सुबह-सवेरे | हरियश राय
सुबह-सवेरे | हरियश राय

सुबह-सवेरे | हरियश राय – subah-Savere

सुबह-सवेरे | हरियश राय

आज वो मुझे कई दिनों बाद सुबह-सुबह बाग में दिखाई दिए। बहुत तेज-तेज चल रहे थे। मैंने पीछे से आवाज दी तो रुककर मेरी ओर देखा और धीरे-धीरे चलना शुरू कर दिया ताकि मैं चलते-चलते उनके साथ आ जाऊँ।

अरुण रंजन वशिष्ठ नाम था उनका। पैंसठ साल के आसपास उनकी उम्र रही होगी। बाल पूरी तरह सफेद हो चुके थे। काफी समय पहले ही सरकारी नौकरी से मुक्त हो चुके थे और अब अपने आप को चुस्त और तंदुरुस्त रखने के लिए रोज सुबह बिना नागा छह बजे इस बाग में आ जाते। घड़ी देखकर तीस मिनट तेज-तेज चलते। कुछ एक्‍सरसाइज‍ करते, अनुलोम-विलोम करते और थोड़ी देर पार्क की बैंच पर बैठकर दीन-दुनिया की बातें करते और सात बजने से पहले वे बाग से चले जाते। सात बजने के बाद एक मिनट भी रुकना उन्हें गवारा नहीं था।

मैं भी तेज-तेज चलते हुए उनके पास पहुँचा। मुझे देखते ही खुश हो गए।

“बहुत दिन बाद आज आप दिखे।” मैंने उनके पास पहुँच कर कहा।

“बस यूँ ही आ न सका।” उन्‍होंने धीरे से कहा।

‘बस बहुत हो गया चलना। आइए, थोड़ी देर बैठ जाते हैं।” कहकर उन्होंने पार्क के एक कोने में रखी बैंचों की तरफ इशारा किया। तेज-तेज चलने से उनकी साँस फूल गई थी।

फरवरी का महीना खत्म होने वाला था। बाग में धीरे-धीरे करके काफी लोग जमा हो गए थे कुछ थुलथुल लोग आहिस्ता-आहिस्ता दौड़ कर अपने मोटापे को कम करने की जुगत कर रहे थे। कुछ लोगों के चलते समय उनके शरीर का दायाँ या बायाँ भाग एक तरफ झुक जाता था। शायद उनका वजन बहुत ज्यादा था। उन्हें डर था कि यदि वे रोज सुबह-सवेरे नहीं चलेंगे तो वे जल्दी ही खाट पकड़ लेंगे। खाट पकड़ने से हर आदमी खौफ खाता था, इसलिए लोग जैसे-तैसे करके सुबह की सैर को जरूर आ जाते थे। सर्दी हो, गर्मी हो, या फिर हल्की ‍‍सी बूँदा-बाँदी ही क्‍यों न हो, पर बाग में टहलने आते जरूर थे। वे किसी न किसी तरह अपने शरीर को चलाए रखना चाहते थे। इस उम्र तक पहुँचते-पहुँचते उन्हें अच्छी तरह इलहाम हो चुका था कि यदि रोज सैर नहीं करेंगे तो बीमारियाँ किसी बटालियन की तरह उन पर हमला पर बैंठेगी। बीमारियों से बचने के लिए ही वे सैर रूपी दवा लेते रहते थे। वैसे हर आदमी के शरीर में कोई न कोई बीमारी घर किए बैठी थी। किसी को गैस की प्राब्‍लम थी, तो कोई अपनी डायबिटीज से परेशान था, तो कोई घुटनों के या जोड़ों के दर्द को दूर करना चाहता था। बाग में टहलने वालों की बातचीत के केंद्र में भी उनकी अपनी बीमारियाँ ही रहती थीं। सुबह-सवेरे बाग में कुछ लोग पूरब की ओर मुँह करके सूर्य नमस्कार कर रहे थे, तो कुछ लोग घास पर दरी बिछाकर योगासन कर रहे थे। हवा में ठंडक अभी भी मौजूद थी।

“कहाँ रहे इतने दिन, सुबह की सैर करने नहीं आए?” मैंने पूछा।

“अब आपको क्या बताऊँ, बच्चों से छुटकारा मिले तो आऊँ न” उन्‍होंने ऐसे कहा गोया उन्हें बहुत पीड़ा हो रही हो।

