेकिन उसके नीचे अतल गहराई होती है – पैर रखते ही आदमी उसमें समा सकता है।

अब्बी की लाश और हारमोनियम, दोनों को ढूँढ़ने की बहुत कोशिश की गई। मलंगा जैसा मशहूर मल्लाह गोते लगाता रहा, लेकिन सब बेकार। कुछ पता ही नहीं चला।

अब्बी की औरत फिरोजा जवान थी। अब्बी के मर जाने के बाद फिरोजा के सिर पर मुसीबतों के पहाड़ टूट पड़े। वह घर-घर जा कर दाल-चावल फटकने लगी। खेतों में मजदूरी शुरू की। बगीचों की तकवानी का काम करना शुरू किया, तब कहीं जा कर दो रोटी मिल पाती। दिन भर वह ढेंकी कूटती, सोन नदी से मटके भर-भर कर पानी ढोती, घर का सारा काम-काज करना पड़ता, रात खेतों की तकवानी में निकल जाती। घर में एक बकरी थी, जिसकी देखभाल भी उसे ही करनी पड़ती। इतने सारे कामों के दौरान टेपचू उसके पेट पर, एक पुरानी साड़ी में बँधा हुआ चमगादड़ की तरह झूलता रहता।

फिरोजा को अकेला जान कर गाँव के कई खाते-पीते घरानों के छोकरों ने उसे पकड़ने की कोशिश की, लेकिन टेपचू हर वक्त अपनी माँ के पास कवच की तरह होता। दूसरी बात, वह इतना घिनौना था कि फिरोजा की जवानी पर गोबर की तरह लिथड़ा हुआ लगता था। पतले-पतले सूखे हुए झुर्रीदार हाथ-पैर, कद्दू की तरह फूला हुआ पेट, फोड़ों से भरा हुआ शरीर। लोग टेपचू के मरने का इंतजार करते रहे। एक साल गुजरते-गुजरते हाड़-तोड़ मेहनत ने फिरोजा की देह को झिंझोड़ कर रख दिया। वह बुढ़ा गई। उसके बाल उलझे हुए सूखे और गंदे रहते। कपड़ों से बदबू आती। शरीर मैल-पसीने और गर्द से चीकट रहा करता। वह लगातार काम करती रही। लोगों को उससे घिन होने लगी।

टेपचू जब सात-आठ साल का हुआ, गाँव के लोगों की दिलचस्पी उसमें पैदा हुई।


हमारे गाँव के बाहर, दूर तक फैले धान के खेतों के पार आम का एक घना बगीचा था। कहा जाता है कि गाँव के संभ्रांत किसान घरानों, ठाकुरों-ब्राह्मणों की कुलीन कन्याएँ उसी बगीचे के अँधेरे कोनों में अपने-अपने यारों से मिलतीं। हर तीसरे-चौथे साल उस बगीचे के किसी कोने में अलस्सुबह कोई नवजात शिशु रोता हुआ लावारिस मिल जाता था। इस तरह के ज्यादातर बच्चे स्वस्थ, सुंदर और गोरे होते थे। निश्चित ही गाँव के आदिवासी कोल-गोंडों के बच्चे वे नहीं कहे जा सकते थे। हर बार पुलिस आती। दरोगा ठाकुर साहब के घर में बैठा रहता। पूरी पुलिस पलटन का खाना वहाँ पकता। मुर्गे गाँव से पकड़वा लिए जाते। शराब आती। शाम को पान चबाते, मुस्कराते और गाँव की लड़कियों से चुहलबाजी करते पुलिसवाले लौट जाया करते। मामला हमेशा रफा-दफा हो जाता था।

इस बगीचे का पुराना नाम मुखियाजी का बगीचा था। वर्षों पहले चौधरी बालकिशन सिंह ने यह बगीचा लगाया था। मंशा यह थी कि खाली पड़ी हुई सरकारी जमीन को धीरे-धीरे अपने कब्जे में कर लिया जाए। अब तो वहाँ आम के दो-ढाई सौ पेड़ थे, लेकिन इस बगीचे का नाम अब बदल गया था। इसे लोग भुतहा बगीचा कहते थे, क्योंकि मुखिया बालकिशन सिंह का भूत उसमें बसने लगा था। रात-बिरात उधर जानेवाले लोगों की घिग्घी बँध जाती थी। बालकिशन सिंह के बड़े बेटे चौधरी किशनपाल सिंह एक बार उधर से जा रहे थे तो उनको किसी स्त्री के रोने की आवाज सुनाई पड़ी। जा कर देखा… झाड़ियों, झुरमुटों को तलाशा तो कुछ नहीं। उनके सिर तक के बाल खड़े हो गए। धोती का फेंटा खुल गया और वे ‘हनुमान-हनुमान’ करते भाग खड़े हुए।

तब से वहाँ अक्सर रात में किसी स्त्री की कराहने या रोने की करुण आवाज सुनी जाने लगी। दिन में जानवरों की हड्डियाँ, जबड़े या चूड़ियों के टुकड़े वहाँ बिखरे दिखाई देते। गाँव के कुछ लफंगों का कहना था कि उस बगीचे में भूत-ऊत कुछ नहीं रहता। सब मुखिया के घराने द्वारा फैलाई गई अफवाह है। साले ने उस बगीचे को ऐशगाह बना रखा है।

