सूने समंदर और किनारे | हुश्न तवस्सुम निहाँ
सूने समंदर और किनारे | हुश्न तवस्सुम निहाँ

सूने समंदर और किनारे | हुश्न तवस्सुम निहाँ – Sune Samandar Aur Kinare

सूने समंदर और किनारे | हुश्न तवस्सुम निहाँ

सवा साँझ से ही उनके भीतर गर्म खुशबुएँ उठने लगती हैं। कमोवेश वैसे, जैसे झुटपुटे में रातरानी रह-रह के महकती जाए या जैसे पावस की रात में भीगे-भीगे नम स्पर्श। आठ साल की उम्र से ही वह गर्म सुगंधों के मोहतात हो गए थे।

कैसे न होते…? जंगली हवाओं के झंझावत से झूला झूलते हुए ही तो वह वयस्क होते हुए प्रौढ़ अमराइयों तक पहुँचे थे। होश सँभाला तो खुद को अम्मा से लिपटा हुआ पाया। अम्मा खालिस पेटीकोट-ब्लाउज में ही उन्हें चिपका कर सोतीं। अम्मा सो जातीं, मगर उनकी नन्हीं-नन्हीं ऊँगलियाँ अम्मा के कलहऊँ-मुलायम जिस्म से छुआ-छू खेला करतीं। तब तक, जब तक नींद सिरहाने आ कर बैठ न जाती। कभी-कभार अरवट-करवट में पेटीकोट उढ़क जाता तो उन्हें जादू दिखाई दे जाता। अचरज की ढेर सारी कलियाँ जेहन के खानों में भर जातीं। एक तोष के साथ धीमे से वह अम्मा के ब्लाउज में हाथ सरका ले जाते, फिर जाने कब नींद की बदलियाँ उनकी आँखों में भर जातीं और वह गहरे ख्वाब में खो रहते…।

पिता उनके जन्म के साल भर बाद ही गुजर गए थे। किसी कॉलेज में पानी पिलाने के ओहदे पर थे। उनके गुजरने के बाद अम्मा को जगह मिल गई। पति के खोने का दर्द बेटे को कलेजे से लगा कर पी लिया। नाम दिया – केशव।

रात को खा-पका कर जब वह केशव को सीने से चिपका के सोती, तो दिन भर की थकन छू हो जाती। लगता काँटों पे चलते-चलते फूलों से पाँव छू गए हों या तपती रेत से गुलमोहर ने खींच लिया हो। हालाँकि एक दिन उसने केशव को डपटा था –

‘अब अलग पलँग बिछाया कर, बड़ा हो गया है। पूरे दस साल का’ – वह सन्नाटे में –
    ‘क्या कहती हो अम्मा… नहीं, तेरे बिना नींद नहीं आवेगी… कसम ले…’
    अम्मा का जी उमड़ पड़ा।
    ‘ठीक है पगले…’ – दुलारन टिपिया दिया।