“क्‍यों बच्‍चे तो आपके बड़े हो गए है। अब तो आपको छुटकारा मिल जाना चाहिए” मैंने कहा।

“पर उनके तो नहीं हुए न। उन्हें भी तो बड़ा करना है। अब इस उम्र में भी बच्‍चे पीछा नहीं छोड़ सकते। अरे भाई हमने तुम लोगों को बड़ा कर दिया, अब तुम लोग अपने बच्चों को बड़ा करो। लेकिन नहीं… यह काम भी हमारे ऊपर छोड़ा हुआ है।” उनकी आवाज में उदासीनता झलक रही थी।

मैं चुप रहा। काफी दिनों से वे रोज मुझसे मिलते थे। हम लोगों की बातचीत ज्यादातर भ्रष्ट व्‍यवस्‍था, राजनीति और समाज में फैल रही अराजकता पर केंद्रित होती थी। कभी अपने बच्चों के बारे में खुलकर उन्‍होंने मुझसे जिक्र नहीं किया। इतना मुझे जरूर पता था कि उनकी पत्नी का देहांत हो चुका है और वे अपने बेटे और बहू के साथ रह रहे हैं।

“ओह!” मैंने उनके प्रति सहानुभूति व्यक्त करते हुए कहा, “कुछ वक्त अपने लिए भी निकालिए।”

“यही तो हो नहीं पा रहा। सारा दिन बच्चों की देख रेख में लगा रहता हूँ। कभी एक बच्‍चे को स्‍कूल छोड़ने जाना है, कभी दूसरे को डाक्टर के पास लेकर जाना है। कभी बाजार जाना है तो कभी बैंक जाना है। अपने लिए तो समय ही नहीं निकलता।” उन्‍होंने मायूसी से कहा।

“फिर भी कुछ समय तो आप अपने लिए भी निकालिए। दुनिया देखिए, बहुत कुछ है दुनिया में देखने लायक। कभी-कभी समय निकालकर इस शहर से बाहर हो आया करिए” मैंने कहा।

“यही तो हो नहीं रहा। चाहता तो मैं भी हूँ कि मैं लद्दाख की बर्फीली हवाओं में घूमने जाऊँ, राजस्थान की तपती रेत पर चलूँ, गोआ के समुंदरों में अठखेलियाँ करूँ, चेरापूँजी की बारिश में भीगूँ। लेकिन बच्चे पीछा छोड़ें तब न।” उन्‍होंने अपनी पीड़ा का बयान किया।

उनकी बात सुनकर मैं खामोश हो गया। यह उनका निहायत निजी मामला था। मैं क्या कहता उन्‍होंने फिर कहा “शहर से बाहर की बात तो दूर, मैं तो अपनी मर्जी से शहर के किसी सिनेमा हाल में फिल्म देखने भी नहीं जा सकता। सवेरे से शाम तक बच्चों के बच्चों की सेवा में लगा रहता हूँ।”

उनकी पीड़ा धीरे-धीरे सामने आ रही थी।

“आखिर बच्चे भी तो आपके ही है।” मैंने आहिस्ता से कहा।

“पर इसका यह मतलब तो नहीं है कि मैं बच्चों की देख-रेख के नाम पर उनका सुपर-मेड सर्वेंट बन कर रहूँ।” अचानक वे आवेश में आ गए।

“हाँ, ऐसा तो नहीं होना चाहिए, आपने बहुत कर लिया काम। अब आप अपने लिए जिएँ। आपने बच्चों को बड़ा कर दिया, अब वे अपने बच्चों को बड़ा करें, आप उन्हें सिर्फ गाइड करते रहें।” मैंने सलाह देने के अंदाज में कहा।

“अब आपको क्या बताऊँ, मेरी तो अब जीने की इच्छा ही नहीं करती।” उन्‍होंने मायूसी से कहा। अचानक उन्‍होंने घड़ी देखी। सात बजने वाले थे।

“कहने लगे “अब चलता हूँ। संगीता को स्‍कूल छोड़ने का टाइम हो गया।” संगीता उनकी पोती का नाम था।

कहकर वे बैंच से उठे और धीरे-धीरे चलते बाग के गेट से बाहर आ गए।

अगले दो-तीन दिन तक मुझे वे बाग में नहीं मिले। अचानक चौथे दिन वे मुझे मिल गए। बाग की बैंच पर बैठे हुए अनुलोम-विलोम कर रहे थे। मुझे देखते ही खुश हो गए गोया मेरा ही इंतजार कर रहे हों। बोले, “आइए, आइए, पता है आज मैं मुँह अँधेरे ही बाग में आ गया था।”