एक बार मैं पड़ोस के गाँव में शादी के न्यौते में गया था। लौटते हुए रात हो गई। बारह बजे होंगे। संग में राधे, सँभारू और बालदेव थे। रास्ता बगीचे के बीच से गुजरता था। हम लोगों ने हाथ में डंडा ले रखा था। अचानक एक तरफ सूखे पत्तों की चरमराहट सुनाई पड़ी। लगा, जैसे कोई जंगली सूअर बेफिक्री से पत्तियों को रौंदता हुआ हमारी ओर ही चला आ रहा है। हम लोग रुक कर आहट लेने लगे। गर्मी की रात थी। जेठ का महीना। अचानक आवाज जैसे ठिठक गई। सन्नाटा खिंच गया। हम टोह लेने लगे। भीतर से डर भी लग रहा था। बालदेव आगे बढ़ा, कौन है, बे, छोह-छोह। उसने जमीन पर लाठी पटकी हालाँकि उसकी नसें ढीली पड़ रही थीं। कहीं मुखिया का जिन्न हुआ तो? मैंने किसी तरह हिम्मत जुटाई, ‘अबे, होह, होह।’ बालदेव को आगे बढ़ा देखा सँभारू भी तिड़ी हो गया। पगलेटों की तरह दाएँ-बाएँ, ऊपर-नीचे लाठियाँ भाँजता वह उसी ओर लपका।

तभी एक बारीक और तटस्थ-सी आवाज सुनाई पड़ी, ‘हम हन भइया, हम।’

‘तू कौन है बे?’ बालदेव कड़का।

अँधेरे से बाहर निकल कर टेपचू आया, ‘काका, हम हन टेपचू।’ वह बगीचे के बनते-मिटते घने अँधेरे में धुँधला-सा खड़ा था। हाथ में थैला था। मुझे ताज्जुब हुआ। ‘इतनी रात को इधर क्या कर रहा है कटुए?’

थोड़ी देर टेपचू चुप रहा। फिर डरता हुआ बोला, ‘अम्माँ को लू लग गई थी। दोपहर मुखिया के खेत की तकवानी में गई थी, घाम खा गई। उसने कहा कि कच्ची अमिया का पना मिल जाए तो जुड़ा जाएगी। बड़ा तेज जर था।’

‘भूत-डाइन का डर नहीं लगा तुझे मुए? किसी दिन साले की लाश मिलेगी किसी झाड़-झंखाड़ में।’ राधे ने कहा। टेपचू हमारे साथ ही गाँव लौटा। रास्ते भर चुपचाप चलता रहा। जब उसके घर जानेवाली गली का मोड़ आया तो बोला, ‘काका, मुखिया से मत खोलना यह बात नहीं तो मार-मार कर भुरता बना देगा हमें।’

टेपचू की उम्र उस समय मुश्किल से सात-आठ साल की रही होगी।

दूसरी बार यों हुआ कि टेपचू अपनी अम्माँ फिरोजा से लड़ कर घर से भाग गया। फिरोजा ने उसे जलती हुई चूल्हे की लकड़ी से पीटा था। सारी दोपहर, चिनचिनाती धूप में टेपचू जंगल में ढोर-डंगरों के साथ फिरता रहा। फिर किसी पेड़ के नीचे छाँह में लेट गया। थका हुआ था। आँख लग गई।

नींद खुली तो आँतों में खालीपन था। पेट में हल्की-सी आँच थी भूख की। बहुत देर तक वह यों ही पड़ा रहा, टुकुर-टुकुर आसमान ताकता। फिर भूख की आँच में जब कान के लवे तक गर्म होने लगे तो सुस्त-सा उठ कर सोचने लगा कि अब क्या जुगाड़ किया जाए। उसे याद आया कि सरई के पेड़ों के पार जंगल के बीच एक मैदान है। वहीं पर पुरनिहा तालाब है।

वह तालाब पहुँचा। इस तालाब में, दिन में गाँव की भैंसें और रात में बनैले सूअर लोटा करते थे। पानी स्याह-हरा-सा दिखाई दे रहा था। पूरी सतह पर कमल और कुई के फूल और पुरइन फैले हुए थे।

काई की मोटी पर्त बीच में थी। टेपचू तालाब में घुस गया। वह कमल गट्टे और पुरइन की काँद निकालना चाहता था। तैरना वह जानता था।

बीच तालाब में पहुँच कर वह कमलगट्टे बटोरने लगा। एक हाथ में ढेर सारे कमलगट्टे उसने खसोट रखे थे। लौटने के लिए मुड़ा, तो तैरने में दिक्कत होने लगी। जिस रास्ते से पानी काटता हुआ वह लौटना चाहता था, वहाँ पुरइन की घनी नालें आपस में उलझी हुई थीं। उसका पैर नालों में उलझ गया और तालाब के बीचो-बीच वह ‘बक-बक’ करने लगा।