रात, अम्मा सो गईं मगर वह उनकी नाभि पर ऊँगलियाँ फेरते सोचते रहे – ‘अलग सोने में कहाँ ये रस… कहाँ ये सुख…? और पुनः ब्लाउज में हाथ डाल सो रहे। किंतु ये स्पष्ट था कि उस रात माँ की देह से जुड़ाव और गहरा गया। सपने में देखा कि माँ की देह से महुआ टपक रहा है, संदल बरस रहा है। और वह लोट रहे हैं कदमों में। कभी उनका जिस्म गर्म लोहा हो जाता, कभी ठंडी झुरझुरी दौड़ जाती। ऐसी ही रानाइयों में गोतम-गोता लगाते सुबहें आती रहीं, रातें जाती रहीं। तेरहवें साल का पाला छूते-छूते देह किसी गर्जन से भर गई, जैसे अजीब मटमैले बादल भीतर घुड़मुड़ाया करते। शरीर भर में छोटी-छोटी कोपलें फूटने लगीं। मन हरियाली से भर गया। मगर क्या, सुहाने दिन हमेशा अपने पीछे चक्रवात ले कर आते हैं। उसी साल शहर में प्लेग फैला। अम्मा खर्च हो गईं। वह टूट गए। बिखर गए। चकनाचूर हो गए। यूँ तो दिन बुरे थे मगर रात का सन्नाटा बेतरह गले पड़ जाता। अम्मा द्वारा सूनी कर दी गई जगह उन्हें कचोट डालती। खाली पलँग पे हाथ रेंगते रहते। शरीर में कभी गर्म धारा दौड़ जाती, कभी ठंडी लहर। कॉलेज में तिबारा उन्हें अम्मा की जगह बैठा दिया गया। अलबत्ता, जो अम्मा के पी.एफ. आदि से धन निकलता था, उसे कॉलेज के अधिकारियों ने ही आपस में बाँट-चोंट लिया। हाँ, इतना था कि अनाथ होने के कारण उन्हें सारे कॉलेज स्टाफ का लाड़-प्यार मिल रहा था। पूरा सहयोग मिल रहा था। वयस्क होने तक का उनके खाने-पीने, पढ़ाई-लिखाई का खर्च प्रिंसिपल साहब ने अपने जिम्मे ले लिया। शायद इस तरह वह अपने पापों का प्रायश्चित करना चाह रहे थे जो उन्होंने उनके हिस्से की राशि गटक कर किया था। सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था सिवाय इसके कि उनका अंतर्मन किसी विमोहक-अंक के लिए छटपटाता रहता। आँख लगी नहीं कि जिस्म पर साँप लोटने लगते। कभी-कभी करवटों में ही पलँग के नीचे गिर जाते। अजब कैफियत, अजब नशा… अजब उन्माद… वो जो सिंदूरी-स्पर्श अम्मा दे गई थीं, उसे हवा में तलाशते रहते। अभी तो तमाम रहस्य जानने शेष थे और अम्मा थीं कि चल ही दीं।

हालाँकि, कॉलेज की किशोरियों में वह इन रहस्यों को ढूँढ़ लेने का खूब प्रयत्न करते। अम्मावाला जादू वह लड़कियों में टकटकी लगाए महसूसते रहते। ऊँगलियाँ डोलने लगतीं। मन के हाथ कुर्ते के भीतर अनायास रेंग जाते। क्षण भर को वह सब भूल जाते। खुद को भी। देह तपने लगती, कंपन शुरू हो जाता, चेहरा फड़कने लगता। फिर ज्योंही कोई चेताता – वह बर्फ का टुकड़ा बन जाते।