“मुझे कैसे पता होगा मैं तो अभी-अभी आ रहा हूँ।” मैंने कहा।

“पर मैं आज बहुत जल्दी आ गया, कौओ के उठने से पहले।” उनके स्वर में आज खुशी झलक रही थी।

“कौओ के उठने से पहले ही…” मैंने हैरानी से पूछा।

“हाँ कौओं के उठने से पहले। आपको पता है कि कौआ सबसे पहले उठने वाला पक्षी है।”

“आपको कैसे पता?” मैंने सवाल किया।

“मुझे पता है। कौए का घोंसला पेड़ पर सबसे ऊपर होता है इसलिए भोर की पहली किरण कौए के घोंसले पर पड़ती है। बाकी पक्षियों पर बाद में, इसलिए वे कौए के बाद में उठते हैं।”

मेरे लिए यह जानकारी दिलचस्प थी।

“पर आप तो कौए नहीं हैं, आप इतनी जल्दी कैसे उठ गए,” मैंने कहा।

“क्या बताऊँ, आपको, रात दो बजे तक मैं जागता रहा।” उनकी आवाज से खुशी एकदम गायब हो गई।

“क्‍यों… दो बजे तक क्‍यों जागते रहे।” मैंने पूछा।

“क्या बताऊँ आपको, कल रात बेटा और बहू पिक्चर देखने गए थे और मुझे उनके आने पर गेट जो खोलना था।”

“तो आप सो जाते। जब वे आते तो उठ जाते।” मैंने कहा।

“सोता कैसे! यह कहकर गए थे कि बारह बजे तक आ जाएँगे। मैं उठ-उठ कर घड़ी देखता रहा लेकिन आए-ढाई बजे। ढाई बजे! तब उसके बाद मुझे नींद ही नहीं आई। सोने की बहुत कोशिश की पर सो न सका। एक बार सोने का टाइम निकल जाए तो नींद नहीं आती। बस इधर-उधर करवटें बदलता रहा। बार-बार उठ-उठ कर घड़ी देखता रहा जैसे ही पाँच बजे, मैं उठ गया। एक कप चाय बनाकर पी और यहाँ आ गया।” उन्‍होंने जल्दी आने का कारण बताया

मैं उनकी बात सुनता रहा। उन्‍होंने फिर कहा, “आज जब मैं आया, उस समय बाग में कोई नहीं था। आज मैं जूते उतार कर हरी घास पर काफी देर चलता रहा। हरी घास पर नंगे पैर चलने से बहुत फायदा होता है।”

“अच्‍छा! क्या फायदा होते हैं।” मैंने जानना चाहा।

“एक तो हरी घास पर सुबह-सवेरे चलने से पूरा शरीर एक्टिव रहता है और दूसरा हम अपने आप को नेचर से जुड़ा महसूस करते हैं।” उन्‍होंने खुश होकर कहा।

“दरअसल बात यह है कि कई दिनों से मेरे पैर में बहुत दर्द हो रहा है। डाक्‍टरों ने स्‍टीरायड का इंजेक्शन लेने के लिए कहा लेकिन मैं वह इंजेक्शन लेना नहीं चाहता।”

“क्‍यों, क्‍यों नहीं लेना चाहते।

“उसके लेने से और बहुत दिक्‍कतें हो सकती हैं। मुझे एक हकीम ने कहा सुबह सवेरे नंगे पैर हरी घास पर चला करो दर्द अपने आप दूर हो जाएगा। इसलिए मैं जल्दी आ गया हूँ।” उन्‍होंने जल्दी आने का सही कारण बताते हुए कहा।

दरअसल अरुण रंजन वशिष्ठ बुढ़ापे की परिधि में आ चुके थे लेकिन मानने को तैयार नहीं थे कि बुढ़ापा धीरे-धीरे उनके शरीर में समा रहा है। मुझे पता है कि उन्‍होंने अपनी दोनों आँखों का कैटेरेक्‍ट का आपरेशन करवा लिया है। दाँत भी इम्‍प्‍लांट करवा रखे हैं। डायबिटीज के वे रोगी हैं, इसलिए सुबह-सवेरे बाग में सैर करना उनके लिए जरूरी था। डायबिटीज बढ़ न जाए, इसलिए करेले और जामुन के जूस से लेकर बाबा रामदेव के स्‍टोर की न जाने कौन-कौन सी दवाइयाँ लेते रहते हैं।