परमेसुरा जब भैंस को पानी पिलाने तालाब आया तो उसने ‘गुड़प-गुड़प’ की आवाज सुनी। उसे लगा, कोई बहुत बड़ी सौर मछली तालाब में मस्त हो कर ऐंठ रही है। जेठ के महीने में वैसे भी मछलियों में गर्मी चढ़ जाती है। उसने कपड़े उतारे और पानी में हेल गया। जहाँ पर मछली तड़प रही थी वहाँ उसने गोता लगा कर मछली के गलफड़ों को अपने पंजों में दबोच लेना चाहा तो उसके हाथ में टेपचू की गर्दन आई। वह पहले तो डरा, फिर उसे खींच कर बाहर निकाल लाया। टेपचू अब मरा हुआ-सा पड़ा था। पेट गुब्बारे की तरह फूल गया था और नाक-कान से पानी की धार लगी हुई थी। टेपचू नंगा था और उसका पेशाब निकल रहा था। परमेसुरा ने उसकी टाँगें पकड़ कर उसे लटका कर पेट में ठेहुना मारा तो ‘भल-भल’ करके पानी मुँह से निकला।

एक बाल्टी पानी की उल्टी करने के बाद टेपचू मुस्कराया। उठा और बोला ‘काका, थोड़े-से कमलगट्टे तालाब से खींच दोगे क्या? मैंने इत्ता सारा तोड़ा था, साला सब छूट गया। बड़ी भूख लगी है।’

परमेसुरा ने भैंस हाँकनेवाले डंडे से टेपचू के चूतड़ में चार-पाँच डंडे जमाए और गालियाँ देता हुआ लौट गया।

गाँव के बाहर, कस्बे की ओर जानेवाली सड़क के किनारे सरकारी नर्सरी थी। वहाँ पर प्लांटेशन का काम चल रहा था। बिड़ला के पेपर मिल के लिए बाँस, सागौन और यूक्लिप्टस के पेड़ लगाए गए थे। उसी नर्सरी में, काफी भीतर ताड़ के भी पेड़ थे। गाँव में ताड़ी पीनेवालों की अच्छी-खासी तादाद थी। ज्यादातर आदिवासी मजदूर, जो पी.डब्ल्यू.डी. में सड़क बनाने तथा राखड़ गिट्टी बिछाने का काम करते थे, दिन-भर की थकान के बाद रात में ताड़ी पी कर धुत हो जाते थे। पहले वे लोग साँझ का झुटपुटा होते ही मटका ले जा कर पेड़ में बाँध देते थे। ताड़ का पेड़ बिल्कुल सीधा होता है। उस पर चढ़ने की हिम्मत या तो छिपकली कर सकती है या फिर मजदूर। सुबह तक मटके में ताड़ी जमा हो जाती थी। लोग उसे उतार लाते।

ताड़ पर चढ़ने के लिए लोग बाँस की पक्सियाँ बनाते थे और उस पर पैर फँसा कर चढ़ते थे। इसमें गिरने का खतरा कम होता। अगर उतनी ऊँचाई से कोई आदमी गिर जाता तो उसकी हड्डियाँ बिखर सकती थीं।

अब ताड़ के उन पेड़ों पर किशनपालसिंह की मिल्कियत हो गई थी। पटवारी ने उस सरकारी नर्सरी के भीतर भी उस जमीन को किशनपालसिंह के पट्टे में निकाल दिया था। अब ताड़ी निकलवाने का काम वही करते थे। ग्राम पंचायत भवन के बैठकीवाले कमरे में, जहाँ महात्मा गांधी की तस्वीर टँगी हुई थी, उसी के नीचे शाम को ताड़ी बाँटी जाती। कमरे के भीतर और बाहर ताड़ीखोर मजदूरों की अच्छी-खासी जमात इकट्ठा हो जाती थी। किशनपालसिंह को भारी आमदनी होती थी।

एक बार टेपचू ने भी ताड़ी चखनी चाही। उसने देखा था कि जब गाँव के लोग ताड़ी पीते तो उनकी आँखें आह्लाद से भर जातीं। चेहरे से सुख टपकने लगता। मुस्कान कानों तक चौड़ी हो जाती, मंद-मंद। आनंद और मस्ती में डूबे लोग साल्हो-दादर गाते, ठहाके लगाते और एक-दूसरे की माँ-बहन की ऐसी-तैसी करते। कोई बुरा नहीं मानता था। लगता जैसे लोग प्यार के अथाह समुंदर में एक साथ तैर रहे हों।

टेपचू को लगा कि ताड़ी जरूर कोई बहुत ऊँची चीज है। सवाल यह था कि ताड़ी पी कैसे जाए। काका लोगों से माँगने का मतलब था, पिट जाना। पिटने से टेपचू को सख्त नफरत थी। उसने जुगाड़ जमाया और एक दिन बिल्कुल तड़के, जब सुबह ठीक से हो भी नहीं पाई थी, आकाश में इक्का-दुक्का तारे छितरे हुए थे, वह झाड़ा फिरने के बहाने घर से निकल गया।

