सस्पेंस | प्रेमशंकर मिश्र
सस्पेंस | प्रेमशंकर मिश्र

सस्पेंस | प्रेमशंकर मिश्र

सस्पेंस | प्रेमशंकर मिश्र

जब कभी सूरज
समय से पहले डूबता है

दिशाएँ
इसी तरह अपना मुँह
फेर लिया करती हैं।
एक व्‍यूह बनता है
एक वात्‍याचक्र।
उभरता भविष्‍य
नपुंसक वर्तमानों के हाथों
घेर कर मारा जाता है।
बजबजाहटों में
उगे पनपे
असंख्‍य रासायनिक कुकुरमुत्‍ते
मौसम की बगुवाई करते हैं।
गांडीव निलंबित होता है
प्रतिबद्ध पार्थिव आदर्श
आत्‍माहुति के लिए सन्‍नद्ध होता है।
लगता है
सचमुच
अंधकार की दृष्टि है
तपन का प्रकाश
आचार की अति है।
पर
ऐसा नहीं होने पाता
प्रलय से लय उभरती है
बंशी का कोई स्‍वर कोई रंध्र
बँसवारी की सरगर्मी परिधि से
छिटक कर
तांडव करता है
कुहासा फटता है
तिलिस्‍म टूटता है
देखते-देखते
इस संधिकाल के गुजरते-गुजरते
अंततोगत्‍वा
जयद्रथ बध होता ही है।

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इसे
पुराण या पुराना कह कर नकारना
अपनी ही मुट्ठी से
अपना ही अक्‍स तोड़कर
खूनआलूदा दामन से
अपने ही हाथों
अपने मुँह का पसीना पोछना है।

दीवारों की दरारें
चुनाव चिह्नों से तोपने की सबील
रंग बिरंगे गुब्‍बारों
या बहुत हुआ तो
पालतू कबूतरों को उड़ाकर
समारोह का उद्घाटन मात्र ही तो करना है।

जब-जब एंड़ियाँ कटती हैं
हिरनों की जानलेवा देपहरी
टुकड़ों-टुकड़ों में कटकर
मिट्टी में मिलती है
पर हम हैं कि धीरज खो देते हैं
गरम गरम चूल्‍हे को तुरंत धो देते हैं।

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आजादी, इंकलाब, अनुशासन
कपड़ा, मकान और राशन
दृष्टि के अभाव में
अदृष्‍ट हो जाते हैं।

और भी
समय से पहले
सूरज डूबने की
एक खास निशानी
यह भी हुआ करती है

कि
बहुरूपिए शक्तिमानों का झुंड
बिजली के साये में मुँह छुपाता है
कि
कौंध खत्‍म हो जाने पर
देश बजाता है
कि अफसर अपने हाथों की कालिख
मातहतों के मुँह लगाता है
कि
रहबर लफंगों के लिए
शरीफों को सताता है,
कि
पैसा ही लिखता है लिखाता है
छपता है छपाता है
‘आया’ को ‘गया’
और ‘गया’ को ‘आयाराम’ बनाता है।

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सूरज हो, आदमी हो या पत्‍थर
सबके डूबने की आवाजें
अलग-अलग हुआ करती हैं
संक्रांति में
इस फरक की तमीज
विजिलेंस की विवेचना
और साहब की फ्रिज के बीच
लटक रही है।
यकीन
कुत्‍तों के भौंकने और सूँघने पर
तुम्‍हारी सत्‍यनिष्‍ठा से कहीं ज्‍यादा है।
जब कभी सूरज समय से पहले डूबता है
यह सब होता है
जो आज हो रहा है।

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