आयु के साथ-साथ वह कक्षाएँ पार करते गए। प्रिंसिपल साहब ने भी वयस्क होते ही उन्हें उनकी जगह बैठा दिया। किंतु हाँ, चपरासी होते हुए भी उनसे चपरासी का काम नहीं लिया जाता। अलबत्ता स्नातक होते-होते वरिष्ठ बाबुओं ने भी उन्हें अपनी फाइलें पकड़ा दीं और बेफिक्र हो गए। केशव बाबू ने इन्हें सगर्व अपना लिया। उनके लिए इसमें सौभाग्य का पुट ये था कि वह चपरासी होते हुए भी चपरासी नहीं थे। उनकी योग्यता का सही मूल्यांकन करते हुए लोगों ने उनकी तरफ कुर्सी सरका दी थी। बाबू लोग ये सोच कर खुश थे कि अब उनके पास उनका दायाँ हाथ था, जिसपे वे आँख मूँद कर भरोसा करते हुए गप्पें मार सकते थे। कुर्सी पर पकड़ बनी रहे इस प्रयास में वह भी जीतोड़ मेहनत करते, पूरी ईमानदारी से। और वह उन खसूट क्लर्कों की जरूरत और कमजोरी बनते चले गए। बाबुओं की तरफ से प्रायः उन्हें चाय-नाश्ता भी ऑफर होता, पान तो दस-दस बार तक हो जाते। केशव बाबू इतने में ही खुश थे, संतुष्ट थे। यही नहीं यदा-कदा किसी अध्यापक की अनुपस्थिति में उन्हें कक्षाओं में भेज दिया जाता जिसके एवज में उन्हें छात्रा-छात्राओं की तरफ से ‘सर’ की उपाधि मिल गई। अपनी व्यवहार-कुशलता और तत्परता के चलते उन्होंने अपने लिए एक पुराना झज्झड़ बंद पड़ा कमरा खुलवा लिया। साफ-सफाई करवा के दो कुर्सियाँ और एक मेज डाल कर अपना ऑफिस मुकम्मल कर लिया था। इंसान अपनी सूझ-बूझ और लगन से क्या नहीं पा लेता? जिंदगी एक मस्त खेमे सी चल पड़ी। उदासियों, विरक्तियों और अवसाद का दूर-दूर तक पता न था। मगर क्या था, एक रहस्यमयी गंध बादामी बादल बनके उनके भीतर खुल जाती। तब क्षण काटे नहीं कटते। रात तो कतई नहीं। स्पप्न में दोष ही…दोष… दोष ही दोष… दोष…ही…दोष…।

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विवाह का कोई नाम लेता तो तलवे के नीचे की जमीन सरकते-सरकते रह जाती। इसी टाल-मटोल में उनके हिस्से के गुलाबी मौसम श्वेत घोड़ों पे सवार दूर शिखर चोटियों में जा बैठने को बचैन थे। पशोपेश में जिंदगी जाने किधर रेंगती निकल गई। उम्र के इस मोड़ पे वह एक मातबर व्यक्ति में तब्दील हो गए। और वह केशव से केशव बाबू हो गए।

बालों में हल्की चाँदनी गिरने लगी थी। व्यक्तित्व में निखार आता गया। पूरे वजूद पर एक गौर-गंभीर्य आकर्षण पैदा होता गया था। यहाँ तक कि कालेज की किशोरियाँ भी नहीं बख्शतीं। गाहे-बगाहे मीठे तंज भी उछाल देतीं, जिसका जवाब वह हल्की मुस्कान से देते। बी.ए. द्वितीय वर्ष (कला वर्ग) की कक्षा के सामने से गुजरते हुए उन्हें खास रोमांच सा हो आता। इस क्लास में कुछेक लड़कियाँ ऐसी भी थीं जो उनका नैकट्य लाँघ आने को हमेशा आतुर रहतीं। जाने कितने अनोखे संकेतों से उन्हें खींच लेने का असफल प्रयास करती रहतीं।

एक रोज कॉलेज छूटा तो वह घर के लिए निकल पड़े। रास्ते में बचपन के साथी विवेक बाबू भेंटा गए। इस समय केंद्रीय डाकघर में बाबू हैं। सलाम-दुआ के बाद दोनों साथ-साथ निकल लिए। विवेक बाबू ने फौरी पूछा –