ताड़ की ऊँचाई और उस ऊँचाई पर टँगे हुए पके नींबू के आकार के मटके उसे डरा नहीं रहे थे, बल्कि अदृश्य उँगलियों से इशारा कर उसे आमंत्रित कर रहे थे। ताड़ के हिलते हुए डैने ताड़ी के स्वाद के बारे में सिर हिला-हिला कर बतला रहे थे। टेपचू को मालूम था कि छपरा जिले का लट्ठबाज मदना सिंह ताड़ी की रखवाली के लिए तैनात था। वह जानता था कि मदना सिंह अभी ताड़ी की खुमारी में कहीं खर्राटें भर रहा होगा। टेपचू के दिमाग में डर की कोई हल्की-सी खरोंच तक नहीं थी।

वह गिलहरी की तरह ताड़ के एकसार सीधे तने से लिपट गया और ऊपर सरकने लगा। पैरों में न तो बाँस की पक्सियाँ थीं और न कोई रस्सी ही। पंजों के सहारे वह ऊपर सरकता गया। उसने देखा, मदना सिंह दूर एक आम के पेड़ के नीचे अँगोछा बिछा कर सोया हुआ है। टेपचू अब काफी ऊँचाई पर था। आम, महुए, बहेड़ा और सागौन के गबदू-से पेड़ उसे और ठिगने नजर आ रहे थे। ‘अगर मैं गीध की तरह उड़ सकता तो कित्ता मजा आता।’ टेपचू ने सोचा। उसने देखा, उसकी कुहनी के पास एक लाल चींटी रेंग रही थी, ‘ससुरी,’ उसने एक भद्दी गाली बकी और मटके की ओर सरकने लगा।

मदना सिंह जमुहाइयाँ लेने लगा था और हिल-डुल कर जतला रहा था कि उसकी नींद अब टूटनेवाली है। धुँधलका भी अब उतना नहीं रह गया था। सारा काम फुर्ती से निपटाना पड़ेगा। टेपचू ने मटके को हिलाया। ताड़ी चौथाई मटके तक इकट्ठी हो गई थी। उसने मटके में हाथ डाल कर ताड़ी की थाह लेनी चाही…

और बस, यहीं सारी गड़बड़ी हो गई।

मटके में फनियल करैत साँप घुसा हुआ था। असल नाग। ताड़ी पी कर वह भी धुत था। टेपचू का हाथ अंदर गया तो वह उसके हाथ में बौड़ कर लिपट गया। टेपचू का चेहरा राख की तरह सफेद हो गया। गीध की तरह उड़ने जैसी हरकत उसने की। ताड़ का पेड़ एक तरफ हो गया और उसके समानांतर टेपचू वजनी पत्थर की तरह नीचे को जा रहा था। मटका उसके पीछे था।

जमीन पर टेपचू गिरा तो धप्प की आवाज के साथ एक मरते हुए आदमी की अंतिम कराह भी उसमें शामिल थी। इसके बाद मटका गिरा और उसके हिज्जे-हिज्जे बिखर गए। काला साँप एक ओर पड़ा हुआ ऐंठ रहा था। उसकी रीढ़ की हड्‌डियाँ टूट गई थीं।

मदना सिंह दौड़ा। उसने आ कर देखा तो उसकी हवा खिसक गई। उसने ताड़ की फुनगी से मटके समेत टेपचू को गिरते हुए देखा था। बचने की कोई संभावना नहीं थी। उसने एक-दो बार टेपचू को हिलाया-डुलाया। फिर गाँव की ओर हादसे की खबर देने दौड़ गया।

धाड़ मार-मार कर रोती, छाती कूटती फिरोजा लगभग सारे गाँव के साथ वहाँ पहुँची। मदना सिंह उन्हें मौके की ओर ले गया, लेकिन मदना सिंह बक्क रह गया। ऐसा नहीं हो सकता – यही ताड़ का पेड़ था, इसी के नीचे टेपचू की लाश थी। उसने ताड़ी के नशे में सपना तो नहीं देखा था? लेकिन फूटा हुआ मटका अब भी वहीं पड़ा हुआ था। साँप का सिर किसी ने पत्थर के टुकड़े से अच्छी तरह थुर दिया था। लेकिन टेपचू का कहीं अता-पता नहीं था। आसपास खोज की गई, लेकिन टेपचू मियाँ गायब थे।

गाँववालों को उसी दिन विश्वास हो गया कि हो न हो टेपचू साला जिन्न है, वह कभी मर नहीं सकता।

फिरोजा की सेहत लगातार बिगड़ रही थी। गले के दोनों ओर की हड्डियाँ उभर आई थीं। स्तन सूख कर खाली थैलियों की तरह लटक गए थे। पसलियाँ गिनी जा सकती थीं। टेपचू को वह बहुत अधिक प्यार करती थी। उसी के कारण उसने दूसरा निकाह नहीं किया था।

