तलाशी | अनामिका
तलाशी | अनामिका
उन्होंने कहा – “हैंड्स अप !”
एक-एक अंग फोड़ कर मेरा
उन्होंने तलाशी ली !
मेरी तलाशी में मिला क्या उन्हें ?
थोड़े से सपने मिले और चाँद मिला –
सिगरेट की पन्नी-भर,
माचिस-भर उम्मीद, एक अधूरी चिट्ठी
जो वे डीकोड नहीं कर पाए
क्योंकि वह सिंधु घाटी सभ्यता के समय
मैंने लिखी थी –
एक अभेद्य लिपि में –
अपनी धरती को –
हलो धरती, कहीं चलो धरती,
कोल्हू का बैल बने गोल-गोल घूमें हम कब तक ?
आओ, कहीं आज घूरते हैं तिरछा
एक अगिनबान बन कर
इस ग्रह-पथ से दूर !
उन्होंने चिट्ठी मरोड़ी
और मुझे कोंच दिया काल-कोठरी में!
अपनी कलम से मैं लगातार
खोद रही हूँ तब से
काल-कोठरी में सुरंग !
कान लगा कर सुनो –
धरती की छाती में क्या बज रहा है !
क्या कोई छुपा हुआ सोता है ?
और दूर उधर – पार सुरंग के – वहाँ
दिख रही है कि नहीं दिखती
एक पतली रोशनी
और खुला-खिला घास का मैदान!
कैसी खुशनुमा कनकनी है !
हो सकता है – एक लोकगीत गुजरा हो
कल रात इस राह से !
नन्हें-नन्हें पाँव उड़ते हुए से गए हैं
ओस नहाई घास पर !
फिलहाल, बस एक परछाईं
ओस के होंठों पर
थरथराती सी बची है !
पहला एहसास किसी सृष्टि का
देखो तो –
टप-टप
टपकता है कैसे !