“सुबह-सवेरे घास में चलने से आराम मिला?” मैंने जानना चाहा।

“अब बुढ़ापा आ गया है तो कितना आराम मिलेगा।” उन्‍होंने अनमनयस्‍कता से कहा।

“आप अभी से कैसे बूढ़े हो सकते है। आपने तो अभी तक बुढापे की आहट भी नहीं सुनी। अभी तो आप केवल पैंसठ साल के ही होंगे,” मैंने कहा।

“पैंसठ नहीं… बासठ।” उन्‍होंने फौरन मेरी बात का खंडन किया।

“हाँ-हाँ बासठ ही सही। पुरुष तो साठ साल में भी जवान होते हैं। सुना नहीं आपने साठा सा पाठा” मैंने उनको ढाँढ़स बँधाते हुए कहा।

सूरज की लाल रोशनी बाग में धीरे-धीरे फैल रही थी। वे बार बार घड़ी की ओर देख रहे थे। फिर कहने लगे, “अभी सात बजने में टाइम है। आइए थोड़ा टहल लें।

हम दोनों बैंच से उठकर बाग में टहलने लगे। चलते-चलते उन्‍होंने कहा। आप बहुत भाग्यशाली है।”

मैं चौंक गया। समझ न सका कि वे क्या कहना चाहते हैं।

“मतलब…। मैं समझा नहीं।” मैंने हैरानी से कहा।

“मेरा मतलब है भाभी जी आपके साथ हैं। आपको अंदाजा नहीं कि इस उम्र में बिना पत्नी के जीवन कैसे जिया जाता है।” उनकी आवाज सहमी हुई थी।

मुझे पता था कि उनकी पत्नी का देहांत हुए एक अर्सा हो गया। कैंसर था उन्हें। एक से एक बेहतरीन इलाज करवाया उन्‍होंने। देश के नामी-गिरामी डाक्‍टरों के पास गए। एक नहीं कई कई अस्पतालों में गए। आयुर्वेदिक से लेकर होम्‍योपैथिक तक का इलाज भी करवाया उन्‍होंने। लेकिन वे अपनी पत्नी को बचा न सके। वे जानते थे कि यह लाइलाज बीमारी एक दिन उन्हें अकेला छोड़ देगी लेकिन उन्‍होंने आखिर तक पत्नी के ठीक होने की एक क्षीण सी आशा को अपने सीने में बनाए रखा। इस चक्‍क्‍र में उन्‍होंने अपनी गाँव की जमीन तक बेच दी। लेकिन इसका उन्हें कोई मलाल नहीं था। मलाल था तो सिर्फ इस बात का कि वे अपनी पत्नी को बचा न सके। एकदम अकेले हो चुके थे लेकिन अपने अकेलेपन को कभी किसी पर जाहिर नहीं करते थे। आज पता नहीं क्‍यों उनका अकेलापन उनकी जबान पर आ गया।

“हाँ, वो तो है। जीवन की गाड़ी दोनों के साथ रहने से ही सुचारु रूप से चलती है। लेकिन एक साथ छोड़ जाए उस पर किसी का वश तो नहीं।” मैंने उन्हें तसल्ली देते हुए कहा।

“क्या बताऊँ, जब से मेरी वाइफ की डैथ हुई है, तब से मुझे ऐसा लगता है कि गोया मेरा एक कंधा ही टूट गया हो। वह होती तो बेटे-बहू के साथ तालमेल बिठा लेती लेकिन अकेला पुरुष बेचारा क्या करे। उनके साथ कैसे तालमेल बिठाए,” अचानक उनकी आवाज में एक गुस्सा सा आ गया।

यह उनकी दुखती रग थी। मैं कुछ नहीं बोला। अचानक उनके कदमों में तेजी आ गई।

“अब बच्चों को भी तो आपका ही आसरा है।” मैंने ढाँढ़स बँधाया।

“आसरा है वो तो ठीक है, पर कुछ हद तक तो उन्हें भी अपना काम खुद करना चाहिए। बत्तीस साल का हो गया है। कब तक मेरे आसरे बैठा रहेगा।” अपने बेटे के प्रति उनका गुस्सा बाहर आ गया था।