टेपचू की हरकतों से फिरोजा को लगने लगा कि वह कहीं बहेतू और आवारा हो कर न रह जाए। इसीलिए उसने एक दिन गाँव के पंडित भगवानदीन के पैर पकड़े। पंडित भगवानदीन के घर में दो भैंसें थीं और खेती-पानी के अलावा दूध पानी बेचने का धंधा भी करते थे। उनको चरवाहे की जरूरत थी इसलिए पंद्रह रुपए महीने और खाना खुराक पर टेपचू रख लिया गया। भगवानदीन असल काइयाँ थे। खाने के नाम पर रात का बचा-खुचा खाना या मक्के की जली-भुनी रोटियाँ टेपचू को मिलतीं। करार तो यह था कि सिर्फ भैंसों की देखभाल टेपचू को करनी पड़ेगी, लेकिन वास्तव में भैंसों के अलावा टेपचू को पंडित के घर से ले कर खेत-खलिहान तक का सारा काम करना पड़ता था। सुबह चार बजे उसे जगा दिया जाता और रात में सोते-सोते बारह बज जाते। एक महीने में ही टेपचू की हालत देख कर फिरोजा पिघल गई। छाती में भीतर से रुलाई का जोरदार भभका उठा। उसने टेपचू से कहा भी कि बेटा, इस पंडित का द्वार छोड़ दे। कहीं और देख लेंगे। यह तो मुआ कसाई है पूरा, लेकिन टेपचू ने इनकार कर दिया।

टेपचू ने यहाँ भी जुगाड़ जमा लिया। भैंसों को जंगल में ले जा कर वह छुट्टा छोड़ देता और किसी पेड़ के नीचे रात की नींद पूरी करता। इसके बाद उठता। सोन नदी में भैंसों को नहलाता, कुल्ला वगैरह करता। फिर इधर-उधर अच्छी तरह से देख-ताक कर डालडा के खाली डिब्बे में एक किलो भैंस का ताजा दूध दुह कर चढ़ा लेता। उसकी सेहत सुधरने लगी।

एक बार पंडिताइन ने उसे किसी बात पर गाली बकी और खाने के लिए सड़ा हुआ बासी भात दे दिया। उस दिन टेपचू को पंडित के खेत की निराई भी करनी पड़ी थी और थकान और भूख से वह बेचैन था। भात का कौर मुँह में रखते ही पहले तो खटास का स्वाद मिला, फिर उबकाई आने लगी। उसने सारा खाना भैंसों की नाँद में डाल दिया और भैसों को हाँक कर जंगल ले गया।

शाम को जब भैंसें दुही जाने लगीं तो छटाक भर भी दूध नहीं निकला। पंडित भगवानदीन को शक पड़ गया और उन्होंने टेपचू की जूतों से पिटाई की। देर तक मुर्गा बनाए रखा, दीवाल पर उकड़ू बैठाया, थप्पड़ चलाए और काम से उसे निकाल दिया।

इसके बाद टेपचू पी.डब्ल्यू.डी. में काम करने लगा। राखड़ मुरम, बजरी बिछाने का काम। सड़क पर डामर बिछाने का काम। बड़े-बड़े मर्दों के लायक काम। चिलचिलाती धूप में। फिरोजा मकई के आटे में मसाला-नमक मिला कर रोटियाँ सेंक देती। टेपचू काम के बीच में, दोपहर उन्हें खा कर दो लोटा पानी सड़क लेता।

ताज्जुब था कि इतनी कड़ी मेहनत के बावजूद टेपचू सिझ-पक कर मजबूत होता चला गया। काठी कढ़ने लगी। उसकी कलाई की हड्डियाँ चौड़ी होती गईं, पेशियों में मछलियाँ मचलने लगीं। आँखों में एक अक्खड़ रौब और गुस्सा झलकने लगा। पंजे लोहे की माफिक कड़े होते गए।

एक दिन टेपचू एक भरपूर आदमी बन गया। जवान। पसीने, मेहनत, भूख, अपमान, दुर्घटनाओं और मुसीबतों की विकट धार को चीर कर वह निकल आया था। कभी उसके चेहरे पर पस्त होने, टूटने या हार जाने का गम नहीं उभरा।

उसकी भौंहों को देख कर एक चीज हमेशा अपनी मौजूदगी का अहसास कराती – गुस्सा, या शायद घृणा की थरथराती हुई रोशन पर्त।

मैंने इस बीच गाँव छोड़ दिया और बैलाडिला के आयरन मिल में नौकरी करने लगा। इस बीच फिरोजा की मौत हो गई। बालदेव, सँभारू और राधे के अलावा गाँव के कई और लोग बैलाडिला में मजदूरी करने लगे। पंडित भगवानदीन को हैजा हो गया और वे मर गए। हाँ, किशनपाल सिंह उसी तरह ताड़ी उतरवाने का धंधा करते रहे। वे कई सालों से लगातार सरपंच बन रहे थे। कस्बे में उनकी पक्की हवेली खड़ी हो गई और बाद में वे एम.एल.ए. हो गए।

लंबा अर्सा गुजर गया। टेपचू की खबर मुझे बहुत दिनों तक नहीं मिली लेकिन यह निश्चित था कि जिन हालात में टेपचू काम कर रहा था, अपना खून निचोड़ रहा था, अपनी नसों की ताकत चट्टानों में तोड़ रहा था – वे हालात किसी के लिए भी जानलेवा हो सकते थे।

टेपचू से मेरी मुलाकात पर तब हुई, जब वह बैलाडिला आया। पता लगा कि किशनपाल सिंह ने गुंडों से उसे बुरी तरह पिटवाया था। गुंडों ने उसे मरा हुआ जान कर सोन नदी में फेंक दिया था, लेकिन वह सही-सलामत बच गया और उसी रात किशनपाल सिंह की पुआल में आग लगा कर बैलाडिला आ गया। मैंने उसकी सिफारिश की और वह मजदूरी में भर्ती कर लिया गया।