‘कहाँ जाएगा…?’
    ‘घर…’
    ‘घर, व्…हा…ट…घर… तू उसे घर कहता है, जिसके पल्ले खुद उढ़काने पड़ें, जिसका ताला खुद खोलना पड़े, जिसकी चिराग-बत्ती खुद करनी पड़े… तू  उसे घर कहता है?’
    ‘ऊँ…ह…, हो गया लेक्चर, …अब बोल क्या चाहता है…?’
    ‘यार, तू मेरे साथ चल, मैजिक दिखाऊँ… दुनिया का सबसे खूबसूरत और नैसर्गिक टेस्ट।’
    ‘रहने दे… घटिया बातें हैं…’ केशव बाबू ने हिकारत से मुँह एक ओर फिरा लिया। विवेक बाबू को ये अपनी भावनाओं पर ओछा प्रहार सा लगा। हार मानने से पहले एक रद्दा और रखा –
    ‘यार… केशव, तू अपनी इस संतगिरी से क्या साबित करना चाहता है? क्या मैं नीच हूँ, घटिया हूँ… चरित्रहीन हूँ… छैं…ह…ह तुझे कुछ भी नहीं आता। अरे यार ये हमारी जरूरतें हैं… जीवन का हिस्सा हैं…’
    ‘तू समझता नहीं विवेक, ऐसे ठिकानों पे जाने से कितनी बदनामी होती है, देखनेवाले भी क्या…’
    ‘उल्लू हो यार…’, विवेक बाबू ने बीच में झपट लिया।
    ‘क्या …?’ केशव बाबू चौंके।
    ‘और नहीं तो क्या, अभी भी चालीस साल पीछे चल रहे हो, मुझे तुम मूर्ख समझते हो?’
    ‘मैं समझा नहीं…’
    ‘तो समझो, वे ऐसी-वैसी नहीं, स्कूल गोइंग लड़कियाँ हैं। …शरीफ घरानों से संबंध रखती हैं।’
    ‘क्या कह रहे हो…?’

‘सही कह रहा हूँ। जिनकी मैं बात कर रहा हूँ वे कॉलेज-गर्ल्स है। तू तो जानता है इस बाजारवादी परिवेश में शरीर से आत्मा तक सब बाजार में उतर आए हैं। ना बेचना मुश्किल, ना खरीदना मुश्किल। ये प्रतिस्पर्धा का दौर है यार! हममें अगले से ज्यादा पा लेने की होड़ सी लगी है। पाने का रास्ता कैसा भी हो, जायज… नाजायज…। इस भोग-पिपासा से ग्रस्त है खासकर मध्यम वर्ग। कुंठाओं और आत्महीनता से वो इस कदर त्रास्त है कि कितना भी गिर जाने पर तुला है। आत्मग्लानि और वितृष्णा का शिकार है विशेषकर छात्र-वर्ग। कॉलेज कैंपस में वे अपने सहपाठी से कमतर रहकर नहीं जी सकते। उन्हें अकाडमिक परफारमेंस की इतनी चता नहीं होती जितनी कि इस बात की कि अगर उनके सहपाठी के पास सेल फोन है, लैपटॉप है या बाइक है तो हमारे पास क्यूँ नहीं है? और इस ‘क्यूँ नहीं हैं’ का ‘वे आउट’ वे हर तरह तलाश लेने का प्रयास करते हैं। भले ही उन्हें इसके लिए अवांछित रास्ते अपनाने पड़ें। लड़के चोरी, राहजनी और सुपारी लेने तक पे उतर आते हैं। पकड़े भी जाते हैं। बर्बाद भी होते हैं। हाँ, लड़कियाँ यहाँ भी भाग्यशाली साबित होती हैं। बगैर चोरी, राहजनी और कत्ल के वे अच्छा कमाती हैं। पैसे कमाने का उनके पास खूबसूरत जरिया है। वे मनमानी रकम वसूलती हैं। देह उनकी मिल्कियत है, जिसका वे भरपूर लाभ उठाती हैं। और बिना कोई रिस्क उठाए, सुविधा-संपन्न होती रहती हैं।

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केशव बाबू के जेहन में गोले दगने लगे। दिमाग में अंग्रेजी लेक्चरार मलिक साहब की बात कौंध गई। एक रोज वह बी.ए. द्वितीय वर्ष की मालती व सुनैना को झाड़ रहे थे –

