समझ | आभा बोधिसत्व

समझ | आभा बोधिसत्व

समझ | आभा बोधिसत्व समझ | आभा बोधिसत्व वह जब तृप्त हो गयाउसने पूछा क्यों देती हो दूध,क्यों सेती हो अंडे मैं क्या करतीकुछ सूझा नहींऐसे में औचकमैंने गांधी के तीन बंदर का रूप लियाएक साथ जो समय की माँग थीअब वह मक्खियाँ निगल रहा थामैं देख रही थी उसकीस्वार्थ की सिद्धि

स्त्रियाँ | आभा बोधिसत्व

स्त्रियाँ | आभा बोधिसत्व

स्त्रियाँ | आभा बोधिसत्व स्त्रियाँ | आभा बोधिसत्व स्त्रियाँ घरों में रह कर बदल रही हैंपदवियाँ पीढ़ी दर पीढ़ी स्त्रियाँ बना रही हैंउस्ताद फिर गुरु, अपने ही दो चार बुझे-अनबुझेशब्दों से, दे रही हैं ढाँढ़स, बन रही हैं ढाल,सदियों से सह रही हैं मान-अपमान घर और बाहरस्त्रियाँ बढ़ा रही हैं मर्यादा कुल की खुद अपनी … Read more

व्यवस्था | आभा बोधिसत्व

व्यवस्था | आभा बोधिसत्व

व्यवस्था | आभा बोधिसत्व व्यवस्था | आभा बोधिसत्व अमरूद नहीं हूँ किखा ले कोई जब मन करे तबबेवजह-बेमौसमअगर गलती से यह हो भी तबकुर्सी पर बैठे मंत्री जीखड़े हुए संत्री जी,चौके में बैठी अम्मा जीसड़कों पर घूमते भाई जीनफरत और प्रेम के पशोपेश काझोला लिए मुझसे मोर्चा लिए पिताको दुनिया के हर रिश्ते कोदेना होगा … Read more

बंधन | आभा बोधिसत्व

बंधन | आभा बोधिसत्व

बंधन | आभा बोधिसत्व बंधन | आभा बोधिसत्व हेनरी फोर्ट ने कहा –बंधन मनुष्यता का कलंक है,दादी ने कहा –जो सह गया समझो लह गया,बुआ ने किस्से सुनाएमर्यादा पुरुषोत्तम राम और सीता के,तो माँ नेनइहर और सासुर के गहनों को बेंच कर से फीस भरीकभी दो दो रुपये तोकभी पचास-पचास भी।मैने बंधन के बारे में … Read more

पहचान | आभा बोधिसत्व

पहचान | आभा बोधिसत्व

पहचान | आभा बोधिसत्व पहचान | आभा बोधिसत्व आदमी खुद को नहींपहचान पाता अपना किया भीयह काम जानवरों का है उन्हेंपहचाननातभी खोजी कुत्ते लगाए जातेहैं मनुष्य की पहचान के लिएघरों में और वक्त आने पर सरकार द्वाराकठिन है मनुष्य की पहचान मनुष्य द्वारानामुमकिन…

तुम | आभा बोधिसत्व

तुम | आभा बोधिसत्व

तुम | आभा बोधिसत्व तुम | आभा बोधिसत्व अभी अभी आई हैतुम्हारी आवाजअभी अभी मैं अचकचा कर पूछरही हूँ, किसी ने बुलाया क्या,क्या? नहीं तो… शब्द उधारलेना पड़ा यह कहने के लिए बार बारऔर याद। मत पूछो। किससे किससे कहूँ कि चाँद,सूरज, धरती आकाश फिर तुमतुम्हारी आवाजें बार बारकहती हैं तुम मेरे होमेरे हिम्मतपस्ती से … Read more

जुड़ाव | आभा बोधिसत्व

जुड़ाव | आभा बोधिसत्व

जुड़ाव | आभा बोधिसत्व जुड़ाव | आभा बोधिसत्व अभी मैं सो रही हूँयह कविता लिखते हुए किअन्न के लिए नहींजल के लिए नहींनन्हीं हथेलियों को सहलानेके लिए नहीं बल्किदुश्मनों ने कितना तारा मुझेउन्हें तारने के लिए नहींबल्कि धता बताने के लिए निर्थक सुख…और ताकत जुटाने के लिए जुड़ने के लिए जीवन लिख रही हूँसोते हुए … Read more

गठरी लोटा जीवन सारा | आभा बोधिसत्व

गठरी लोटा जीवन सारा | आभा बोधिसत्व

गठरी लोटा जीवन सारा | आभा बोधिसत्व गठरी लोटा जीवन सारा | आभा बोधिसत्व इस धरती पर न कोई किसी से बड़ा है न छोटा है हर मनुष्य केवल और केवल साँस भरी गठरी है या जल से भरा लोटा है।

कमजोर | आभा बोधिसत्व

कमजोर | आभा बोधिसत्व

कमजोर | आभा बोधिसत्व कमजोर | आभा बोधिसत्व मनुष्य की तरहफूल भी कमजोर थेछुए जाने से मुरझा जाना,शब्द की तरह अर्थ भी कमजोर थेजहाँ लिखे जाने पर कलम की स्याही सूख जाती थी,क्या लिखा जाना क्या छोड़ा जाना अकारथऔर मजबूत तथ्यों में कोई सुलझाव नहीं था विचार वहाँजहाँ हर दिन रात की तरह गाए जाते … Read more

उल्टी भाषा के सम्राट | आभा बोधिसत्व

उल्टी भाषा के सम्राट | आभा बोधिसत्व

उल्टी भाषा के सम्राट | आभा बोधिसत्व उल्टी भाषा के सम्राट | आभा बोधिसत्व ऐसा वे मानते हैं किहरामी हुए बिना नहीं रहा जा सकताधरती पर खुश खुश!इसके लिए वे समय को साथ लिए-अपने हक में अपना ही न्याय अजीबो-गरीबजिसे पूजना हो उसे थूकते हैंजिसे थूकना हो उसे पूजते हैं।गढ़ते है मीठा सत्य उनके लिए … Read more