वह सन अठहत्तर का साल था। हमारा कारखाना जापान की मदद से चल रहा था। हम जितना कच्चा लोहा तैयार करते, उसका बहुत बड़ा हिस्सा जापान भेज दिया जाता। मजदूरों को दिन-रात खदान में काम करना पड़ता।

टेपचू इस बीच अपने साथियों से पूरी तरह घुल-मिल गया था। लोग उसे प्यार करते। मैंने वैसा बेधड़क, निडर और मुँहफट आदमी और नहीं देखा। एक दिन उसने कहा था, ‘काका, मैंने अकेले लड़ाइयाँ लड़ी हैं। हर बार मैं पिटा हूँ। हर बार हारा हूँ। अब अकेले नहीं, सबके साथ मिल कर देखूँगा कि सालों में कितना जोर है।’

इन्हीं दिनों एक घटना हुई। जापान ने हमारे कारखाने से लोहा खरीदना बंद कर दिया, जिसकी वजह से सरकारी आदेश मिला कि अब हमें कच्चे लोहे का उत्पादन कम करना चाहिए। मजदूरों की बड़ी तादाद में छँटनी करने का सरकारी फरमान जारी हुआ। मजदूरों की तरफ से माँग की गई कि पहले उनकी नौकरी का कोई दूसरा बंदोबस्त कर दिया जाए तभी उनकी छँटनी की जाए। इस माँग पर बिना कोई ध्यान दिए मैनेजमेंट ने छँटनी पर फौरन अमल शुरू कर दिया। मजदूर यूनियन ने विरोध में हड़ताल का नारा दिया। सारे मजदूर अपनी झुग्गियों में बैठ गए। कोई काम पर नहीं गया।

चारों तरफ पुलिस तैनात कर दी गई। कुछ गश्ती टुकड़ियाँ भी रखी गईं, जो घूम-घूम कर स्थिति को कुत्तों की तरह सूँघने का काम करती थीं। टेपचू से मेरी भेंट उन्हीं दिनों शेरे पंजाब होटल के सामने पड़ी लकड़ी की बेंच पर बैठे हुए हुई। वह बीड़ी पी रहा था। काले रंग की निकर पर उसने खादी का एक कुर्ता पहन रखा था।

मुझे देख कर वह मुस्कराया, ‘सलाम काका, लाल सलाम।’ फिर अपने कत्थे-चूने से रँगे मैले दाँत निकाल कर हँस पड़ा, ‘मनेजमेंट की गाँड़ में हमने मोटा डंडा घुसेड़ रखा है। साले बिलबिला रहे हैं, लेकिन निकाले निकलता नहीं काका, दस हजार मजदूरों को भुक्खड़ बना कर ढोरों की माफिक हाँक देना कोई हँसी-ठट्ठा नहीं है। छँटनी ऊपर की तरफ से होनी चाहिए। जो पचास मजदूरों के बराबर पगार लेता हो, निकालो सबसे पहले उसे, छाँटो अजमानी साहब को पहले।’

टेपचू बहुत बदल गया था। मैंने गौर से देखा उसकी हँसी के पीछे घृणा, वितृष्णा और गुस्से का विशाल समुंदर पछाड़ें मार रहा था। उसकी छाती उघड़ी हुई थी। कुर्ते के बटन टूटे हुए थे। कारखाने के विशालकाय फाटक की तरह खुले हुए कुर्ते के गले के भीतर उसकी छाती के बाल हिल रहे थे, असंख्य मजदूरों की तरह, कारखाने के मेन गेट पर बैठे हुए। टेपचू ने अपने कंधे पर लटकते हुए झोले से पर्चे निकाले और मुझे थमा कर तीर की तरह चला गया।

कहते हैं, तीसरी रात यूनियन ऑफिस पर पुलिस ने छापा मारा। टेपचू वहीं था। साथ में और भी कई मजदूर थे। यूनियन ऑफिस शहर से बिल्कुल बाहर दूसरी छोर पर था। आस-पास कोई आबादी नहीं थी। इसके बाद जंगल शुरू हो जाता था। जंगल लगभग दस मील तक के इलाके में फैला हुआ था।

मजदूरों ने पुलिस को रोका, लेकिन दरोगा करीम बख्श तीन-चार कांस्टेबुलों के साथ जबर्दस्ती अंदर घुस गया। उसने फाइलों, रजिस्टरों, पर्चों को बटोरना शुरू किया। तभी टेपचू सिपाहियों को धकियाते हुए अंदर पहुँचा और चीखा, ‘कागज-पत्तर पर हाथ मत लगाना दरोगाजी, हमारी डूटी आज यूनियन की तकवानी में हैं। हम कहे दे रहे हैं। आगा-पीछा हम नहीं सोचते, पर तुम सोच लो, ठीक तरह से।’

दरोगा चौंका। फिर गुस्से में उसकी आँखें गोल हो गईं, और नथुने साँड़ की तरह फड़कने लगे, ‘कौन है मादर… तूफानी सिंह, लगाओ साले को दस डंडे।’