‘बड़ी एडवांस बनती हैं, मोबाइल ले कर चलती हैं… घर में नहीं खाने को, अम्मा चली भुनाने को…’ और वह खा जानेवाली नजरों से मलिक साहब को देखे जा रही थीं। सहसा विवेक बाबू का लेक्चर थमा तो उन्हें ख्याल आया कि उनके घर की तरफ जानेवाली गली काफी पीछे छूट गई है। और वे बातों के बहाव में विवेक बाबू के साथ जाने कितनी दूर निकल आए हैं। अब, जब उनका घर पीछे छूट ही गया था तो उन्हें विवेक बाबू के साथ बढ़ना ही बढ़ना था। विवेक बाबू चौराहे पर पहुँच कर दाईं तरफ एक ढाबे पर रुके। दो सिगरेट लीं। सुलगाईं। एक केशव बाबू को थमाई और दाईं तरफ जाती रोड पर मुड़ गए। दस हाथ और आगे बढ़ने पर फुटपाथ के किनारे दाईं तरफ खड़े गुलमोहर के तरु के नीचे जींस-टी शर्ट में एक 18-19 साल के लगभग लड़की बाइक पर बैठी दिखाई दी। बॉब कट बाल और सिर पर बड़ी सी कैप। कैप का अगला हिस्सा खासा झुका हुआ, जिससे चेहरा बमुश्किल नजर आ रहा था। आधा-अधूरा। विवेक बाबू को देख अजीब से लहजे में उसने हाथ हल्के से उठा कर ‘हाय’ किया। जवाब में विवेक बाबू ने मुट्ठी में दबे सौ-सौ के पाँच नोट उसे थमा दिए जिन्हें उन्होंने ढाबे पर ही तह कर मुट्ठी में दबा लिया था। लड़की जैसे बड़बड़ाई ‘चंदन बाड़ा, लेन नं टू, रूम नं. फाइव…’

‘थैंक्यू… एक मिनट ये मेरे मित्र हैं, ये भी…’
    ‘एक सेकेंड…’ खट…खट…खट… मोबाइल पर कोई नंबर डायल किया।
    ‘हाँ यार…कहाँ है?’
    ‘…’
    ‘इस एक घंटे में फ्री है?’
    ‘…’
    ‘यार…, इंग्लिश के टेस्ट में अभी तीन दिन बाकी हैं, हो जाएगा। एक ही घंटे की तो बात है…’
    ‘…’
    ‘मम्मी को मुझ पे छोड़, मैं कहे देती हूँ कि तू मेरे यहाँ आ रही है… यार स्टेटस का सवाल है…’
    ‘…’
    ‘माई डियर…’
    ‘सर, ठिकाना नोट कीजिए अहमद हसन स्ट्रीट, डॉली अपार्टमेंट, रूम नं पंद्रह, सात बजकर दस मिनट पर…’

विवेक बाबू ने केशव बाबू से लड़की को पाँच सौ देने को कहा। वह कुछ झिझके, फिर जेब से निकाल कर पाँच सौ गिन दिए। लड़की ने बगैर गिने ही पिछली जेब में रुपए खोंस लिए और एक झटके में बाइक स्टार्ट कर सड़क की भीड़ में बिला गई। केशव बाबू विस्फारित नेत्रों से उस रास्ते को देखते रह गए जिधर से हो कर लड़की गई थी। विवेक बाबू ने चुटकी ली

‘चल यार… आज तो तेरा भी ब्रह्मचर्य टूटेगा, बहुत हो गया ‘संन्यास’।’
‘हाँ, मगर मैं इस लड़की का सोचता हूँ कैसी फर्राटा हो रही है।’
‘तूने दुनिया देखी ही कहाँ है यार…, ये गुलाबी आँधियाँ ही तो दुनिया खूबसूरत बनाती रही हैं…’ विवेक बाबू ने समझाया।