“क्या करता है आपका बेटा।” मुझे अंदाजा तो था लेकिन फिर भी मैंने पूछ लिया।

“नोयडा की साफटवेयर कंपनी में काम करता है। सुबह आठ बजे चला जाता है और रात को ग्यारह बजे आता है।”

“और बहू…।

“वह एक एमएनसी कंपनी में काम करती है। वह भी सुबह आठ बजे जाती है और रात को दस बजे आती है।” उन्‍होंने हिकारत से कहा।

“ओह, तब तो उनके बच्चों की सारी जिम्मेदारी आप पर आ गई,” मैंने कहा।

“यही तो रोना है। ये दोनों जने ठाठ से नौकरी करें और मैं सारा दिन इनके बच्चों को सँभालता रहूँ।” उनकी हिकारत बरकरार थी।

“कोई सर्वेंट वगैरह नहीं रखा क्या?” मैंने कहा।

“हाँ रखा है, एक सर्वैंट है। वह आकर एक साल के बच्‍चे को देखती है। लेकिन उतना ही काफी नहीं है। उस मेड पर हर वक्त मुझे नजर रखनी पड़ती है। रोज सुबह संगीता को स्‍कूल छोड़ने जाता हूँ और दोपहर को लेने जाता हूँ। कभी एक बच्‍चे को डाक्टर के पास ले जाता हूँ तो कभी दूसरे को। कभी दवाइयाँ लाता हूँ। कभी घर का सौदा सुल्‍फ लाता हूँ। कभी बहू की गाड़ी को मेकैनिक के पास लेकर जाता हूँ, तो कभी बेटे की गाड़ी को। उन दोनों के लिए शाम के खाने का इंतजाम करके रखता हूँ। सुबह बेटे-बहू को खाना पैक करके देता हूँ। और शाम को उन लोगों के लिए खाना बनवाकर रखता हूँ। मैं तो बच्चों की सुपर मेड बनकर रह गया हूँ और जिस दिन वह मेड नहीं आती उस दिन का हाल मैं आपको बयान नहीं कर सकता। आप बताइए मैं कैसे अपने हिसाब से जीवन जिऊँ,” उन्‍होंने तल्खी से कहा।”

“तो आप बच्चों को कहें कि आफिस के पास घर ले लें। ताकि आने जाने का समय बचेगा।” मैंने सलाह देने की कोशिश की।

“यही तो दिक्कत है। कितनी बार कह चुका हूँ लेकिन सुनते ही नहीं। कहते हैं हम चले गए तो आपका ख्याल कौन रखेगा। अरे भाई, मैं अपना ख्याल रख लूँगा। आप अपने बच्चों का तो ख्याल रखो। पर हकीकत तो यह है कि नए घर में जाएँगे तो घर का किराया देना पड़ेगा और बच्चों की सारी जिम्मेदारियाँ अकेले उठानी पड़ेंगी, जो वे नहीं चाहते और मुझे तो पापा-पापा कहकर सुपर मेड बना कर रखा हुआ है।” कहते-कहते वो बहुत आवेश में आ गए।

चलते हुए उन्‍होंने घड़ी देखी सात बजने वाले थे। कहने लगे “अब चलता हूँ सात बजने वाले हैं। संगीता को स्‍कूल छोड़ने का टाइम हो गया।”

कहकर वे बाग के गेट से बाहर निकल गए।

अगले दिन वे मुझे फिर बाग में मिल गए। मुझे देखते ही खुश हो गए। कहने लगे, “आज भी मैं कौओं के उठने से पहले आ गया।”

“कल रात को क्या फिर जागते रहे।” मैंने पूछा

“नहीं कल रात तो जल्दी सो गया। आठ बजे ही। कल शाम को ही बेटा अपनी ससुराल गया है। रात उसने वहीं रहना था। मुझे थोड़ा आराम मिल गया।” उन्‍होंने खुश होकर कहा

“यह तो अच्छी बात है” मैंने कहा।

“अच्‍छा, आप मेरा एक काम कर दीजिए,” अचानक उन्‍होंने कहा।

मैंने शंकित नजरों से उनकी ओर देखा पर बोला कुछ नहीं।

“बोलिए करेंगे मेरा काम।” उन्होंने फिर कहा।

“हाँ-हाँ, जरूर करूँगा, आप काम तो बताइए” मैंने कहा।

“सोच लीजिए, हाँ करने के बाद आपको मेरा काम करना पड़ेगा आप अपने वायदे से मुकर न जाना।” उन्‍होंने मुस्कराते हुए कहा।