सिपाही तूफानी सिंह आगे बढ़ा तो टेपचू की लँगड़ी ने उसे दरवाजे के आधा बाहर और आधा भीतर मुर्दा छिपकली की तरह जमीन पर पसरा दिया। दरोगा करीम बख्श ने इधर-उधर देखा। सिपाही मुस्तैद थे, लेकिन कम पड़ रहे थे। उन्होंने इशारा किया लेकिन तब तक उनकी गर्दन टेपचू की भुजाओं में फँस चुकी थी।

मजदूरों का जत्था अंदर आ गया और तड़ातड़ लाठियाँ चलने लगीं। कई सिपाहियों के सिर फूटे। वे रो रहे थे और गिड़गिड़ा रहे थे। टेपचू ने दरोगा को नंगा कर दिया था।

पिटी हुई पुलिस पलटन का जुलूस निकाला गया। आगे-आगे दरोगाजी, फिर तूफानी सिंह, लाइन से पाँच सिपाहियों के साथ। पीछे-पीछे मजदूरों का हुजूम ठहाके लगाता हुआ। पुलिसवालों की बुरी गत बनी थी। यूनियन ऑफिस से निकल कर जुलूस कारखाने के गेट तक गया, फिर सिपाहियों को छोड़ कर मस्ती और गर्व में डूबे हुए लोग लौट गए। टेपचू की गर्दन अकड़ी हुई थी और वह साल्हो दादर गाने लगा था।

अगले दिन सवेरे टेपचू झुग्गी से निकल कर टट्टी करने जा रहा था कि पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया। और भी बहुत-से लोग पकड़े गए थे। चारों तरफ गिरफ्तारियाँ चल रही थीं।

टेपचू को जब पकड़ा गया तो उसने टट्टीवाला लोटा खींच कर तूफानीसिंह को मारा। लोटा माथे के बीचो-बीच बैठा और गाढ़ा गंदा खून छलछला आया। टेपचू ने भागने की कोशिश की, लेकिन वह घेर लिया गया। गुस्से में पागल तूफानी सिंह ने तड़ातड़ डंडे चलाए। मुँह से बेतहाशा गालियाँ फूट रही थीं।

सिपाहियों ने उसे जूते से ठोकर मारी। घूँसे-लात चलाए। दरोगा करीम बख्श भी जीप से उतर आए। यूनियन ऑफिस में की गई अपनी बेइज्जती उन्हें भूली नहीं थी।

दरोगा करीम बख्श ने तूफानी सिंह से कहा कि टेपचू को नंगा किया जाए और गाँड़ में एक लकड़ी ठोंक दी जाए। तूफानी सिंह ने यह काम सिपाही गजाधर शर्मा के सुपुर्द किया।

गजाधर शर्मा ने टेपचू का निकर खींचा तो दरोगा करीम बख्श का चेहरा फक हो गया। फिरोजा ने टेपचू की बाकायदा खतौनी कराई थी। टेपचू दरोगा का नाम तो नही जानता था, लेकिन उसका चेहरा देख कर जात जरूर जान गया। दरोगा करीम बख्श ने टेपचू की कनपटी पर एक डंडा जमाया, ‘मादर… नाम क्या है तेरा?’

टेपचू ने कुर्ता उतार कर फेंक दिया और मादरजाद अवस्था में खड़ा हो गया, ‘अल्ला बख्श बलद अब्दुल्ला बख्श साकिन मड़र मौजा पौंड़ी, तहसील सोहागपुर, थाना जैतहरी, पेशा मजदूरी’ – इसके बाद उसने टाँगें चौड़ी कीं, घूमा और गजाधर शर्मा, जो नीचे की ओर झुका हुआ था, उसके कंधे पर पेशाब की धार छोड़ दी, ‘जिला शहडोल, हाल बासिंदा बैलाडिला…’

टेपचू को जीप के पीछे रस्सी से बाँध कर डेढ़ मील तक घसीटा गया। सड़क पर बिछी हुई बजड़ी और मुरम ने उसकी पीठ की पर्त निकाल दी। लाल टमाटर की तरह जगह-जगह उसका गोश्त बाहर झाँकने लगा।

जीप कस्बे के पार आखिरी चुंगी नाके पर रुकी। पुलिस पलटन का चेहरा खूँखार जानवरों की तरह दहक रहा था। चुंगी नाके पर एक ढाबा था। पुलिसवाले वहीं चाय पीने लगे।

टेपचू को भी चाय पीने की तलब महसूस हुई, ‘एक चा इधर मारना छोकड़े, कड़क।’ वह चीखा। पुलिसवाले एक-दूसरे की ओर कनखियों से देख कर मुस्कराए। टेपचू को चाय पिलाई गई। उसकी कनपटी पर गूमड़ उठ आया था और पूरा शरीर लोथ हो रहा था। जगह-जगह से लहू चुहचुहा रहा था।