घर से फ्रेश हो कर केशव बाबू पौने सात बजे निकले। बीस मिनट का रास्ता था। सोचा, कुछ देर पहले ही पहुँचूँ। भीतर खुशी की लहरें तरंगित हो रही थीं। आटो पकड़ा। भीड़-भड़कमवाली सड़क पर भी उन्हें घोर सन्नाटा और सन्नाटे में मात्र चंद बनती-बिगड़ती आकृतियाँ नजर आ रही थी। अहमद हसन स्ट्रीट होते हुए वह डॉली अपार्टमेंट पहुँचे। डॉली अपार्टमेंट गोलाकार कॉलोनी थी। दूर से देखने में लगता कि विशाल पानी की टंकी खड़ी है। छोटी जगह में बड़ी इमारत। कई मंजिलों तक गई हुई। आसमान छूती सी। बीच-बीच में नन्हीं-नन्हीं गैलरियाँ, जिसमें से ऊपर जाने के लिए जीने दिए गए थे। कमरों की प्लेटों पर वह उँगली रख-रख कर नंबर पढ़ने लगे। अंततः गोल-गोल घूमते हुए वह पहुँच ही गए। इसे तलाशने में उन्हें पाँच मिनट लगे। दरवाजा अंदर से भिड़ा हुआ था। कॉलबेल पर उँगली रखी ही थी कि हटा ली। कुछ सोचने लगे। क्यूँ ना वापस लौट चलूँ…। फिर किसी ने धकेला। उँगली फिर से कॉलबेल पर। पुश होते ही भीतर से कहा गया –

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‘कम इन प्लीज…’ वह डरते-डरते भीतर दाखिल हुए। घुप्प अँधेरा।
‘उफ्, बड़ा अँधेरा है… लाइट का बंदोबस्त नहीं है?’ फिर सहसा विवेक बाबू की बात याद आई

‘…बस, हमारे स्पर्श ही हमारा परिचय होते हैं। एक दूसरे के नाम व पता ठिकाने से हमें कोई सरोकार नहीं रखना होता। यहाँ तक कि अगर हम दिन के उजाले में आपने-सामने भी हुए हों तो कह नहीं सकते कि हमने किसी काली रात के अँधेरे में समागम किया था। वही घुप्प अँधेरा हुआ करता है… यानी कि हर तरफ से ऽ ऽ ऽफ…’

‘ऊँ…हूँ…, यहाँ लाइट का क्या काम…’ वह हठात् चौंक पड़े।

तभी पैर एक शरीर से टकराया। वह गिरते-गिरते बचे। नीचे मोटा सा गद्दा बिछा था। वह जूते उतारकर उस पर बैठ गए। शरीर उनसे और सट गया। उनके भीतर एक ही मंथन चल रहा था कि ये आवाज पहले कहाँ सुनी… कहाँ सुनी… ? अजीब घबराहट होने लगी। उन्होंने चौंक के पीठ पर हाथ मारा तो हाथ में हाथ आ गया। पीछे हाथ किए ही उन्होंने उसका हाथ सख्ती से दबा दिया तो उसकी चीख निकल गई।

‘ओह…गॉ…ऽ ऽ ड…’
और वह उछल पड़े।
‘म्…मा…ल…ती?’
वह तुरंत सँभल गई
‘ओह सर जी, मालती-वालती छोड़ो, यहाँ हम सिर्फ स्त्री और पुरुष हैं… कम ऑन…।’

– कहते हुए उसने अपना सिर केशव बाबू की गोद में रख दिया। केशव बाबू के हाथ उसके सिर पे टहलने लगे। बड़ा लाड़ आ रहा था उन्हें मालती पर। जाने कब उनकी शर्ट के बटन खुल गए और शर्ट दो हिस्सों में बँट गई। सीने पर लहरें दौड़ रही थीं। वह एक हाथ उसके बालों में फेरने लगे, दूसरा हाथ चुपके से कुर्ते के नीचे रेंग गया। लगा, समय-देवता ने तीस वर्ष पीछे उन्हें उठा कर फेंक दिया हो। जिस्म तपती रेत हो गया। बोटी-बोटी सिहरने लगी, मचलने लगी। साँसें कभी तेज होतीं, कभी थम जातीं। एक ना मालूम सा भय उन पर छाने लगा। उस भय से कतराते हुए उन्होंने झट हाथ समेट लिए और उसका दुपट्टा टटोलकर ठीक करते हुए लंबी साँस खींचते बोले –

‘जानती हो मालती, मैं तो एक अर्से से तुम्हारे प्यार में पगलाया था मगर कभी कह नहीं पाया। तुम्हारी महक हमेशा मेरे सीने में भरी रही। तभी तो मैं किसी न किसी बहाने तुम्हारी कक्षा की गश्त करता रहता था। तुम देखती भी थीं, मुस्काती भी थीं मगर… चलो आज भाग्य ने हमें मिला ही दिया, भले ही इस गुमनाम जगह पर… मगर तुम्हें क्या चाहिए? हमसे कहा होता, ख्वाहम ख्वाह… यहाँ… तुमको बहुत प्यार करता हूँ मालती, बोलो, तुम्हें क्या चाहिए…?’

संवेदनाओं की भावुक बेलों पर रेंगते हुए वह बड़ी चालाकी से किसी और तरफ निकलना चाह रहे थे कि मालती की उकताहट फूट पड़ी ‘ओह सर जी… अब थ्योरी ही पढ़ाओगे या कुछ प्रेक्टिकल भी करोगे।’

केशव बाबू को काटो तो खून नहीं। छक्के छूट गए। ऐसा तुषारापात हुआ कि बस्स… कू ऽ ऽ ल हो गए। ये पिद्दी सी लड़की का साहस तो देखो। मानो खुला चैलेंज कर रही हो। किंतु यदि चैलेंज था भी, तो उनके लिए पहाड़ था। वह इसमें पछाड़ खानेवाले थे। तत्क्षण रोमछिद्रों से बर्फीली धाराएँ फूट पड़ीं। एकदम निढाल। मानो लकवा ग्रस गया हो। अब वे कुछ नहीं कह पाएँगे। कुछ नहीं कर पाएँगे… जिस्म में जैसे कुछ रह ही नहीं गया। उसे एक तरफ धकेल बमुश्किल खड़े हुए। टटोल कर जूते चढ़ाए और शर्ट के बटन बंद करते हुए दरवाजे की तरफ बढ़े तो मालती की आवाज ने चकरा दिया।

‘सर जी, पैसे लेते जाइए, मुझे भीख नहीं चाहिए…’

‘न… नहीं…, रख लो, मैं ही अयोग्य निकाला कि…’ कहते-कहते स्वर रुँआसा हो गया। झोंके से बाहर निकले। सामने दुनिया भर का शोर था। उजाले थे। भीड़ थी। किंतु उनके भीतर का शोर कहीं ज्यादा जीवंत हो उठा था। वह हैरान थे। क्या दुनिया खरीद-फरोख्त पर ही अब चलेगी? भावनाओं के उजालों का क्या कोई महत्व नहीं? लगा सूने-समंदर के किनारे तन्हा बैठे हों। अँधेरे से अँटा पड़ा था उनका मन। तन मोम की तरह पिघलता जा रहा था। अपने आपसे ही नजरें चुराते एक सँकरी गली में निकल गए। बाईं तरफ खिंचे बड़े से नाले के किनारे बैठ फारिग होने लगे। जहाँ कई और पहले से ही उसी कतार में बैठे हुए थे। नाले से लगी पपड़ाई दीवार जाने कितने भित्ति-चित्रों से गुदी पड़ी थी। केशव बाबू अनमने से दीवार पर निगाह फेरने लगे मगर झेंप गए। मरकरी की मटमैली रोशनी में उन्होंने सामने लाल ईंटों से लिखा साफ पढ़ा था

‘जो साला यहाँ मूते वह कुत्ता… नामर्द…’
– लगा दीवार पे मालती का चेहरा सयास उभर आया हो और वह बके जा रही हो – ‘कुत्ता… नामर्द…’
उन्होंने झट जिप बंद की और खड़े हो गए ।

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