“आप कहिए तो।” मैंने जोर देकर कहा।

“आप ऊपर वाले से मेरे लिए प्रार्थना करिए कि मुझे जल्दी अपने पास बुला ले। मैं अब और जीना नहीं चाहता।” उन्‍होंने हँसते हुए कहा लेकिन उनकी आवाज में एक दर्द था।

मैं सकते में आ गया यह क्या कह रहे है। “अरे आप यह क्या कह रहे हो। ऐसा थोड़े ही न होता है।” मैंने कहा।

“आप यकीन मानिए, सच में मैं अब और जीना नहीं चाहता। पत्नी होती तो बात कुछ और होती। पर अब वाकई मैं जीना नहीं चाहता।” उन्‍होंने एक-एक शब्द पर जोर देते हुए कहा।

“ऐसा क्‍यों सोचते है आप।” मैंने सांत्वना देते हुए कहा।

“एक न एक दिन तो सबने जाना ही है।” उनके चेहरे पर विरक्ति का भाव आ गया।

“वो तो ठीक है, पर इसका यह मतलब तो नहीं है कि हम अभी से मृत्यु के बारे सोचने लगे। कबीर ने कहा है हम न मरब मरिहैं संसारा।” मैंने उन्हें दिलासा देने की कोशिश की।

“आप ठीक कहते हो, पर पता नहीं क्‍यों, आजकल जो लोग इस दुनिया से चले गए उनके चेहरे आँखों के सामने आ जाते हैं। रह-रह कर अपनी माँ का चेहरा याद आने लगता है। आपको मैंने शायद बताया होगा कि जब मैं बारह साल का था तब वह चली गई। अक्‍सर अकेले चलते-चलते उनकी परछाईं मेरे साथ चलती रहती है। बहुत जी लिया अब और जीने की इच्छा नहीं करती,” कहते-कहते उनकी आँखें नम हो आईं।

“क्‍यों? क्‍यों इच्छा नहीं करती। बच्चों की वजह से…,” मैंने कहा।

उन्‍होंने मेरी तरफ ध्यान से देखा गोया कह रहे हो आप सब जानते हो तो पूछ क्‍यों रहे हो।

“नहीं, बस अब जीने की इच्छा नहीं करती।” उन्होंने कहा।

“अभी से आप इस तरह क्‍यों सोचते हैं। अभी आपकी उम्र ही क्या है आप तो सौ साल तक जीयेंगे।” मैंने कहा।

“नहीं, ऐसा मत कहिए। कभी-कभी अनजाने में कही गई बात सच हो जाती है। मैं बिल्‍कुल लंबी उम्र नहीं चाहता। मैं चाहता हूँ चलता-फिरता ही इस जहाँ से कूच कर जाऊँ,” उन्‍होंने कहा।

“आजकल अस्सी पच्चासी साल की उम्र चलते-फिरते रहने की उम्र होती है। आप तो इस उम्र से अभी बहुत दूर हैं।” मैंने कहा।

“वो तो ठीक है। पर मैं एक उम्र के बाद जो एक अँधेरी गुफा आती है, मैं उस गुफा में जाने से बहुत डरता हूँ। अँधेरी गुफा में जाने का मतलब जानते हैं आप।” उन्‍होंने मुझसे पूछा।

“क्या…?” मैं जानना चाहता था कि वे किस अँधेरी गुफा की ओर इशारा कर रहे थे।

“अँधेरी गुफा में जाने का मतलब है दीन दुनिया से कट जाना और दिन रात अपनी खाट पर पड़े रहना। मैंने अपने फादर साहब को देखा है। पचानवे साल की उम्र में गए। इस उम्र तक पहुँचते-पहुँचते उनके सारे अंगों ने काम करना बंद कर दिया था। आँखों से दिखाई नहीं देता। कानों से सुनाई नहीं देता था। हमने उनके लिए व्हील चेयर मँगवा दी थी – उनकी खिदमत के लिए एक लड़का रख दिया था। जब उनकी इच्छा होती वह लड़का उनके मुँह में खाना डाल देता। जब इच्छा होती वह लड़का उन्हें बाथ रूम ले जाता। दिमाग उनका एकदम एक्टिव था लेकिन शरीर, मन का साथ नहीं दे रहा था। आखिर में वो किस तरह जिए, मैं ही बता सकता हूँ। मैं उस उम्र तक जीना नहीं चाहता।” कहते-कहते सुबह-सवेरे उनके चेहरे पर विषाद की रेखाएँ उभर आईं।