जीप लगभग दस मील बाद जंगल के बीच रुकी। जगह बिलकुल सुनसान थी। टेपचू को नीचे उतारा गया। गजाधर शर्मा ने एक-दो डंडे और चलाए। दरोगा करीम बख्श भी जीप से उतरे और उन्होंने टेपचू से कहा, ‘अल्ला बख्श उर्फ टेपचू, तुम्हें दस सेकेंड का टाइम दिया जाता है। सरकारी हुकुम मिला है कि तुम्हारा जिला बदल कर दिया जाए। सामने की ओर सड़क पर तुम जितनी जल्द दूर-से-दूर भाग सकते हो, भागो। हम दस तक गिनती गिनेंगे।’

टेपचू लँगड़ाता-डगमगाता चल पड़ा। करीम बख्श खुद गिनती गिन रहे थे। एक-दो-तीन-चार-पाँच…

लँगड़े, बूढ़े, बीमार बैल की तरह खून में नहाया हुआ टेपचू अपने शरीर को घसीट रहा था। वह खड़ा तक नहीं हो पा रहा था, चलने और भागने की तो बात दूर थी।

अचानक दस की गिनती खत्म हो गई। तूफानी सिंह ने निशाना साध कर पहला फायर किया – धाँय।

गोली टेपचू की कमर में लगी और वह रेत के बोरे की तरह जमीन पर गिर पड़ा। कुछ सिपाही उसके पास पहुँचे। कनपटी पर बूट मारी। टेपचू कराह रहा था, ‘हरामजादो।’

गजाधर शर्मा ने दरोगा से कहा, ‘साब अभी थोड़ा बहुत बाकी है।’ दरोगा करीम बख्श ने तूफानी सिंह को इशारा किया। तूफानी सिंह ने करीब जा कर टेपचू के दोनों कंधों के पास, दो-दो इंच नीचे दो गोलियाँ और मारीं, बंदूक की नाल लगभग सटा कर। नीचे की जमीन तक उधड़ गई।

टेपचू धीमे-धीमे फड़फड़ाया। मुँह से खून और झाग के थक्के निकले। जीभ बाहर आई। आँखें उलट कर बुझीं। फिर वह ठंडा पड़ गया।

उसकी लाश को जंगल के भीतर महुए की एक डाल से बाँध कर लटका दिया गया था। मौके की तस्वीर ली गई। पुलिस ने दर्ज किया कि मजदूरों के दो गुटों में हथियारबंद लड़ाई हुई। टेपचू उर्फ अल्ला बख्श को मार कर पेड़ में लटका दिया गया था। पुलिस ने लाश बरामद की। मुजरिमों की तलाश जारी है।

इसके बाद टेपचू की लाश को सफेद चादर से ढक कर संदूक में बंद कर दिया गया और जीप में लाद कर पुलिस चौकी लाया गया।

रायगढ़ बस्तर, भोपाल सभी जगह से पुलिस की टुकड़ियाँ आ गई थीं। सी.आर.पी. वाले गश्त लगा रहे थे। चारों ओर धुआँ उठ रहा था। झुग्गियाँ जला दी गई थीं। पचासों मजदूर मारे गए। पता नहीं क्या-क्या हुआ था।

सुबह टेपचू की लाश को पोस्टमार्टम के लिए जिला अस्पताल भेजा गया। डॉ. एडविन वर्गिस ऑपरेटर थिएटर में थे। वे बड़े धार्मिक किस्म के ईसाई थे। ट्राली-स्ट्रेचर में टेपचू की लाश अंदर लाई गई। डॉ. वर्गिस ने लाश की हालत देखी। जगह-जगह थ्री-नॉट-थ्री की गोलियाँ धँसी हुई थीं। पूरी लाश में एक सूत जगह नहीं थी, जहाँ चोट न हो।

उन्होंने अपना मास्क ठीक किया, फिर उस्तरा उठाया। झुके और तभी टेपचू ने अपनी आँखें खोलीं। धीरे से कराहा और बोला, ‘डॉक्टर साहब, ये सारी गोलियाँ निकाल दो। मुझे बचा लो। मुझे इन्हीं कुत्तों ने मारने की कोशिश की है।’

डॉक्टर वर्गिस के हाथ से उस्तरा छूट कर गिर गया। एक घिघियाई हुई चीख उनके कंठ से निकली और वे ऑपरेशन रूम से बाहर की ओर भागे।

आप कहेंगे कि ऐसी अनहोनी और असंभव बातें सुना कर मैं आपका समय खराब कर रहा हूँ। आप कह सकते हें कि इस पूरी कहानी में सिवा सफेद झूठ के और कुछ नहीं है।

मैंने भी पहले ही अर्ज किया था कि यह कहानी नहीं है, सच्चाई है। आप स्वीकार क्यों नहीं कर लेते कि जीवन की वास्तविकता किसी भी काल्पनिक साहित्यिक कहानी से ज्यादा हैरतअंगेज होती है। और फिर ऐसी वास्तविकता जो किसी मजदूर के जीवन से जुड़ी हुई हो।

हमारे गाँव मड़र के अलावा जितने भी लोग टेपचू को जानते हैं वे यह मानते हैं कि टेपचू कभी मरेगा नहीं – साला जिन्न है।

आपको अब भी विश्वास न होता हो तो जहाँ, जब, जिस वक्त आप चाहें, मैं आपको टेपचू से मिलवा सकता हूँ।

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