“ऐसा सबके साथ नहीं होता। आप तो यह सोचिए कि अभी आपको जीवन में बहुत सारे काम करने हैं।” मैंने कहा।

“क्या काम करूँ। इस उम्र में मैं क्या काम कर सकता हूँ।” उनकी बात में आवेश था।

“कुछ भी करिए, अपनी मनपसंद का कोई काम तलाश कर लीजिए। न हो तो किसी सरकारी स्‍कूल में जाकर बच्चों को कहानियाँ ही सुना आइए, स्‍कूल वाले भी खुश हो जाएँगे।” मैंने सलाह देने के अंदाज में कहा।

“अब इस उम्र में…” उन्‍होंने हैरानी से कहा।

“हाँ इसी उम्र में भी, उम्र का इससे क्या लेना देना। आपके आस पास अनेक ऐसे उदाहरण मिलेंगे जिन्‍होंने साठ वर्ष बाद ही जीवन में सार्थकता तलाशी है। महत्वपूर्ण आपकी उम्र नहीं, आपकी सक्रियता है, आपकी गतिशीलता है। आप जीवन में अपनी गतिशीलता को बनाए रखेंगे तो न जीने का विचार आपके जेहन में नहीं आएगा।” मैंने कहा।

मेरी बात सुनकर वे चुपचाप चलते रहे। बोले कुछ नहीं। उन्हें चुप देख मैंने फिर कहा, “आप निराश मत होइए, जीवन के प्रति उत्साह को बनाए रखिए। आपके मन में जो हताशा आ रही है उसे दूर कर दीजिए। आप मेरी बात मानिए आप अपने आप को बच्चों का सुपर मेड मत समझिए। अपने आपको ग्रांड फादर समझिए। आप ग्रांड फादर हैं उनके। बच्चों को अपनी इच्छा-अनिच्छा के बारे में बताइए। आजकल के बच्‍चे हमसे ज्यादा समझदार हैं। वे आपकी बात को समझेंगे और इस तरह के ख्याल मन में मत लाइए।”

मेरी बात सुनकर वे मुस्‍करा दिए फिर कहने लगे, “जानते है आप कि मैं आपको क्‍यों पसंद करता हूँ।?”

“क्‍यों?” मैंने संशय से पूछा।

“इसलिए कि आप हमेशा अक्लमंदी की बात करते हैं।” कहकर वे मुस्‍कराने लगे।

मैंने घड़ी देखी सात से ज्यादा का वक्त हो गया था।” आज आपने संगीता को छोड़ने स्‍कूल नहीं जाना। मैंने पूछा।

“नहीं, आज वह अपनी नानी के घर गई है। उसके स्‍कूल की छुट्टी है।” उन्‍होंने कहा।

“तो इसका मतलब आज आपकी भी छुट्टी।” मैंने कहा।

“हाँ। उनकी आवाज में खुशी थी।

बाग में सैर करने आए लोग धीरे-धीरे करके जा रहे थे।

“छोड़िए आप यह सब, आइए, बाग का एक चक्कर और लगाया जाए। सुबह-सवेर रोज सैर करा करिए और खुश रहा करिए। भूल जाइये आपकी उम्र क्या है। देखिए इस वक्त हवा में कितनी ताजगी है” मैंने कहा और बैंच से उठकर बाग का चक्‍क्‍र लगाने लगा।

वे भी मेरे साथ चलने लगे। चलते-चलते उन्‍होंने कहा, “आपसे मिलकर बड़ी ताकत मिलती है मुझे।”

मैं चुप रहा। हम दोनों में से कोई कुछ नहीं बोला। बाग में सूरज की किरणें फैल चुकी थी। सूरज काफी ऊपर आ चुका था। सूरज की किरणों में धीरे-धीरे गरमाहट आ रही थी।

Download PDF (सुबह-सवेरे )

सुबह-सवेरे – subah-Savere

Download PDF: Subah-Savere in Hindi PDF

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *